प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
British Indian Army
British Raj Red Ensign.svg
सक्रिय1857–1947
देशBritish Raj
निष्ठाBritish Crown
प्रकारArmy
युद्ध के समय प्रयोगSecond Anglo-Afghan War
Third Anglo-Afghan War
1882 Anglo-Egyptian War
1868 Expedition to Abyssinia
First Mohmand Campaign
Second Anglo-Burmese War
Third Anglo-Burmese War
Second Opium War
Boxer Rebellion
Sudan Campaign
Tirah Campaign
British expedition to Tibet
World War I
Waziristan campaign 1919–1920
Waziristan campaign 1936–1939
World War II
सेनापति
प्रसिद्ध
सेनापति
Herbert Kitchener, 1st Earl Kitchener
William Slim, 1st Viscount Slim
Archibald Wavell, 1st Earl Wavell
Claude Auchinleck

साँचा:template other

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना (जिसे कभी-कभी 'ब्रिटिश भारतीय सेना' कहा जाता है) ने प्रथम विश्व युद्ध में यूरोपीय, भूमध्यसागरीय और मध्य पूर्व के युद्ध क्षेत्रों में अपने अनेक डिविजनों और स्वतन्त्र ब्रिगेडों का योगदान दिया था। दस लाख भारतीय सैनिकों ने विदेशों में अपनी सेवाएं दी थीं जिनमें से 62,000 सैनिक मारे गए थे और अन्य 67,000 घायल हो गए थे। युद्ध के दौरान कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिकों की मौत हुई थी।

1903 में किचनर को भारत का कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किये जाने के बाद भारतीय सेना में प्रमुख सुधार किये गए थे। उनहोंने बड़े पैमाने पर सुधारों की शुरुआत की जिनमें प्रेसीडेंसियों की तीनों सेनाओं को एकीकृत कर एक संयुक्त सैन्य बल बनाना और उच्च-स्तरीय संरचनाओ तथा दस आर्मी डिविजनों का गठन करना शामिल है।[१]

प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना ने जर्मन पूर्वी अफ्रीका और पश्चिमी मोर्चे पर जर्मन साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध किया। यप्रेस के पहले युद्ध में खुदादाद खान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय बने। भारतीय डिवीजनों को मिस्र, गैलीपोली भी भेजा गया था और लगभग 700,000 सैनिकों ने तुर्क साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटामिया में अपनी सेवा दी थी।[२] जब कुछ डिवीजनों को विदेश में भेजा गया था, अन्य को उत्तर पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए और आंतरिक सुरक्षा तथा प्रशिक्षण कार्यों के लिए भारत में ही रहना पड़ा था।

किचनर के सुधार

हरबर्ट किचनर को 1902 में भारत का कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किया गया था और पांच वर्षों के कार्यकाल के बाद उनके कार्यकाल को दो वर्षों के लिए आगे बढ़ा दिया गया था--जिसके दौरान उन्होंने भारतीय सेना में सुधार के कार्य किये। [१] सुधारों में यह निर्देश दिया कि अब केवल एक भारतीय सेना होगी, प्रेसीडेंसियों की तीन सेनाओं का एक एकीकृत सैन्य बल में विलय कर दिया जाएगा.[३] साथ ही सामंती प्रांतों के रेजिमेंटों को शाही सेवा के लिए उपलब्ध होने का आह्वान किया गया।[३] ब्रिटिश सेना भारतीय सेना के अतिरिक्त भारत में सेवा के लिए भी निरंतर यूनिटों की आपूर्ति करती रही। समग्र कमांड की संरचना को संदर्भित करने के लिए भारत की सेना (आर्मी ऑफ इंडिया) शब्द का प्रयोग शुरू किया गया जिसमें ब्रिटिश और भारतीय सेना दोनों की इकाइयां शामिल थीं। नवगठित भारतीय सेना (आर्मी ऑफ इंडिया) को नौ डिविजनों में व्यवस्थित किया गया था, प्रत्येक डिविजन में एक घुड़सवार सेना और तीन पैदल सेना के ब्रिगेड शामिल थे और तीन स्वतंत्र पैदल सेना के ब्रिगेडों सहित इन नौ डिविजनों ने भारत में अपनी सेवा दी थी।[४] भारतीय सेना बर्मा में एक डिविजन और एडेन में एक ब्रिगेड की आपूर्ति के लिए भी जिम्मेदार थी।[४]

नए डिविजनों के कमांड और नियंत्रण में मदद के लिए दो क्षेत्रीय सेनाओं (फील्ड आर्मी) का गठन किया गया -- नॉर्दर्न आर्मी और सदर्न आर्मी.[४] नॉर्दर्न आर्मी के पास पांच डिविजन और तीन ब्रिगेड थे और यह उत्तर पश्चिमी मोर्चे (नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर) से लेकर बंगाल तक के लिए जिम्मेदार थी जबकि सदर्न आर्मी, जिसके पास भारत में चार डिविजन थे और दो संरचाएं उप-महाद्वीप के बाहर थीं यह बलूचिस्तान से लेकर दक्षिणी भारत तक के लिए उत्तरदायी थी।[४] नए संगठन के रेजिमेंटों और बटालियनों को एक एकल अनुक्रम में क्रमांकित किया गया और बंबई, मद्रास तथा बंगाल की सेनाओं के पुराने नामों का प्रयोग बंद कर दिया गया।[३] नई रेजिमेंट और बटालियनों को अपने स्थानीय आधार में रहने की बजाय अब देश में किसी भी जगह सेवा के लिए बुलाया जा सकता था और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर पर ड्यूटी की एक यात्रा एक आवश्यक तैनाती बन गयी थी।[३] एक बदलाव जिसमें सभी-ब्रिटिश या सभी-भारतीय ब्रिगेडों का गठन करना और प्रत्येक ब्रिगेड में एक ब्रिटिश रेजिमेंट या बटालियन बनाए रखने की व्यवस्था थी, इसे स्वीकार नहीं किया गया।[३]

