भारतीय शस्य

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लेपाक्षी, आंध्र प्रदेश में सूरजमुखी की फसल से भरा खेत

ज्वार (Sorghum vulgare)

यह फसल लगभग सवाचार करोड़ एकड़ भूमि में भारत में बोई जाती है। यह चारे तथा दाने दोनों के लिये बोई जाती है। यह खरीफ की मुख्य फसलों में है। सिंचाई करके वर्षा से पहले एवं वर्षा आरंभ होते ही इसकी बोवाई की जाती है। यदि बरसात से पहले सिंचाई करके यह बो दी जाए, तो फसल और जल्दी तैयार हो जाती है, परंतु बरसात जब अच्छी तरह हो जाए तभी इसका चारा पशुओं को खिलाना चाहिए। गरमी में इसकी फसल में कुछ विष पैदा हो जाता है, इसलिए बरसात से पहले खिलाने से पशुओं पर विष का बड़ा बुरा प्रभाव पड़ सकता है। यह विष बरसात में नहीं रह जाता है। चारे के लिये अधिक बीज लगभग १२ से १५ सेर प्रति एकड़ बोया जाता है। इसे घना बोने से हरा चारा पतला एवं नरम रहता है और उसे काटकर गाय तथा बैलों को खिलाया जाता है। जो फसल दाने के लिये बोई जाती है, उसमें केवल आठ सेर बीज प्रति एकड़ डाला जाता है। दाना अक्टूबर के अंत तक पक जाता है भुट्टे लगने के बाद एक महीने तक इसकी चिड़ियों से बड़ी रखवाली करनी पड़ती है। जब दाने पक जाते हैं तब भुट्टे अलग काटकर दाने निकाल लिए जाते हैं। इसकी औसत पैदावार छह से आठ मन प्रति एकड़ हो जाती है। अच्छी फसल में १५ से २० मन प्रति एकड़ दाने की पैदावार होती है। दाना निकाल लेने के बाद लगभग १०० मन प्रति एकड़ सूखा पौष्टिक चारा भी पैदा होता है, जो बारीक काटकर जानवरों को खिलाया जाता है। सूखे चारों में गेहूँ के भूसे के बाद ज्वार का डंठल तथा पत्ते ही सबसे उत्तम चारा माना जाता है।

बाजरा (Pennisetum typhoideum)

यह भी भारत की मुख्य फसलों में है। यह फसल लगभग दो करोड़ ८० लाख एकड़ भूमि में बोई जाती है। जुलाई के तीसरे सप्ताह से लेकर इस महीने के अंत तक इसकी बोवाई होती है। बाजरा हलकी, दूमट बलुई तथा भूँड़ जमीनों में पैदा होता है। चारे के लिये इसका बीज १० सेर प्रति एकड़ तथा दाने के लिये केवल तीन सेर प्रति एकड़ डाला जाता है। इसमें मूँग, लोबिया, उरद, आदि इत्यादि दलहन मिलाकर भी बोते हैं। जब पौधे दो से ढाई फुट के हो जाते हैं तब देशी हल से दूर दूर जोताई कर दी जाती है। ऐसा करने से पौधों की जड़ों तक हवा पहुँच जाती है तथा फसल अच्छी बढ़ती है। इसका चारा ज्वार से उत्कृष्ट कोटि का माना जाता है। इसकी फसल को क्वार के महीनें में चिड़ियों से बचाना पड़ता है। पक जाने पर बालियाँ काटकर दाने निकाल लिए जाते हैं। इसकी पैदावार ५ से १० मन प्रति एकड़ होती है। यह बिना सीच वाली बलुई तथा ऊँची नीची जमीनों की फसल है। यह नदी के समीप के बलुआ खेतों में अधिक बोई जाती है। ऐसी जमीनों से पाँच से १० मन प्रति एकड़ की पैदावार ही संतोषजनक मानी जाती है।

चना (Cicer Arictinum)

भारत में लगभग ढाई करोड़ एकड़ भूमि में चना बोया जाता है। दलहन की फसलों में इसका क्षेत्रफल सबसे अधिक है। चना उगने के बाद ही, साग सब्जी के रूप में खाया जाता है, फिर हरा चना कच्चा, अथवा पकाकर दाल व तरकारी के रूप में खाया जाता है। पशुओं के दाने के लिये भी चने का उपयोग होता है। चने को भूनकर तथा इसकी चाट बनाकर भी खाया जाता है। जितने रूप में चने का उपयोग होता है, संभवत: उतने प्रकार से और किसी अन्न का उपयोग नहीं होता।

