बाणमाता जी

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श्री बाण माताजी चितौड़गढ़ दुर्ग

"श्री बाण माता जी" "श्री ब्रह्माणी माताजी" "श्री बायण माताजी" "श्री बाणेश्वरी माताजी" मेवाड के सूर्यवंशी गहलोत और सिसोदिया राजवंश की कुलदेवी है। बाण माता जी को मण्डोरवा राजपूत समाज के गहलोत गौत्र के भी अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।राव काजलसेन गहलोत द्वारा बाण माता कि जोत और मूर्ति को अपनो साथ चित्तौड़गढ़ से कुचेरा,नागौर ले आए। उसके बाद राव हेमा गहलोत द्वारा बाण माता कि मूर्ति को कूचेरा से मण्डोर तहसील ले आए। बाण माता जी का मन्दिर चितौड़गढ़ दुर्ग मेंं स्थित है बाण माताजी को गुजरात से लाये थे वहाँ उनको श्री ब्रह्माणी माता के नाम से पूजा जाता है चित्तौड़गढ़ मन्दिर मैं आरती व देखभाल का कार्य पालीवाल ब्राह्मण परिवार द्वारा किया जाता है वर्तमान मै प्रभुलाल जी यहाँ के पुजारी हैं।

सिसोदिया गहलोत वंश की कुलदेवी महामाया श्री बाण माताजी

वीर प्रसूता भूमि मेवाड़ की जहां भगवान भी जन्म लेने हेतु तरसते है , जिस भूमि को स्वर्ग से भी महान बताया गया हो , जिस मेवाड़ की धन्य धरा पर भगवान श्री कृष्ण द्वारिका छोड़ कर नाथद्वारा पधारे , जहां मेवाड़ अधिपति श्री एकलिंग नाथ जी विराजमान है । त्याग , बलिदान , शौर्य और तपस्या की भूमि मेवाड़ का सिसोदिया गुहिलोत वंश जग विख्यात है । इसी वंश की कुलदेवी श्री बाण माताजी है , जिन्हें बायण , ब्रह्माणी और बाणेश्वरी माताजी कहते है ।

" बाण तू ही ब्रह्माणी , बायण सु विख्यात ।

सुर संत सुमरे सदा , सिसोदिया कुल मात ।।"

श्री बायण माताजी का मुख्य मंदिर चित्तौड़गढ़ ( दुर्ग ) में विजय स्तम्भ से थोड़ी दुरी पर कालिका माता के मन्दिर के पास है श्री बाण माताजी के मन्दिर के ठीक पास अन्नपूर्णा माताजी का मन्दिर महाराणा हमीर सिंह जी द्वारा बनाया हुआ है । बाण माताजी के मंदिर राजस्थान , उत्तरप्रदेश , उत्तरांचल , गुजरात में कई जगह पर है ।


