भारतीय शास्त्र में अणु की परिभाषा

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अणु के लिये सबसे प्राचीन ग्रन्थ उपनिषदों मे अणुवाद अथवा अणु का उल्लेख कम ही मिलता है, इसी कारण से अणुवाद का उल्लेख वेदान्त सूत्रो मे कम ही मिलता है, क्योंकि उनकी दार्शनिक उदगम भूमि उपनिषद ही है, अणुवाद का उल्लेख सांख्य और योग मे भी नहीं मिलता है, अणुवाद वैशेषिक दर्शन का एक प्रमुख अन्ग है, और न्याय ने भी इसे मान्यता प्रदान की है, जैन धर्म ने इसे स्वीकार किया है, और (अभिधर्म-कोष) की व्याख्या के नौसार आजीविकों ने भी इसको मान्यता दी है। प्रारम्भिक बौद्ध धर्म इससे परिचित नहीं है, (पालि) बौद्ध ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक इसको पूर्ण मानने वाले थे, (न्याय-वैशेषिक शास्त्र) के अनुसार प्रथम चार द्रव्य वस्तुओं का सबसे छोटा अन्तिम कण जिसका आगे विभाजन नहीं हो सकता है, अणु (परमाणु) कहलाता है। इसमे गन्ध, स्पर्श, परिमाण, संयोग, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग आदि गुण समाये रहते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसका इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष नहीं होता है, इसकी सूक्षमता का आभास करने के लिये कुछ स्थूल द्रष्टान्त दिये गये हैं-"जालन्तरगते भानौ यत्सूक्षमं द्र्श्यते रज:, तस्य षष्टितमो भाग: परमाणु: स उच्च्यते, बालाग्रशतस्यभागस्य शतधा कल्पितस्य च", अर्थात-घर के भीतर छिद्रों से आते हुए सूर्य प्रकाश के बीच में उडने वाले कण का साठवां भाग;अथवा रोयें के अन्तिम सिरे का हजारवां भाग परमाणु कहा जाता है, व्यवहारत: वैशेषिकों की शब्दावली में अणु सबसे छोटा आकार कहलाता है, अणुसंयोग से द्वयगुणक, त्रसरेणु, आदि बडे होते चले जाते हैं, जैनमतानुसार आत्मा एवं देश को छोडकर सभी वस्तुयें पुद्गलों से उत्पन्न होती हैं, सभी पुदगलों के परमाणु अथवा अणु होते हैं, प्रत्येक अणु एक प्रदेश या स्थान घेरता है, पुदगल स्थूल या सूक्षम होता है, जब यह सूक्षम रूप मे रहता है, तो अगणित अणु एक स्थूल अणु को घेरे रहते हैं, अणु शाश्वत है, प्रत्येक अणु में एक प्रकार का रस, गन्ध, रूप और दो प्रकार का स्पर्श रहता है, यह विशेषतायें स्थिर नहीं है, और न ही बहुत से अणुओं के लिये निश्चित हैं, दो अथवा अधिक अणु जो चिकनाहट या खुरदरापन के गुण में भिन्न होते है, आपस में मिलकर स्कन्ध बनाते हैं, प्रत्येक वस्तु एक ही प्रकार के अणुसमूह से निर्मित होती है, अणु अपने अन्दर गति का विकास कर सकता है, और यह गति इतनी तीव्र हो सकती है, कि एक क्षण मे वह विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच सकती है। बादलों के अन्दर पानी के अणुओं का प्रतिवाद इसका उदाहरण है, अति धनात्मक संवेदना के चलते ही वह ऋनात्मक खोज के लिये चलायमान होने पर पृथ्वी के निकट आकर अपने को पातालित कर शून्य हो जाता है, उसी प्रकार से व्यक्ति विशेष के द्वारा लगातर आकाशीय विद्युत तरंगों को आकर्षित करने के प्रति अपनी जिव्हा और मानसिक गति के द्वारा अथवा शरीर के विभिन्न भागों को लगातार उद्वेलित करके अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रुत कर लेता है, और अपने को आश्चर्य व्यक्ति की परिभाषा में गिनती कर देता है।

  • काश्मीर में शैव सम्प्रदाय के शैव आगमों और शिवसूत्रों का दार्शनिक द्रष्टिकोण अद्वैतवादी है, प्रत्यभिज्ञा (मनुष्य की शिव से अभिन्नता का अनवरत ज्ञान) मुक्ति का साधन बतायी गयी है, संसार को केवल माया नहीं समझा गया है, यह शिव का ही शक्ति के द्वारा प्रस्तुत स्वरूप है, सृष्टि के विकास की प्रणाली, सांख्यमत के सद्रश है, किन्तु इसकी कुछ अपनी विशेषतायें है, इस प्रणाली को त्रिक कहते है, क्योंकि यह तीन सिद्धान्तों को व्यक्त करती है, वे सिद्धान्त हैं-शिव, शक्ति, और अणु, अथवा पति, पाश और पशु, अणु का ही नाम पशु है।