यह रबी की दालदार फसल है। यह दूमट से लेकर मटियार भूमि तक में पैदा होता है। यह खरीफ की फसल, धान, मक्का, ज्वार, आदि के बाद, अक्टूबर के आरंभ में, बोया जाता है। इसके बोने से खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और चने को खाद की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि इसकी जड़ों में हवा से नाइट्रोजन इकट्ठा करने वाले जिवाणु होते हैं। इसकी बोवाई के लिए खेत को चार या पाँच बार जोतना काफी है। यदि खेत में ढेले रहें, तो फसल अच्छी होती है। चने को सिंचाई की भी अधिक आवश्यकता नहीं होती। यदि जाड़ों में पानी न बरसे तो एक सिंचाई कर दी जाती है। इसका हरा दाना माघ, फागुन में खाने लायक तैयार हो जाता है। फसल के पकने पर १० से १५ मन प्रति एकड़ दाना प्राप्त होता है। इसकी सफेद बड़ी जाति को काबुली चना कहते हैं। यह बहूत महँगा बिकता है। शहरों में काबुली चना तरकारी में तथा चाट में अधिक खाया जाता है।

अरहर (Cajanus indicus)

यह पूर्व उत्तरी भारत के दलहन की मुख्य फसल है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में तो दाल माने अरहर की दाल। यह केवल उत्तर प्रदेश में ३० लाख एकड़ से अधिक रकबे में बोई जाती है। इसके लिये नीची तथा मटियार भूमि को छोड़कर सभी जमीनें उपयुक्त हैं। ऊँची दूमट भूमि में, जहाँ पानी नहीं भरता, यह फसलश् विशेष रूप से अच्छी होती है। य बहुधा वर्षा ऋतु के आरंभ में और खरीफ की फसलों के साथ मिलाकर बोई जाती है। अरहर के साथ कोदो, बगरी-धान, ज्वार, बाजरा, मूँगफली, तिल आदि मिलाकर बोते हैं। वर्षा के अंत में ये फसलें पक जाती है और काट ली जाती हैं। इसके बाद जाड़े में अरहर बढ़कर खेत को पूर्णतया भर लेती है तथा रबी की फसलों के साथ मार्च के महीने में तैयार हो जाती है। पकने पर इसकी फसल काटकर दाने झाड़ लिए जाते हैं। और फसलों के साथ मिलाकर इसका बीज केवल दो सेर प्रति एकड़ के हिसाब से डाला जाता है। अरहर को वर्षा के पहले दो महीनों में यदि निकाई व गोड़ाई दो तीन बार मिल जाय, तो इसका पौधा बहुत बढ़ता है और पैदावार भी लगभग दूनी हो जाती है। चने की तरह इसकी जड़ों में भी हवा से खाद नाइट्रोजन इकट्ठा करने की क्षमता होती है। अरहर बोने से खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और इसे स्वयं खाद की आवश्यकता नहीं होती। इसको पानी की भी अधिक आवश्यकता नहीं होती। जब धान इत्यादि पानी की कमी से मर तथा मुर्झा जाते हैं तब भी अरहर खेत में हरी खड़ी रहती है। कमजोर अरहर की फसल पर पाले का असर कभी कभी हो जाता है, परंतु अच्छी फसल पर, जो बरसात में गोड़ाई के कारण मोटी हो गई है, पाले का भी असर बहुत कम, या नहीं, होता।

सरसों (Brassica campestris)

भारत के तेलहन की फसलों में सरसों का स्थान बहुत ऊँचा है। मूँगफली के बाद सबसे अधिक क्षेत्रफल में सरसों की खेती होती है। लगभग ६२ लाख एकड़ भूमि में यह फसल बोई जाती है। सरसों जाड़े में पैदा होती है। रबी की फसलों के साथ सरसों बोई जाती है। लाही अक्टूबर के पहले सप्ताह में ही बोई जाती है, सरसों बहुधा गेहूँ में मिलाकर बोई जाती है, परंतु लाही अकेले बोई जाती है। लाही हिमालय की तराई के इलाके में अच्छी होती है तथा सरसों पूरे उत्तर भारत में बोई जाती है।

इस फसल का सबसे बड़ा शत्रु एक नन्हा सा हरे रंग का कीड़ा है, जिसे माहू कहते हैं। यह तनों पर चिपका रहता है और सरसों का रस चूस लेता है। इन कीड़ों से फसल को बचाने के लिये निकोटीन सल्फेट को ५०० गुणा पानी और तीन गुना साबुन में घुलाकर पौधों पर छिड़कना चाहिए। सरसों तथा लाही की पैदावार साधारण खेत में पाँच या छह मन प्रति एकड़ होती है और अच्छे खेतों में १० से १२ मन प्रति एकड़ होती है। सरसों से लगभग एक तिहाई तेल निकलता है, जो अधिकांश खाने एवं लगाने के काम आता है।

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