संगठन

बैजेंटीन रिज़ के युद्ध के दौरान डेक्कन हार्स से भारतीय घुड़सवार दल

1914 में भारतीय सेना दुनिया में सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना थी[१] जिसकी कुल क्षमता 240,000 लोगों की थी[५] और नवंबर 1918 तक इसमें 548,311 लोग शामिल हो गए थे जिसे इम्पीरियल स्ट्रेटजिक रिजर्व माना जाता था।[६] इसे नियमित रूप से नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर पर घुसपैठ और छापों से निबटने और मिस्र, सिंगापुर तथा चीन में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सैन्य मोर्चाबंदी के लिए बुलाया जाता था।[७] इस क्षेत्रीय सैन्य बल को दो सेनाओं में बांटा गया था: नॉर्दर्न आर्मी जो अपने कमांड के तहत पांच डिविजनों और तीन ब्रिगेडों के साथ नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर से बंगाल तक फ़ैली हुई थी और सदर्न आर्मी जिसका विस्तार बलूचिस्तान से लेकर दक्षिण भारत तक था और इसमें कमांड के तहत चार डिवीजन तथा उपमहाद्वीप के बाहर दो संरचनाएं शामिल थीं।[८] दोनों सेनाओं में 39 घुड़सवार रेजिमेंटों, 138 पैदल सेना के बटालियनों (20 गोरखा सहित),[५] द कॉर्प्स ऑफ गाइड्स नामक एक संयुक्त घुड़सवार-पैदल सेना की यूनिट, तीन खंदक खोदने वाले सैनिकों (सैपर) के रेजिमेंट और 12 पहाड़ी तोपखाने की बैटरियां शामिल थीं।[१]

इन सुधारों द्वारा गठित नौ डिवीजनों में प्रत्येक के पास एक घुड़सवार सेना और तीन पैदल सेना के ब्रिगेड शामिल थे। घुड़सवार सेना के ब्रिगेड में एक ब्रिटिश और दो भारतीय रेजिमेंट जबकि पैदल सेना के ब्रिगेडों में एक ब्रिटिश और तीन भारतीय बटालियन शामिल थे।[९] भारतीय सेना की बटालियनें ब्रिटिश बटालियनों से छोटी थीं जिसमें 30 अधिकारी और 723 अन्य रैंक के सैनिक शामिल थे[५] जिसकी तुलना में ब्रिटिश बटालियनों में 29 अधिकारी और 977 अन्य रैंक के सैनिक मौजूद थे।[१०] भारतीय बटालियनों को अक्सर टुकड़ों में बाँट दिया जाता था जिनसे विभिन्न जनजातियों, जातियों या धर्मों की कंपनियां बना दी जाती थीं।[११] प्रत्येक डिविजन के मुख्यालयों में संलग्न अतिरिक्त सैनिकों में एक घुड़सवार सेना की रेजिमेंट, एक अग्रणी बटालियन और ब्रिटिश रॉयल फील्ड आर्टिलरी द्वारा उपलब्ध कराये गए तोपखाने शामिल थे। प्रत्येक डिविजन की शक्ति लगभग 13,000 लोगों की थी जो आंशिक रूप से छोटी पैदल सेना की बटालियनों और छोटे तोपची सैनिकों के कारण ब्रिटिश डिविजन की तुलना में कुछ हद तक कमजोर थीं।[१२] भारतीय सेना उस समय भी कमजोर हो गयी थी जब देश में मौजूद 500 ब्रिटिश अधिकारी छोड़कर चले गए थे जो उन 38 भारतीय बटालियनों के लिए पर्याप्त थे जिन्हें किचनर की आर्मी के लिए बनाए जा रहे नए ब्रिटिश डिविजनों में तैनात किया गया था।[१३]

नियमित भारतीय सेना के अलावा रियासती प्रांतों की सेनाओं और सहायक सैन्य बलों (यूरोपीय स्वयंसेवकों) के रेजीमेंटों को भी आपात स्थिति में मदद के बुलाया जा सकता था।[१] रियासती प्रांतों से इम्पीरियल सर्विस ब्रिगेड का गठन हुआ था और 1914 में इसमें 20 घुड़सवार सेना के रेजिमेंटों और पैदल सेना की 14 बटालियनों में 22,613 जवान शामिल थे।[१२] युद्ध के अंत तक 26,000 जवानों ने इम्पीरियल सर्विस में विदेशों में अपनी सेवाएं दी थीं।[१४] सहायक सैन्य बल घुड़सवार सेना के 11 रेजिमेंटों और 42 स्वयंसेवक पैदल सेना के बटालियनों में 40,000 अतिरिक्त जवानों को तैनात करने में सक्षम था।[५] इसके अलावा फ्रंटियर मिलिशिया और मिलिटरी पुलिस भी उपलब्ध थे जो उनके बीच 34,000 जवानों को तैनात कर सकते थे।[५]

क्षेत्रीय सैन्य बल के मुख्यालय दिल्ली में स्थित थे और वरिष्ठ अधिकारी (भारत के कमांडर-इन-चीफ) को भारत के जनरल स्टाफ के प्रमुख द्वारा सहयोग प्रदान किया जाता था। भारतीय सेना के सभी वरिष्ठ कमान और स्टाफ पदों को ब्रिटिश और भारतीय सेनाओं के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच वैकल्पिक रूप से इस्तेमाल किया जाता था। 1914 में जनरल सर ब्यूचैम्प डफ भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ थे[१५] और ब्रिटिश सेना के लेफ्टिनेंट जनरल सर पर्सी लेक जनरल स्टाफ के प्रमुख थे।[१६] प्रत्येक भारतीय बटालियन में स्टाफ के रूप में भारत की ब्रिटिश सेना के 13 अधिकारियों और भारतीय सेना से 17 अधिकारियों को शामिल किया गया था -- प्रवासी ब्रिटिश अधिकारी ब्रिटिश औपनिवेशिक भारतीय प्रशासन के तहत सेवारत थे। युद्ध तेज होने और अधिकारियों के हताहत होने से उनकी जगह ब्रिटिश मूल के अधिकारियों को कार्यभार सौंपने की क्षमता बेहद मुश्किल में पड़ गयी और कई मामलों में बटालियनों में अधिकारियों के आवंटन को तदनुसार कम कर दिया गया। केवल 1919 में जाकर भारतीय मूल के पहले ऑफिसर कैडेटों को रॉयल मिलिटरी कॉलेज में अधिकारी प्रशिक्षण के लिए चुने जाने की अनुमति दी गयी।[१७]

