बंजारानामा

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बंजारानामा नज़ीर अकबराबादी (1735-1830) द्वारा लिखी गई एक कविता है

बंजारानामा (उर्दू: بنجارانامہ‎), अठारहवीं शताब्दी के भारतीय शायर नज़ीर अकबराबादी द्वारा लिखी गयी एक प्रसिद्ध कविता है।[१] इस रचना का मुख्य सन्देश है के सांसारिक सफलताओं पर अभिमान करना मूर्खता है क्योंकि मनुष्य की परिस्थितियाँ पलक झपकते बदल सकतीं हैं। धन-सम्पति तो आनी-जानी चीज़ है किन्तु मृत्यु, एक निश्चित सत्य है जो, कभी न कभी हर मनुष्य के साथ घटेगा।[२] यह कविता तेज़ी से भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में लोकप्रिय हो गई और इसकी ख्याति लगभग पिछली दो शताब्दियों से बनी हुई है।[२][३] इसके बारे में कहा गया है कि, हालांकि इसकी भाषा देसी और सरल है, पर इसमें पाई जाने वाली छवियाँ और कल्पनाएँ इतना झकझोर देने वालीं हैं कि यह "गीत कई हजार वर्षों की शिक्षाओं को एक सार रूप में सामने लेकर आता है"।[४] इसमें बंजारे का पात्र मृत्यु की ओर इशारा है: जिस तरह यह कभी नहीं बता सकते कि कोई बंजारा कब अपना सारा सामान लाद कर किसी स्थान से चल देगा, उसी तरह से मृत्यु कभी भी आ सकती है।

कविता के कुछ छंद और टेक

कविता का हर अंश एक ही टेक पर अंत होता है - "सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा"।[५] यह पंक्ति भारत और पाकिस्तान की लोक-संस्कृति में एक सूत्रवाक्य के रूप में सम्मिलित हो चुकी है, जिसका अर्थ है कि अपनी आत्मा और ज़मीर को कभी भी लोभ और घमंड के लिए बलि नहीं चढ़ाना चाहिए। भारत में इसका प्रयोग संसद और अन्य राजनैतिक गतिविधियों में भी भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में हो चुका है।[६]

उर्दू देवनागरी टिप्पणी

گر تو ہے لکھی بنجارہ اور کھیپ بھی تیری بھاری ہے
اے غافل تجھ سے بھی چڑهتا اک اور بڑا بیوپاری ہے
کیا شکر مصری قند گری کیا سانبھر میٹھا کھاری ہے
کیا داکھ منقا سونٹھ مرچ کیا کیسر لونگ سپاری ہے
سب ٹھاٹھ پڑا رہ جاویگا جب لاد چلے گا بنجارہ

गर तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर मिसरी क़ंद गरी, क्या सांभर मीठा-खारी है
क्या दाख मुनक़्क़ा सोंठ मिरच, क्या केसर लौंग सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

अगर तू लखपति है और तेरी दूकान में भरमार है
ओ मूर्ख! (याद रख) के तुझ से भी बड़ा एक और व्यापारी है
क्या तेरी शक्कर, मिश्री, गुड़ और मेवे, क्या तेरा मीठा और खारा आटा?
क्या तेरे अंगूर, किशमिश, अदरक और मिर्च, क्या तेरा केसर, लौंग और सुपारी?
जिस दिन बंजारे ने सामान लाद के चलने की ठान ली, तेरा सब ठाठ-बाठ बेकार पड़ा रह जाएगा !

आम भाषा का प्रयोग

उस ज़माने में उर्दू शायरी में बहुत अरबी-फ़ारसी मिलाकर लिखने का रिवाज था, लेकिन नज़ीर अकबराबादी ने उसे छोड़ कर सड़कों पर बोले जाने वाले बिलकुल साधारण शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया।[७] आधुनिक हिन्दी-उर्दू बोलने वाले कविता को समझ तो सकते हैं, लेकिन इसमें कुछ ऐसे शब्द हैं जो आधुनिक हिन्दी-उर्दू में बहुत कम प्रयोग होते हैं या लुप्त हो चुके हैं। उदाहरण के लिए "दाख" शब्द संस्कृत के "द्राक्ष" शब्द से उत्पन्न है, लेकिन आधुनिक हिन्दी में उसका स्थान लगभग पूरी तरह फ़ारसी के "अंगूर" शब्द द्वारा ले लिया गया है।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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