बालूचरी साड़ी
बालूचरी साड़ियां पश्चिम बंगाल के विष्णुपुर व मुर्शिदाबाद में बनती हैं। सन् १९६५ से बनारस में भी बालूचरी साड़ियों का निर्माण होने लगा। ये भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। एक बालूचरी साड़ी बनाने में कम से कम एक सप्ताह का वक्त लगता है। दो लोग मिल कर इसे बनाते हैं।
इतिहास
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के बालूचर गाँव में शुरूआत करने वाली बालूचरी साड़ियों ने बीती दो सदियों के दौरान एक लंबा सफर तय किया है। नवाब मुर्शीद अली खान 18वीं सदी में बालूचरी साड़ी की कला को ढाका से मुर्शिदाबाद ले आए थे। उन्होंने इसे काफी बढ़ावा दिया। बाद में गंगा नदी की बाढ़ में बालूचर गाँव के डूब जाने के बाद यह कला बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर पहुँची। अब विष्णुपुर व बालूचरी एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। पहले विष्णुपुर में मल्ल राजाओं का शासन था। उस दौरान यह कला अपने निखार पर थी। मल्ल राजाओं ने इलाके में टेराकोटा कला को काफी बढ़ावा दिया था। वहाँ टेराकोटा के मंदिर हर गली में बिखरे पड़े हैं। बालूचरी साड़ियों पर भी इन मंदिरों का असर साफ नजर आता है। इन साड़ियों की खासियत यह है कि इन पर पौराणिक गाथाएं बुनी होती हैं। कहीं द्रौपदी के विवाह का प्रसंग है तो कहीं राधा-कृष्ण के प्रेम का। महाभारत के युध्द के दौरान अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए भगवान कृष्ण की तस्वीर भी इन साड़ियों पर नजर आती है। पूर्व में मुगल व युरोपियन पल्लू (आँचल) में चौंहसिया (चौकोर) व बीच में कलगा लगाकर सजाया जाता था। इस साड़ी की बुनाई में कम से कम तीन व्यक्तियों को लगना पड़ता था क्योंकि इसमें तीन तरह के डिज़ाइन बेल, बादशाह, बूटा एक साथ चलते हैं तथा इस साड़ी को तैयार होने में लगभग एक महीना लग जाता है।
लेकिन रेशम के बारीक धागों से इन कहानियों को साड़ी पर उकेरना कोई आसान नहीं है। दो मजदूर मिल कर एक सप्ताह में एक साड़ी तैयार करते हैं। काम की बारीकी के हिसाब से उस साड़ी की कीमत एक से दस हजार रुपए तक होती है। लेकिन बुनकरों या कलाकारों को इसका फायदा नहीं मिल पाता।
बुनाई के बाद साड़ियों पर चमक लाने के लिए उनकी पालिश की जाती है। किसी जमाने में यह साड़ियां बंगाल के रईस या जमीदार घरानों की महिलाएं ही पहनतीं थी। अब भी शादी-ब्याह के मौकों पर यह साड़ी पहनी जाती है।
विष्णुपुर में अगस्त में एक साँप उत्सव भी आयोजित किया जाता है। कोलकाता से विष्णुपुर पहुँचने के लिए कई ट्रेनें और बसें चलती हैं जो लगभग चार घंटे में पर्यटकों को यहाँ पहुँचा देती हैं। विष्णुपुर मेले के दौरान पाँच दिनों तक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। यहाँ मेले के प्रति पर्यटकों की बढ़ती दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए कई नए होटल बन गए हैं। इसलिए रहने की कोई दिक्कत नहीं है।