भारतीय सेना के लिए सामान्य वार्षिक भर्ती 15,000 जवानों की थी, युद्ध के दौरान 800,000 से अधिक लोगों ने सेना के लिए स्वेच्छा से योगदान दिया और 400,000 से अधिक लोगों ने गैर-युद्धक भूमिकाओं के लिए स्वैच्छिक रूप से कार्य किया। 1918 तक कुल मिलाकर लगभग 1.3 मिलियन लोगों ने स्वेच्छा से सेवा के लिए योगदान दिया था।[१८] युद्ध के दौरान एक मिलियन भारतीय जवानों ने विदेशों में अपनी सेवाएं दी जिनमें से 62,000 से अधिक मारे गए और 67,000 अन्य घायल हो गए थे।[१९] कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मारे गए थे।[१४]

स्थानीय सेवा

प्रथम विश्व युद्ध से पहले भारतीय सेना को आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने और अफगानिस्तान से होने वाली घुसपैठ के खिलाफ नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर की रक्षा के लिए तैनात किया गया था। इन कार्यों को युद्ध की घोषणा के साथ समाप्त नहीं किया था। सीमा पर तैनात किये गए डिवीजनों में शामिल थे, पहले से मौजूद प्रथम (पेशावर) डिविजन, द्वितीय (रावलपिंडी) डिविजन, चौथा (क्वेटा) डिविजन.[२०] 1916 में बनाया गया 16वां भारतीय डिविजन भारत में सेवारत एकमात्र युद्ध में गठित डिविजन था, इसे भी नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर में तैनात किया गया था।[२०] ये सभी डिवीजन अभी तक अपनी जगह पर मौजूद थे और इन्होंने प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद तीसरे अफगान युद्ध में हिस्सा लिया था।[२०]

युद्ध के प्रयास के समर्थन में भारत को अफगानिस्तान से शत्रुतापूर्ण कार्रवाई के प्रति असुरक्षित छोड़ दिया गया था। अक्टूबर 1915 में स्पष्ट सामरिक उद्देश्य के साथ एक तुर्क-जर्मन मिशन काबुल पहुंचा था। हबीबुल्लाह खान ने अपनी संधि के दायित्वों का पालन किया और तुर्क सुल्तान के साथ अलग रहने के लिए उत्सुक गुटों से आतंरिक विरोध की स्थिति में अफगानिस्तान की तटस्थता को बनाए रखा। [२१] इसके बावजूद सीमा पर स्थानीय स्टार पर कार्रवाई होती रही और इसमें तोची में कार्रवाई (1914-1915), मोहमंद, बनरवाल और स्वातियों के खिलाफ कार्रवाई (1915), कलात की कार्रवाई (1915-16), मोहमंद की नाकाबंदी (1916-1917), महसूदों के खिलाफ कार्रवाई (1917) और मारी एवं खेत्रण जनजातियों के खिलाफ कार्रवाई शामिल थी (1918).[२२]

नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर पर दिसंबर 1914—फरवरी 1915 के बीच काचिन जनजातियों के खिलाफ भारत और बर्मा के बीच बर्मा मिलिटरी फ़ोर्स द्वारा दंडात्मक कार्रवाई की गयी जिसे 1/7वीं गोरखा राइफल्स और 64वें पायनियर्स का समर्थन प्राप्त था।[२३] नवंबर 1917-मार्च 1919 के बीच असम राइफल्स और बर्मा मिलिटरी पुलिस की सहायक इकाइयों द्वारा कूकी जनजातियों के खिलाफ कार्रवाई की गयी।[२४]

पहले आंतरिक सुरक्षा पर और उसके बाद प्रशिक्षण डिविजनों के रूप में भारत में बचे रहने वाले अन्य डिविजनों में 5वां (मऊ) डिविजन, 8वां (लखनऊ) डिविजन और 9वां (सिकंदराबाद) डिविजन शामिल थे।[२०] युद्ध के दौरान इन डिवीजनों ने सक्रिय सेवा पर अन्य संरचनाओं के लिए अपने ब्रिगेडों को खो दिया था; 5वें (मऊ) डिविजन ने 5वें (मऊ) कैवलरी ब्रिगेड को दूसरे भारतीय कैवलरी डिविजन के हाथों खो दिया था। आठवें (लखनऊ) डिविजन ने आठवें (लखनऊ) कैवलरी ब्रिगेड को पहले भारतीय कैवलरी डिविजन के हाथों और 22वें (लखनऊ) इन्फैंट्री ब्रिगेड को 11वें भारतीय डिविजन के हाथों खो दिया था। 9वें (सिकंदराबाद) डिविजन ने 9वें सिकंदराबाद कैवलरी ब्रिगेड को दूसरे भारतीय कैवलरी डिविजन और 27वें (बैंगलोर) ब्रिगेड के हाथों खो दिया था जिसे ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका भेजा गया था।[२०] युद्ध से पूर्व की अन्य इकाइयों में बर्मा डिविजन पूरे युद्ध काल के दौरान आंतरिक सुरक्षा दायित्वों के लिए बर्मा में ही मौजूद रहा और उसी तरह एडेन ब्रिगेड एडेन में रहा था।[२०]

भारतीय सेना का युद्ध में प्रवेश

1901 में फारस की खाड़ी के केंद्र में स्थित मस्जिद-ए-सुलेमान में व्यावसायिक मात्राओं में तेल की खोज की गयी थी।[२५] 1914 में युद्ध की शुरुआत में निजी स्वामित्व वाली एंग्लो-पर्सियन ऑयल कंपनी जिसके पास इन क्षेत्रों के लिए रियायतों का अधिकार था, ब्रिटिश सरकार इसे ब्रिटिश बेड़े के लिए ईंधन की आपूर्ति के प्रमुख उद्देश्य के लिए खरीदने वाली थी। शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि तुर्की की तुर्क सेना को एकत्र किया जा रहा है और अगस्त में भारत सरकार को इन सामरिक संपदाओं की सुरक्षा के लिए आपात योजनाएं तैयार करने का निर्देश दिया गया। योजनाओं में यह तय किया गया कि तुर्की सेना के जर्मनों के समर्थन में सामने आने की स्थिति में भारतीय सेना तेल क्षेत्रों को सुरक्षित करने की भूमिका निभानी होगी। एक आकस्मिकता के रूप में भारतीय अभियान फोर्स डी (नीचे देखें) लेफ्टिनेंट-जनरल सर आर्थर बैरेट के कमान के तहत बंबई से 16 अक्टूबर 1914 को समुद्र मार्ग से बहरीन के लिए रवाना हुआ।[२६] इसके साथ-साथ अभियान फ़ोर्स ए जिसे युद्ध संबंधी प्रयास में सहयोग के लिए इम्पीरियल जनरल स्टाफ द्वारा जवानों की मांग के जवाब में सितंबर[२७] के अंत में जल्दबाजी में यूरोप भेजा गया था--ये भारत के बाहर युद्ध के लिए प्रतिबद्ध पहले भारतीय तत्व बन गए।