बाण माता सेवा संस्थान

बाण माताजी का इतिहास :-

श्री बाण माताजी के इतिहास को मैं आपसे में आपको रूबरू करवा रहा हूँ हालाँकि यह इतिहास वेद् वर्णित हैं फिर भी अगर किसी भी प्रकार की त्रुटि हो तो में क्षमा प्राथी हूँ। सिसोदिया गहलोत, गुहिल या गहलोत वंश की कुलदेवी बाण माता का मुख्य मंदिर विश्व प्रसिद्ध दुर्ग चित्तौड़गढ़ में स्थित हैं। माताजी का पुराना स्थान गिरनार गुजरात में था पर कालान्तर में माँ बाण माता चित्तौड़ पधार गयी थी। और इसके पीछे कथा इस प्रकार हैं की वर्षो पूर्व चित्तौड़ के महाराणा ने गुजरात पर आक्रमण कर गुजरात जीत लिया। इस पर महाराणा ने गुजरात के राजा से कहा की वह अपनी राजकुमारी का विवाह चित्तौड़ के महाराणा से करे। हालाँकि गुजरात की राजकुमारी के मन में यह इच्छा पूर्व से ही थी की वह महाराणा की रानी बने और क्योंकि राजकुमारी माँ बाण माता की भक्त थी तो माँ ने ही कुछ ऐसी लीला रचाई की राजकुमारी की शादी महाराणा से हो गयी और माँ बाण माता भी राजकुमारी के साथ चित्तौड़गढ़ पधार गयी। हालाँकि गिरनार में अभी भी माँ का मंदिर हैं। इस प्रकार यह तो हुआ की माँ किस तरह चित्तौड़ में प्रकट हुई पर अब में आपको यह बताने का भी प्रयत्न करूँगा की किस तरह माँ ने देवलोक से भूलोक पर अवतार लिया। पुराणों के अनुसार हजारों वर्षों पूर्व बाणासुर नाम का एक दैत्य ने जन्म लिया। जिसकी भारत में अनेक राजधानियाँ थी। पूर्व में सोनितपुर (वर्तमान तेजपुर, आसाम) उत्तर में बामसू (वर्तमान लमगौन्दी, उत्तराखंड) मध्यभारत में बाणपुर मध्यप्रदेश में भी बाणासुर का राज था। बाणासुर बामसू में रहता था। बाणासुर को कही कही राजा भी कहा गया है, और उसके मंदिर भी मौजूद हैं जिसको आज भी उत्तराखंड के कुछ गावों में पूजा जाता है। संभवतः प्राचीन सनातन भारत में मनुष्य जब पाप के रास्ते पर चलकर अत्यंत अत्याचारी हो जाता था तब उसे असुर की श्रेणी में रख दिया जाता था क्योंकि लोगों को यकीन हो जाता था की अब उसका काल निकट है और वह अवश्य ही प्रभु के हाथो मारा जायेगा। यही हाल रावण का भी था वह भी एक महाज्ञानी-शक्तिशाली ईश्वर भक्त राजा था, किन्तु समय के साथ वह भी अभिमानी हो गया था और उसका भी अंत एक असुर की तरह ही हुआ। किन्तु यह भी सत्य है की रावण को आज भी बहुत से स्थानों पर पूजा जाता है। दक्षिण भारत, श्रीलंका के साथ साथ उत्तर भारत में भी उसके कई मंदिर हैं जिनमे मंदसौर(मध्यप्रदेश) में भी रावण की एक विशाल प्रतिमा है जिसकी लोग आज भी पूजा करते हैं। बाणासुर भगवान शिव का अनन्य भक्त था। शिवजी के आशीर्वाद से उसे हजारों भुजाओं की शक्ति प्राप्त थी। शिवजी ने उससे और भी कुछ मांगने को कहा तो बाणासुर ने कहा की आप मेरे किले के पहरेदार बन जाओ। यह सुन शिवजी को बडी ही ग्लानि और अपमान महसूस हुआ लेकिन उन्होंने उसको वरदान दे दिया और उसके किले के रक्षक बन गए। बाणासुर परम बलशाली होकर सम्पूर्ण भारत और पृथ्वी पर राज करने लगा और उससे सभी राजा और कुछ देवता तक भयभीत रहने लगे। बाणासुर अजेय हो चुका था, कोई