भारतीय लोक कला परंपरा

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भारतीय लोक कला मूलतः ग्राम्य अंचलों में जनसामान्य और आदिवासी विशिष्ट समूहों द्वारा धारित एवं संरक्षित कला है। ग्राम्य परिवेश और लोक संस्कृति में व्याप्त रचनात्मक आचार व्यवहार कला तत्व के रूप में परिणत हो लोक कलाओं को समृद्ध करते हैं। परंपरागत तौर पर लोक कला क्षेत्र अथवा समुदाय विशेष के लोगों द्वारा किया गया वह कलाकर्म है जिसके मूल में शुभ का विचार होता है और जो अवसर विशेष से जुडे अनुष्ठानों एवं आवश्यकताओं को सम्पन्न करने हेतु किया जाता है।

इतिहास

हालांकि लोक कलाओं का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि भारतीय ग्रामीण सभ्यता का, किंतु वर्तमान में लोक कलाओं का कोई काल क्रमिक इतिहास सुलभ नहीं है। सिन्धु घाटी सभ्यता से मिले अवशेषों को यदि भारतीय लोक कला के आरम्भिक नमूने माना जाय तो यह परम्परा ईसा से लगभग तीन हजार साल पुरानी मानी जा सकती है। मृदभाण्ड, गुफा चित्रकारी, भित्तिचित्र इत्यादि लोक कला रूप पूर्ववैदिक युग से उत्तर वैदिक युग तक विद्यमान रहे हैं। भारतीय हस्तशिल्प् के प्राचीन नमूने तो बहुतायत से मिलते है परन्तु लोक कला के प्रामाणिक उल्लेख एवं नमूने २०वी सदी एवं उसके उपरान्त से मिलने प्रारंभ होते है, जब कुछ विदेशी एवं भारतीय विद्वान इस विषय पर पुरातात्त्विक शोध एवं अध्ययन में प्रवृत्त हुए।

प्रमुख योगदान

आज जो भारतीय आदिवासी एवं लोक कलाओ को विश्व स्तर पर पहचान मिली है उसमे वेरियर एल्विन, स्टेला क्राम्रिश, कमला देवी चट्टोपाध्याय एवं पुपुल जयकर जैसे विद्वानो का महत्वपूर्ण योगदान है। भारत के लगभग प्रत्येक सांस्कृतिक अंचल की अपनी कुछ विशिष्ट आदिवासी एवं लोक कलाएं है।

विस्तृत अध्ययन हेतु

आर्यसंस्कृति की खोज, रामशरण शर्मा, सारांश प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, २००१, ISBN: 81-7778-020-4

भारतीय साहित्य की भूमिका, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, २००६, ISBN: 81-7178-689-8

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बाहरी कड़ियाँ

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