स्वतंत्र ब्रिगेड

स्थायी डिवीजनों के अलावा भारतीय सेना ने कई स्वतंत्र ब्रिगेडों का भी गठन किया था। सदर्न आर्मी के एक हिस्से के रूप में एडेन ब्रिगेड को यूरोप से भारत के सामरिक रूप से महत्वपूर्ण नौसेना मार्ग पर एडेन प्रोटेक्टोरेट में तैनात किया गया था।[२०] बन्नू ब्रिगेड, डेराजट ब्रिगेड और कोहट ब्रिगेड, ये सभी नॉर्दर्न आर्मी का हिस्सा थे और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर पर तैनात किये गए थे।[२०] 12 मई 1918 को बन्नू और डेराजट ब्रिगेडों को जनरल जी डब्ल्यू बेयनोन के कमान के तहत वजीरिस्तान जनरल फील्ड फोर्स का नाम दिया गया था।[२८] सदर्न पर्सिया ब्रिगेड का गठन 1915 में दक्षिणी फारस और फ़ारस की खाड़ी में एंग्लो-फ़ारसी तेल प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए फ़ारसी अभियान की शुरुआत में किया गया था।[२०]

अभियान बल

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना का गठन कर इसके सात अभियान बलों को विदेशों में भेजा गया था।[२९]

भारतीय अभियान बल ए

1914-15, शीतकाल के दौरान फ़्लैंडर्स की कार्यवाई में द्वितीय राजपूत लाइट इन्फैंट्री

युद्ध के आरंभ में भारतीय सेना के पास 150,000 प्रशिक्षित जवान थे और भारत सरकार ने विदेशों में सेवा के लिए दो घुड़सवार सेना और दो पैदल सेना के डिविजनों की सेवाओं की पेशकश की थी।[३०] भारतीय अभियान बल ए (इंडियन एक्सपेडिशनरी फ़ोर्स ए) के रूप में जाना जाने वाला सैन्य बल जनरल सर जेम्स विलकॉक्स के कमान के तहत था।[३०] फ़ोर्स ए ब्रिटिश एक्सपेडिशरी फ़ोर्स से संलग्न थी और दो सेना के पलटनों में चार डिविजनों का गठन किया गया: एक पैदल सेना की भारतीय पलटन और भारतीय कैवलरी कोर.[३१][३२] 30 सितम्बर 1914 को मार्सिलेस के आने पर युद्ध की घोषणा के केवल छह सप्ताह बाद वे येप्रेस सेलियेंट चले गए और अक्टूबर 1914 में ला बैसी की लड़ाई में हिस्सा लिया।[३३] मार्च 1915 में 7वें (मेरठ) डिविजन को न्यूवे चैपल के युद्ध में हमले का नेतृत्व करने के लिए चुना गया था।[३३] अभियान बल को उन नए उपकरणों से परिचित नहीं होने से परेशानी का सामना करना पड़ा था जिन्हें फ्रांस में उनके आगमन पर केवल ली एनफील्ड राइफल जारी किये थे और उनके पास लगभग कोई भी तोप नहीं था, अग्रिम पंक्ति में होने पर उन्हें अपने आसपास की पलटनों की मदद पर निर्भर रहना पड़ता था।[३३] वे महाद्वीपीय मौसम के अभ्यस्त नहीं थे और ठंड का मुकाबला करने के लिए उनके पास संसाधनों की कमी थी जिसके कारण उनका मनोबल गिरा हुआ था जिसे आगे आरक्षण प्रणाली द्वारा संयोजित किया गया था, जहां सुदृढीकरण का मसौदा किसी भी रेजिमेंट से तैयार किया गया और उनकी नई इकाइयों से इसकी कोई संबद्धता नहीं थी। अधिकारियों के हताहत होने से और अधिक बाधा उत्पन्न होती थी क्योंकि उनकी जगह पर आने वाले अधिकारी भारतीय सेना से अपरिचित होते थे और इनकी भाषा नहीं बोल पाते थे।[३३] गिरे हुए मनोबल के साथ बहुत से सैनिक युद्ध स्थल से भाग खड़े हुए और पैदल सेना के डिविजनों को अंततः अक्टूबर 1915 में मिस्र में वापस बुला लिया गया, जब उनकी जगह किचनर की सेना के ब्रिटिश डिविजनों को प्रतिस्थापित किया गया।[३३][३४]

1914 में पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय घुड़सवार

पैदल सेना के डिवीजनों की वापसी के साथ पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना की इकाई केवल दो घुड़सवार सेना के डिवीजनों के रूप में रह गयी थी। नवंबर 1916 में दो भारतीय घुड़सवार सेना के डिवीजनों को पहले और दूसरे से लेकर चौथे और पांचवें कैवलरी डिविजनों के रूप में नया नंबर दिया गया।[३५] ब्रिटिश घुड़सवार सेना के डिवीजनों के साथ काम करते हुए उन्हें मार्ग मिलने की उम्मीद में अग्रिम पंक्ति के पीछे ही रखा गया। युद्ध के दौरान कई बार उन्होंने पैदल सेना के रूप में खाइयों में काम किया था जब इसमें उतारे जाने पर प्रत्येक घुड़सवार ब्रिगेड एक डिसमाउंटेड रेजिमेंट होता था। इसका मतलब यह है कि जब डिविजनें अग्रिम पंक्ति में जाती थीं, वे केवल एक ब्रिगेड एरिया को कवर कर सकती थीं।[३६] मार्च 1918 में मिस्र में अपनी वापसी से पहले उन्होंने सोम्मे की लड़ाई, बैजेंटीन के युद्ध, फ्लेर्स-कोर्सेलेट के युद्ध, हिंडनबर्ग लाइन के आगे और अंत में कैम्ब्राय के युद्ध में हिस्सा लिया था।[३३]