उससे युद्ध करने आगे नहीं आता था। एक दिन बाणासुर को अचानक युद्ध करने की तृष्णा जागी। तब उसने स्वयं शिवजी से युद्ध करने की इच्छा की। बाणासुर के अभिमानी भाव को देख कर शिवजी ने उससे कहा की वह उससे युद्ध नहीं करना चाहते क्योंकि वह उनका शिष्य है, किन्तु शिवजी ने उससे कहा की तुम विचलित मत हो तुम्हे पराजित करने वाला व्यक्ति जन्म ले चुका है। यह सुन कर बाणासुर भयभीत हो गया। और उसने शिवजी की पुनः तपस्या की और अपनी हजारों भुजाओं से कई सौ मृदंग बजाये, जिससे शिवजी पुनः प्रसन्न हो गए और बाणासुर ने उनसे फिर वरदान मांग लिया की वे कृष्ण से युद्ध में उसका साथ देंगे और उसके प्राणों की रक्षा करेंगे और हमेशा की तरह उसके किले के पहरेदार बने रहेंगे। समय बीतता गया और श्री कृष्ण ने द्वारिका बसा ली थी। उधर बाणासुर के एक पुत्री थी जिसका नाम उषा था। उषा से शादी के लिए बहुत से राजा महाराजा आए किन्तु बाणासुर सबको तुच्छ समझकर उषा के विवाह के लिए मना कर देता और अभिमानपूर्वक उनका अपमान कर देता था। बाणासुर को भय था की उषा उसकी इच्छा के विपरीत किसी से विवाह न कर ले इसलिए बाणासुर ने एक शक्तिशाली महल बनवाया और उसमे उषा को कैद कर नज़रबंद कर दिया। अब इसे संयोग कहो या श्री कृष्ण की लीला, एक दिन उषा को स्वप्न में एक सुन्दर राजकुमार दिखाई दिया यह बात उषा अपनी सखी चित्रलेखा को बताई। चित्रलेखा को सुन्दर कला-कृतियाँ बनाने का वरदान प्राप्त था, उसने अपनी माया से उषा की आँखों में देख कर उसके स्वप्न दृश्य को देख लिया और अपनी कला की शक्ति से उस राजकुमार का चित्र बना दिया। चित्र देख उषा को उससे प्रेम हो गया और उसने कहा की यदि ऐसा वर उसे मिल जाये तो ही उसे संतोष होगा। चित्रलेखा ने बताया की यह राजकुमार तो श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का है। तब चित्रलेखा ने अपनी शक्ति से अनिरुद्ध को अदृश्य कर के उषा के सामने प्रकट कर दिया और तब दोनों ने ओखिमठ नामक स्थान(केदारनाथ के पास) विवाह किया जहाँ आज भी उषा-अनिरुद्ध नाम से एक मंदिर व्याप्त है। जब यह खबर बाणासुर को मिली तो उसे बड़ा क्रोध आया और उसने अनिरुद्ध और उषा दोनों को कैद कर लिया। जब कई दिनों तक अनिरुद्ध द्वारिका में नहीं आये तो श्रीकृष्ण और बलराम व्याकुल हो उठे और उन्होंने उसकी तलाश शुरू कर दी, अंत में जब उन्हें नारदजी द्वारा सत्य का पता चला तो उन्होंने बाणासुर पर हमला करने की ठानी। भयंकर युद्ध आरंभ हुआ जिसमे दोनों ओर के महावीरों ने शौर्य का परिचय दिया। अंत में जब बाणासुर हारने लगा तो उसने शिवजी की आराधना की। भक्त के याद करने पर शिवजी प्रकट हो गए और श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। युद्ध कितना विनाशक था इसका ज्ञान इसी बात से हो जाता है की शिवजी अपने सभी अवतारों और साथियों रुद्राक्ष, वीरभद्र, कूपकर्ण, कुम्भंदा सहित बाणासुर के सेनापति बने उधर दूसरी तरफ श्रीकृष्ण के साथ बलराम, प्रदुम्न, सत्याकी, गदा, संबा, सर्न,उपनंदा, भद्रा अदि कई योद्धा थे। इस भयंकर