फ्रांस और बेल्जियम में काम करने वाले 130,000 भारतीयों में से लगभग 9,000 की मृत्यु हो गई थी।[१४]

भारतीय अभियान बल बी

1914 में ब्रिटिश पूर्वी अफ्रीका के गवर्नर ने जर्मन पूर्वी अफ्रीका में जर्मन सैनिकों के सात निबटने में सहायता का आग्रह किया और यह समस्या भारतीय कार्यालय कार्यालय को सौंप दी गयी जिसने दो सैन्य बलों का गठन किया और उन्हें उनकी मदद के लिए भेज दिया। [३७] भारतीय अभियान सेना बी जिसमें 9वीं (सिकंदराबाद) डिविजन से 27वें (बैंगलोर) ब्रिगेड और एक अग्रणी बटालियन इम्पीरियल सर्विस इन्फैंट्री ब्रिगेड, एक पहाड़ी तोपखाने की बैटरी और इंजिनियर शामिल थे, इसे जर्मन पूर्वी अफ्रीकी पर हमला करने के उद्देश्य से टंगानिका भेजा गया था।[३८] मेजर जनरल आर्थर ऐटकन के कमान के तहत यह सैन्य बल 02-03 नवम्बर 1914 को टांगा पहुंच गया। अगले टांगा के युद्ध में ऐटकन के 8,000 जवानों को जनरल कमांडर पॉल एमिल वॉन लेटो-वोरबेक के तहत उनके 1,000 जवानों द्वारा बुरी तरह से पीटा गया था।[३९] 817 जवानों के हताहत होने और कई सैकड़े राइफलों, 16 मशीन गनों और 600,000 राउंड गोला-बारूदों के नुकसान के बाद 5 नवम्बर 1914 को यह सैन्य बल को फिर से अपने कार्य में जुट गया।[३९]

भारतीय अभियान बल सी

पूर्वी अफ्रीका की कार्यवाई में भारतीय सेना के 10 पाउन्डर माउंटेन गन क्र्यू.

भारतीय अभियान बल सी 1914 में ब्रिटिश पूर्वी अफ्रीका में सेवा के लिए संयोजित दूसरा सैन्य बल बना, इस सैन्य बल का गठन पैदल सेना के पांच बटालियनों के इंपीरियल सर्विस इन्फैंट्री ब्रिगेड से किया गया था और इसमें भारतीय सेना के 29वें पंजाबी बटालियन के साथ-साथ जींद, भरतपुर, कपूरथला और रामपुर के रियासती प्रांतों के बटालियनों, एक स्वयंसेवक 15 पाउंडर तोपखाने की बैटरी, 22वीं (डेराजट) माउंटेन बैटरी (फ्रंटियर फोर्स), एक वोलंटियर मैक्सिम गन बैटरी और एक फील्ड एम्बुलेंस शामिल थे। यह योजना बनाई गयी थी कि सैन्य बल का इस्तेमाल मुख्य रूप से युगांडा के रेलवे की निगरानी और संचार सुरक्षा कार्यों में किंग्स अफ्रीकन राइफल्स का समर्थन करने के लिए किया गया। मोम्बासा पहुंचने के बाद फ़ोर्स सी को विखंडित कर दिया गया और इसकी इकाइयों ने बाद में अलग-अलग कार्य किया।[२९] एक कार्रवाई जिसमें वे शामिल थे वह अक्टूबर 1914 में किलिमंजारो की लड़ाई की थी। ब्रिटिश और जर्मन पूर्वी अफ्रीका की सीमा के पास इकट्ठा हुए 4,000 जवानों के साथ फ़ोर्स सी की कमान ब्रिगेडियर जनरल जे.एम. स्टीवर्ट ने संभाली थी। दोषपूर्ण खुफिया सूचनाओं का अनुमान था कि इस क्षेत्र में जर्मन मिलिटरी के 200 जवान मौजूद थे; जबकि वहां तीन कंपनियों में 600 अस्करियों के साथ औपनिवेशिक स्वयंसेवक, घोड़े की पीठ पर सवार 86 युवा जर्मन मौजूद थे।[४०] 3 नवम्बर 1914 को रात में लोंडिगो के पास आगे बढ़ रहे ब्रिटिश सेना के तकरीबन 1500 पंजाबियों को एक मजबूत जर्मन रक्षा पंक्ति की गोलीबारी का सामना करना पड़ा क्योंकि वे सुबह के कोहरे में आगे रहे थे। भारतीय पैदल सेना की बड़ी ताकत ने प्रभावी ढंग से जवाबी हमलों का बचाव किया, हालांकि दिन भर ब्रिटिश हमलावरों ने कोई प्रगति नहीं की और इसमें काफी जवान हताहत हुए. सुबह के मध्य तक एक जर्मन घुड़सवार गश्ती दल ने एक आपूर्ति कॉलम पर घात लगाकर हमला किया और सैन्य दलों के लिए पानी ले जा रहे लगभग 100 खच्चरों को जर्मनों द्वारा खदेड़ का भगा दिया गया। अपने व्यापक रूप से बिखरे हुए सैन्य दलों के साथ ब्रिटिश अधिकारियों ने अंधेरा होने तक इंतज़ार किया और अपनी स्थिति को अधिकार में नहीं आने योग्य निश्चित हो जाने पर पहाड़ से नीचे उतर आये और किसी उपलब्धि के बिना ब्रिटिश पूर्वी अफ्रीका वापस लौट गए।[४१][४२]

भारतीय अभियान बल डी

बसरा और नसीरिया के बीच सैन्य रेलवे के एक रेलवे वैगन पर लगी QF 3 पाउंडर हौच्किंस बंदूक का संचालन करते भारतीय सैनिक.