युद्ध में शिवजी ने श्रीकृष्ण की सेना के असंख्य सेनिको को मौत के घाट उतार दिया और श्री कृष्ण ने भी बाणासुर के असंख्य सैनिको का नाश कर दिया। तब अंत में शिवजी ने पशुपतास्त्र से श्री कृष्ण पर वार किया तो श्रीकृष्ण ने भी नारायणास्त्र से वार किया जिसका किसी को कोई लाभ नहीं हुआ। अंततः श्रीकृष्ण ने निन्द्रास्त्र चला कर कुछ देर के लिए शिवजी को सुला दिया। इससे बाणासुर की सेना कमजोर हो गयी। दूसरी तरफ बलराम जी ने कुम्भंदा और कूपकर्ण को घायल कर दिया। यह देख बाणासुर अपने प्राण बचा कर भागा। श्रीकृष्ण ने उसे पकड़कर उसकी भुजाएँ काटनी शुरू कर दी जिस पर वह बहुत ही अभिमान करता था। जब बाणासुर की सारी भुजाएँ कट गयी थी और केवल चार शेष रह गयी थी तब शिवजी अचानक जाग उठे और श्रीकृष्ण द्वारा उन्हें निंद्रा में भेजने और बाणासुर की दशा जानकर बहुत ही क्रोधित हुए। शिवजी ने अंत में अपना सबसे भयानक शस्त्र ''शिवज्वर अग्नि'' चलाया जिससे सारा ब्रह्माण अग्नि में जलने लगा और हर तरफ भयानक ज्वर बीमारिया फैलने लगी। यह देख श्री कृष्ण को न चाहते हुए भी अपना आखिरी शास्त्र ''नारायणज्वर शीत'' चलाया। श्रीकृष्ण के शस्त्र से ज्वर का तो नाश हो गया किन्तु अग्नि और शीत का जब बराबर मात्र में विलय होता है तो सम्पूर्ण श्रृष्टि का नाश हो जाता है। इसके कारण पृथ्वी और ब्रह्माण्ड बिखरने लगे तब नारद मुनि और समस्त देवताओं, नव-ग्रहों, यक्ष और गन्धर्वों ने ब्रह्मा जी की आराधना की लेकिन ब्रह्मा जी ने दोनों को रोक पाने में असर्थता बताई। तब सबने मिलकर परमशक्ति भगवती माँ दुर्गाजी की आराधना की तब माँ ने दोनों पक्षों (कृष्ण और शिवजी) को शांत किया। श्रीकृष्ण ने कहा की वे तो केवल अपने पौत्र अनिरुद्ध की आज़ादी चाहते हैं और शिवजी ने भी कहा की वह भी केवल अपने वचन की रक्षा कर रहे हैं और बाणासुर का साथ दे रहे हैं और उनकी केवल यही इच्छा है की श्रीकृष्ण बाणासुर के प्राण न ले। तब श्रीकृष्ण कहा की आपकी इच्छा भी मेरा दिया हुआ वचन ही है, मेने पूर्वावतार में बाणासुर के पूर्वज बलि राजा के पूर्वज प्रहलाद को यह वरदान दिया था की दानव वंश के अंत में उसके परिवार का कोई भी सदस्य उनके (विष्णु)के अवतार के हाथो कभी नहीं मरेगा। माँ भगवती की कृपा से श्रीकृष्ण की बात सुनकर बाणासुर को आत्मग्लानी होने लगी और उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा और उसकी वजह से ही दोनों देवता लड़ने को उतारू हो गए थे। बाणासुर ने श्रीकृष्ण से माफ़ी मांग ली। बाणासुर के माफ़ी मांगते ही शिवजी का वचन सत्य हुआ की बाणासुर श्रीकृष्ण से पराजित होगा लेकिन वो उसका साथ देंगे और उसके प्राण बचायेंगे। तत्पश्चात शिवजी और श्रीकृष्ण ने भी एक दुसरे से माफ़ी मांग ली और एक दुसरे की महिमामंडन करने लगे। माता परमशक्ति ने दोनो को आशीर्वाद दिया और दोनों इस तरह से एक दुसरे में समा गए तब नारद जी ने प्रभु की इस लीला को देखकर सभी से कहा की आज से केवल एक इश्वर हरी-हरा हो गए हैं। फिर बाणासुर ने उषा-अनिरुद्ध का विवाह कर दिया और सब सुखी-सुखी रहने लगे। तत्पश्चात बाणासुर नर्मदा नदी के पास गया और शिवजी की फिर तपस्या करने लगा। शिवजी ने प्रकट होकर कर फिर उसकी इच्छा जाननी चाही इस पर बाणासुर ने कहा की वे उसको अपने डमरू बजाने की कला का आशीर्वाद दे और उसको अपने विशेष सेवकों में जगह भी देें तब शिवजी ने कहा की हे! बाणासुर तुम्हारे द्वारा पूजे गए शिवजी के लिंगो को बाणलिंग के नाम से जाना जायेगा और उसकी भक्ति को हमेशा याद रखा जायेगा। अब आगे की कथा इस प्रकार है की जब अनिरुद्ध और उषा का विवाह हो गया और अंत में कृष्ण-शिव एक दूसरे में समां गए लेकिन फिर भी बाणासुर की आसुरी प्रवृति नहीं बदली। बाणासुर अब और भी ज्यादा क्रूर हो गया था। बाणासुर अब जान गया था की श्रीकृष्ण कभी उसके प्राण नहीं ले सकते और शिवजी उसके किले के रक्षक हैं तो वह भी ऐसा नहीं करेंगे। राजाओं के परामर्श से ऋषि-मुनियों ने यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि में से माँ पार्वती जी एक छोटी सी कुंवारी कन्या के रूप में प्रकट हुयीं और उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं से वर मांगने को कहा। तब सभी राजाओं ने देवी माँ से बाणासुर से रक्षा की कामना करी (जिनमे विशेषकर संभवतः सिसोदिया गहलोत वंश के पूर्वज प्राचीन सूर्यवंशी राजा भी रहे होंगे) तब माता जी ने सभी राजाओं-ऋषि मुनियों और देवताओं को आश्वस्त किया की वे सब धैर्य रखें बाणासुर का वध समय आने पर अवश्य मेरे ही हाथो होगा। यह वचन देकर माँ वहां से निकलकर भारत के दक्षिणी छोर पर जा कर तपस्या में बैठ गयीं जहा पर त्रिवेणी संगम है। (पूर्व में बंगाल की खाड़ी-पश्चिम में अरब सागर और दक्षिण में भारतीय महासागर है) बायण माता की यह लीला बाणासुर को किले से दूर लाने की थी ताकि वह शिवजी से अलग हो जाये। आज भी उस जगह पर बायण माता को दक्षिण भारतीय लोगो द्वारा कुंवारी कन्या के नाम से पूजा जाता है और उस जगह का नाम भी कन्या कुमारी है। जब पार्वती जी के अवतार देवी माँ थोड़े बड़े हुए तब उनकी सुन्दरता से मंत्रमुग्ध हो कर शिवजी उनसे विवाह करने कृयरत हुए जिस पर माताजी भी राजी हो गए।विवाह की तैयारिया होने लगी। किन्तु तभी नारद मुनि यह सब देख कर चिंतित हो गए की यह विवाह अनुचित है। बायण माता तो पवित्र कुंवारी देवी हैं जो पार्वती जी का अवतार होने के बावजूत उनसे भिन्न हैं, यदि उन्होंने विवाह किया तो वे बाणासुर का वध नहीं कर पाएंगी क्यूंकि बाणासुर केवल परम सात्विकदेवी के हाथो ही मृत्यु को प्राप्त हो सकता था। तब नारद जी ने एक चाल चली क्योंकि सूर्योदय से पहले पहले शादी का मुहर्त था और शिवजी रात को कैलाश से बारात लेकर निकले थे लेकिन रास्ते में नारद मुनि मुर्गे का रूप धर के जोर जोर से बोलने लगे जिससे शिवजी को लगा की सूर्योदय होने वाला है भोर हो गयी है अब विवाह की घडी निकल चुकी है अतः शिवजी विवाह स्थल से 8-10 किलोमीटर दूर ही रुक गए। देवी माँ दक्षिण में त्रिवेणी स्थान पर शिवजी का इंतज़ार करती रह गयी। जब शिवजी नहीं आये तो माताजी