विदेश में सेवारत भारतीय सेना का सबसे बड़ा सैन्य बल लेफ्टिनेंट-जनरल सर जॉन निक्सन के कमान के तहत मेसोपोटामिया में भारतीय अभियान बल डी था।[३३] नवंबर 1914 में भेजा गया पहला यूनिट 6ठा पूना डिवीजन था और उन्हें बसरा और उसके आसपास ब्रिटिश तेल प्रतिष्ठानों की रखवाली का काम सौंपा गया था।[२९] मेसोपोटेमियाई अभियान के एक हिस्से के रूप में उन्होंने मेजर जनरल बैरेट के कमान के तहत और उसके बाद मेजर जनरल टाउनशेंड के तहत काम किया। शुरुआती सफलताओं की एक कड़ी के बाद अभियान को नवंबर 1915 में टेसिफॉन के युद्ध में साजो-सामान संबंधी कारणों से एक विघ्न का सामना करना पड़ा.[२९] इस अनुबंध के बाद पूना डिवीजन को कुट में वापस बुला लिया गया जहां टाउनशेंड ने इस शहर पर अपना कब्जा बनाए रखने का फैसला किया और कुट की घेराबंदी शुरू हुई।

जनवरी और मार्च 1916 के बीच टाउनशेंड ने घेराबंदी हटाने की कोशिश में कई बार हमले किये। इसी अनुक्रम में शेख शाद के युद्ध, वादी की लड़ाई, हन्ना की लड़ाई और डुजैला रीडाउट के युद्ध में हमले किये गए।[४३]

कूट की घेराबंदी से बचकर निकलने वाला एक अत्यंत दुर्बल भारतीय सैनिक

घेरों को तोड़ने की ये कोशिशें सफल नहीं हुईं और काभी नुकसान उठाना पड़ा जिसमें बड़ी संख्या में दोनों पक्षों के लोग हताहत हुए. फ़रवरी में कुट-अल-अमारा में टाउनशेंड के लिए भोजन और उम्मीद ख़त्म होने लगी थी। बीमारियां तेजी से फैलीं और इन्हें रोका या ठीक नहीं किया जा सकता था जिससे अप्रैल 1916 में टाउनशेंड ने आत्मसमर्पण कर दिया। [२९] दिसंबर 1916 में तीसरा और सातवाँ डिविजन वेस्टर्न फ्रंट से आया।[४४]

1917 में फ्रेडरिक स्टेनली मौड के तहत ब्रिटिश फ़ोर्स जिसमें अब भारतीय सेना की एक कैवलरी और सात इन्फैंट्री डिविजन शामिल थे, तीन पलटनों (भारतीय)[२९] के साथ यह सेना बगदाद की ओर आगे बढ़ी जिसे मार्च में कब्जा कर लिया गया।साँचा:category handler[clarification needed] यह प्रगति 1918 में जारी रही और अक्टूबर में शर्कत की लड़ाई के बाद तुर्की सेना ने आत्मसमर्पण कर लिया और मुद्रोस के युद्धविराम पर हस्ताक्षर कर दिया। [४५] मेसोपोटेमिया का अभियान मोटे तौर पर एक भारतीय सेना का अभियान था क्योंकि इसमें शामिल ब्रिटिश संरचनाएं केवल 13वें (वेस्टर्न) डिविजन और भारतीय ब्रिगेडों में नियुक्त ब्रिटिश बटालियनों के रूप में थीं।[४३] अभियान में 11,012 लोग मारे गए थे, 3,985 लोगों की मौत घावों के कारण हो गई थी, 12,678 बीमारी की वजह से मौत का शिकार हुए थे, 13,492 लोग या तो लापता थे या बंदी बना लिए गए थे (कुट के 9,000 कैदियों सहित) और 51,836 लोग घायल हुए थे।[४६] साँचा:clr

भारतीय अभियान बल ई

3.7 इंच माउंटेन हौविट्ज़र के साथ भारतीय सेना के बंदूकची (शायद 39 वीं बैटरी), 1917 जेरूसलम

भारतीय अभियान बल ई में फिलिस्तीन में सेवा के लिए 1918 में फ्रांस से स्थानांतरित दो भारतीय कैवलरी डिविजन (चौथा कैवलरी डिविजन और पांचवां कैवलरी डिविजन) शामिल थे। उन्हें इम्पीरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड में शामिल किया गया था, जो मैसूर, हैदराबाद और जोधपुर के रियासती प्रांतों के लांसरों के तीन रेजीमेंटों से बनायी गयी एक इकाई थी।[२९] तीसरे (लाहौर) डिविजन और सातवें (मेरठ) डिविजन को मेसोपोटामिया से स्थानांतरित किया गाया था।[४७] साथ ही भारतीय सेना की 36 बटालियनों को ब्रिटिश 10वें (आयरिश) डिविजन, 53वें डिविजन, 60वें डिविजन और 75वें डिविजन को सुदृढ़ करने के लिए भेजा गया था जिनका पुनरोद्धार प्रति ब्रिगेड एक ब्रिटिश एवं तीन भारतीय बटालियनों के साथ भारतीय डिविजन लाइनों पर किया गया था।[४७]

भारतीय अभियान बल एफ

भारतीय अभियान बल एफ में 10वीं भारतीय डिवीजन और 11वीं भारतीय डिवीजन शामिल थी, दोनों का गठन 1914 में मिस्र में स्वेज नहर की सुरक्षा के लिए किया गया था। अन्य सम्बद्ध संरचनाएं थीं अपने ब्रिटिश बटालियनों के बिना 8वीं लखनऊ डिविजन की नियमित 22वीं लखनऊ इन्फैंट्री ब्रिगेड और एक इम्पीरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड.[४८]

10वीं डिवीजन को 1916 में भंग कर दिया गया था और इसके ब्रिगेड को अन्य संरचनाओं को सौंप दिया गया था।[२९] 28वीं ब्रिगेड को 1915 में 7वें (मेरठ) डिविजन को सौंप दिया गया था, 29वीं ब्रिगेड ने जून 1917 में भंग किये जाने तक गैलीपोली अभियान में एक स्वतंत्र ब्रिगेड के रूप में काम किया था। 30वीं ब्रिगेड को पहले अप्रैल 1915 में 12वीं भारतीय डिवीजन को सौंपा गया था, फिर इसे सितंबर 1915 में 6ठी (पूना) डिवीजन में स्थानांतरित किया गया था।[४९]

11वीं डिवीजन को पहले ही 1915 में भंग कर दिया गया था लेकिन इसका ब्रिगेड अधिक समय तक अस्तित्व में नहीं रहा। [२९] 31वीं ब्रिगेड जनवरी 1916 में 10वीं डिवीजन में शामिल हो गयी थी लेकिन एक महीने बाद ही भंग हो गयी थी। 32वीं ब्रिगेड को जनवरी 1916 में भंग किया गया। 33वीं ब्रिगेड को अगस्त 1915 में फारस के बुशायर में भेज दिया गया और उसके बाद दिसंबर 1915 में इसे भंग कर दिया गया।[४९]

भारतीय अभियान बल जी

अप्रैल 1915 में भारतीय अभियान बल जी को गैलीपोली अभियान को मजबूत करने के लिए भेजा गया।[१४] इसमें 29वीं ब्रिगेड शामिल थी जिसने अपने मूल 10वीं भारतीय डिवीजन से दूर होकर काम किया था।[२९] तीन गोरखा और एक सिख बटालियनों[५०] से मिलकर बने इस ब्रिगेड को मिस्र से रवाना कर दिया गया और इसे ब्रिटिश 29वीं डिविजन के साथ संलग्न कर दिया गया जिसे पहले की लड़ाइयों में काफी नुकसान पहुंचा था।[५१] क्रिथिया के दूसरे युद्ध के लिए सुरक्षित रखी गयी इस टुकड़ी ने क्रिथिया के तीसरे युद्ध में प्रमुख भूमिका निभाई थी। बायीं तरफ आगे बढ़ रही ब्रिगेड को जल्दी ही रोक दिया गया जबकि ऐजियन तट पर 1/छठी गोरखा राइफल्स आगे बढ़ने में सफल रही। गली रैविने के फ्लोर के साथ आगे बढ़ रहे 14वें फिरोजपुर सिखों का लगभग सफाया कर दिया गया था जिसने अपने 514 में से 380 जवानों और 80% अधिकारियों को खो दिया था। इसके बाद यह ब्रिगेड गली रैवाइन की लड़ाई में शामिल हुई और यहां 2/ 10 गोरखा राइफल्स आधा मील तक आगे बढ़ने में सफल रही। फिर इस ब्रिगेड ने सारी बैर की लड़ाई में हिस्सा लिया, नौसैनिक बमबारी के कवर के तहत 1/6ठे गोरखा राइफल्स ने पहाडी पर हमला किया और इसे कब्जे में कर लिया, जिस पर बाद में रॉयल नेवी द्वारा गोलीबारी की गयी। हताहतों की संख्या बढ़ने और बटालियन के चिकित्सा अधिकारी के कमान के तहत उन्हें अपनी प्रारंभिक स्थितियों में वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया।[५२] सारी बैर में हमले की विफलता के साथ ब्रिगेड को मिस्र वापस ले लिया गया। अभियान की अवधि के दौरान 29वीं ब्रिगेड को 1,358 लोगों की मौत और 3,421 लोगों के घायल होने का नुकसान उठाना पड़ा.[५३]

अन्य ऑपरेशन

सिंगताओ की घेराबंदी

भारतीय सेना की बटालियन जो चीन में टियांजिन की मोर्चाबंदी का हिस्सा थी, इसके 36वें सिखों ने सिंगताओं की घेराबंदी में हिस्सा लिया। सिंगताओ चीन में एक जर्मन नियंत्रित बंदरगाह था।[५४] ब्रिटिश सरकार और अन्य संबद्ध यूरोपीय शक्तियां इस क्षेत्र में जापानी इरादों के बारे में चिंतित थीं और उनके डर को दूर करने के प्रयास में उन्होंने टियांजिन से एक छोटे से प्रतीकात्मक ब्रिटिश सैन्य दल को भेजने का फैसला किया। 1,500 जवानों के इस सैन्य दल की कमान ब्रिगेडियर-जनरल नथैनियल वाल्टर बनार्डिस्टन ने संभाली और साउथ वेल्स बोर्डेरर्स की दूसरी बटालियन के 1,000 सैनिकों को शामिल किया जिसने बाद में 36वें सिखों के 500 सैनिकों को शामिल किया।[५४] जापानी नेतृत्व वाली सैन्य टुकड़ी ने 31 अक्टूबर-7 नवम्बर 1914 के बीच बंदरगाह की घेराबंदी कर ली थी।[१४][५४] घेराबंदी के अंत में जापानी सेना के हताहतों की संख्या 236 मौतों और 1,282 घायलों तक पहुंच गयी; ब्रिटिश/भारतीयों के 12 लोग मारे गए और 53 घायल हुए थे। जर्मन रक्षकों को 199 मौतों और 504 घायलों का नुकसान उठाना पड़ा था।[५५]

1915 में सिंगापुर का सैन्य-विद्रोह

1915 में सिंगापुर का सैन्य-विद्रोह 5वीं लाइट इन्फैंट्री के 850 सिपाहियों द्वारा युद्ध के दौरान सिंगापुर में ब्रिटिश के खिलाफ एक विद्रोह था जो 1915 के ग़दर षड़यन्त्र का हिस्सा था। 5वीं लाइट इन्फैंट्री अक्टूबर 1914 में मद्रास से सिंगापुर आयी थी। उन्हें वे यॉर्कशायर लाइट इन्फैंट्री की जगह लेने के लिए भेजा गया था जिसे फ्रांस जाने का आदेश दिया गया था।[५६] 5वीं लाइट इन्फैन्ट्री में ऐसे लोगों को भर्ती किया गया था जो मुख्य रूप से पंजाबी मुसलमान थे। कमजोर संचार व्यवस्था, लापरवाह अनुशासन और सुस्त नेतृत्व के कारण उनका मनोबल लगातार गिरता जा रहा था।[५७] रेजिमेंट को जर्मन शिप एसएमएस, एमडेन के कैदियों की रखवाली के लिए तैनात किया गया था।[५७] वे 16 फ़रवरी 1915 तक हांगकांग के लिए रवाना होने की अपेक्षा कर रहे थे, हालांकि इस तरह की अफवाहें उड़नी शुरू हो गयी थी कि वे तुर्क साम्राज्य के साथी मुसलमानों के खिलाफ लड़ने जा रहे थे।[५७] जर्मन कैदी ओबेरल्युटिनेंट लॉटरबाक (Oberleutenant Lauterbach) ने अफवाहों को हवा दी थी और सैनिकों को अपने ब्रिटिश कमांडरों के खिलाफ बगावत करने के लिए प्रोत्साहित किया था।[५७] सिपाही इस्माइल खान ने एकमात्र शॉट की फायरिंग कर बगावत शुरू होने का संकेत दिया था। टांगलिन बैरकों में मौजूद अधिकारियों की ह्त्या कर दी गयी और एक अनुमान के अनुसार 800 विद्रोहियों सड़कों पर घूमा करते थे और अपने सामने पड़ने वाले किसी भी यूरोपीय को मार डालते थे। विद्रोह दस दिनों तक जारी रहा और सिंगापुर स्वयंसेवी आर्टिलरी के जवानों, अतिरिक्त ब्रिटिश इकाइयां और जोहोर के सुलतान और अन्य सहयोगियों की सहायता से इस दबा दिया गया।[५७] कुल मिलाकर 36 विद्रोहियों को बाद में मार डाला गया और 77 अधिकारियों को स्थानांतरित कर दिया गया जबकि 12 अन्य को कैद कर लिया गया।[५७]