क्रोद्धित हो गयीं। उन्होंने जीवन पर्यन्त सात्विक रहने का प्रण ले लिया और सदैव कुंवारी रहकर तपस्या में लीन हो गयी। जहाँ शिवजी रुक गए थे वहाँ पर आज भी कन्याकुमारी के पास में शुचीन्द्रम नामक स्थान पर उनका बहुत ही भव्य मंदिर हैं। ईश्वर की लीला से कुछ वर्षो बाद बाणासुर को माताजी की माया का पता चला तब वह खुद माताजी से विवाह करने को आया किन्तु देवी माँ ने माना कर दिया। जिसपर बाणासुर क्रुद्ध हुआ वह पहले से ही अति अभिमान हो कर भारत वर्ष में क्रूरता बरसा ही रहा था। तब उसने युद्ध के बल पर देवी माँ से विवाह करने की ठानी। जिसमे देवी माँ ने प्रचंड रूप धारण कर उसकी पूरी दैत्य सेना का नाश कर दिया और अपने चक्र से बाणासुर का सर काट के उसका वध कर दिया। मृत्यु पूर्व बाणासुर ने परा-शक्ति के प्रारूप उस देवी से अपने जीवन भर के पापों के लिए क्षमा मांगी और मोक्ष की याचना करी जिस पर देवी माता ने उसकी आत्मा को मोक्ष प्रदान कर दिया। इस प्रकार देवी माँ को बाणासुर का वध करने की वजह से बायण माता, बाण माता या ब्रह्माणी माता के नाम से भी जाना जाता है। महा-मायादेवी माँ दुर्गा की असंख्य योगिनियाँ हैं और सबकी भिन्न भिन्न निशानिया और स्वरुप होते हैं। जिनमे बायण माता पूर्ण सात्विक और पवित्र देवी हैं जो तामसिक और कामसिक सभी तत्वों से दूर हैं। माँ पार्वती जी का ही अवतार होने के बावजूद बायण माता अविवाहित देवी हैं। तथा परा-शक्ति देवी माँ दुर्गा का अंश एक योगिनी अवतारी देवी होने के बावजूद भी बायण माता तामसिक तत्वों से भी दूर हैं अर्थात इनके काली-चामुंडा माता की तरह बलिदान भी नहीं चढ़ता है। में व्यक्तिगत रूप से माँ की कृपा के कारण अपने आप को कृतघ्न मानता हूँ क्योंकि माँ सदैव मेरे आसपास ही रहती हैं। जहाँ मेरा गांव और जन्मभूमि हैं वहा पर माँ पहले से ही सोनाणा खेतलाजी के साथ विराजित हैं। वहां पर माँ को ब्रह्माणी माँ के नाम से पूजते हैं। और जब सुदूर दक्षिण में रोजी रोटी के लिए आया हूँ तो माँ यहाँ भी पहले कन्याकुमारी रूप में विराजित हैं। वर्तमान मे भारत के दक्षिण में कन्याकुमारी ही मेरी कर्मभूमि हैं और जब मेने कन्याकुमारी का इतिहास जाना तो मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ। और इसी आश्चर्य ने मुझे माँ के इतिहास और अवतार के बारे में जानने के लिए प्रेरित किया। क्योंकि देवी कन्याकुमारी ने भी बाणासुर का वध किया था और माँ बाण माता ने भी बाणासुर का वध किया था और जब मेने इतिहास के पन्नों को खंगालना शुरू किया और जो भी जानकारी मुझे मिली मेने उसे आप तक पहुचाने की गुस्ताखी की हैं। इस तरह मुझे यह जानने में भी आसानी हुई की किस तरह माँ बाण माता ही दक्षिण में कन्याकुमारी के रूप में भी पूजी जाती हैं।


[१][२]

सन्दर्भ

  1. बाणमाता का अस्तित्व स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। अभिगमन तिथि.25 जून 2017
  2. [१]साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]

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