विक्टोरिया क्रॉस प्राप्तकर्ता

भारतीय सैनिक 1911 तक विक्टोरिया क्रॉस के लिए योग्य नहीं रहे थे, इसकी बजाय उन्होंने इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट प्राप्त किया था जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दिनों में मूल रूप से तय किया गया एक पुराना पदक था। किसी भी संघर्ष में विक्टोरिया क्रॉस (वीसी) के पहले भारतीय प्राप्तकर्ता का सम्मान खुदादाद खान को मिला था जो कनॉट्स ओन बलूचीज के 129वें ड्यूक थे।[५८] 31 अक्टूबर 1914 को जब बेल्जियम के होलेबेके में टुकड़ी के ब्रिटिश ऑफिसर इंचार्ज घायल हो गए और अन्य बंदूक को एक गोलीबारी में निष्क्रिय कर दिया गया, सिपाही खुदादाद स्वयं घायल होने के बावजूद अपनी बंदूक से काम करते रहे जब तक कि बंदूक की टुकड़ी के अन्य सभी पांच जवान को मार नहीं डाला गया।[५९]

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले भारतीय सेना के अन्य सदस्यों में शामिल थे:

  • दरवान सिंह नेगी, 39वीं गढ़वाल राइफल्स
    • फ्रांस के फेस्टुबर्ट के पास 23-24 नवम्बर 1914 की रात को ग्रेट गैलेंट्री के लिए, जब रेजिमेंट दुश्मन से दुबारा भिड़ने और हमारी खाइयों से उन्हें निकाल बाहर करने में संलग्न थे और हालांकि सिर पर दो जगहों पर और हाथ पर चोट लगने के बावजूद सबसे करीबी रेंज से बमों और राइफलों से भारी आग बरसाये जाने की स्थिति में भी एक के बाद एक आने वाली प्रत्येक बाधा को पार करने वाले पहले जवानों में एक थे।[५९]
  • फ्रैंक अलेक्जेंडर डी पास 34वां प्रिंस अल्बर्ट विक्टर्स ओन पूना हॉर्स
    • 24 नवम्बर 1914 को फेस्टुबर्ट के पास विशिष्ट बहादुरी के लिए,

एक जर्मन सुरंग में प्रवेश करने और दुश्मन के बमों के बीच एक ट्रावर्स को नष्ट करना और बाद में भीषण आग के बीच से एक घायल व्यक्ति को बचाकर निकालने के लिए जो बाहर खुले में लेटा हुआ था।[६०]

  • विलियम ब्रूस 59वीं शिंदे राइफल्स
    • 19 दिसम्बर 1914 को गिवेंची के निकट एक रात के हमले के दौरान, लेफ्टिनेंट ब्रुस एक छोटी सी पार्टी की कमान में थे जिसने दुश्मन की एक खाई पर कब्जा कर लिया था। गर्दन में गंभीर चोट होने के बावजूद वे खंदक के ऊपर और नीचे आते-जाते रहे और मारे जाने से पहले कई घंटों तक कई जवाबी हमलों के खिलाफ अपने जवानों को डटे रहने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। राइफलों और बमों से निकलने वाली आग पूरे दिन बहुत गंभीर थी और केवल एक कुशल तैनाती किये जाने और लेफ्टिनेंट ब्रूस द्वारा दिखायी गयी दिलेरी और साहस के कारण उनके जवान शाम तक डटे रहने में सक्षम रहे जब अंततः दुश्मन ने खंदक पर कब्जा कर लिया।[६१]
  • यूस्तेस जोथम, उत्तरी वजीरिस्तान मिलिशिया से संलग्न 51वें सिख
    • 7 जनवरी 1915 को स्पिना खैसोरा (तोची वैली) में खोस्तवाल आदिवासियों के खिलाफ ऑपरेशनों के दौरान कैप्टन जोथम, जो उत्तरी वजीरिस्तान मिलिशिया के लगभग एक दर्जन लोगों की एक पार्टी को कमांड दे रहे थे, एक नल्लाह में उनपर हमला किया गया था और लगभग 1,500 आदिवासियों की एक जबरदस्त सेना द्वारा लगभग घेर लिया करते थे। उन्होंने पीछे हटने का आदेश दिया और वे खुद भी भाग सकते थे लेकिन अपने एक ऐसे जवान को बचाने की कोशिश में जिसने अपना घोड़ा खो दिया था उन्होंने पूरी बहादुरी से अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। [६२]
  • मीर दस्त 55वीं कोक राइफल्स (फ्रंटियर फ़ोर्स)
    • 26 अप्रैल 1915 को बेल्जियम के वेल्त्जे में हमले के दौरान जमादार मीर दस्त ने अपनी पलटन का नेतृत्व काफी बहादुरी से किया और उसके बाद रेजिमेंट (जब कोई ब्रिटिश अधिकारी बचा नहीं रह गया था) की विभिन्न पार्टियों को एक साथ जुटाया और पीछे हटने का आदेश दिए जाने तक उन्हें अपनी कमान के तहत रखा। उन्होंने उस दिन काफी साहस का प्रदर्शन भी किया जब भीषण आग से घिर जाने पर उन्होंने आठ ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों को सुरक्षित बचाकर ले जाने में मदद की। [६३]
  • जॉन स्मिथ 15वें लुधियाना सिख
    • 18 मई 1915 को रिचेबर्ग लावोन के पास सबसे विशिष्ट वीरता के लिए। 10 लोगों की एक बमबारी पार्टी के साथ, जिन्होंने स्वेच्छा से यह जिम्मेदारी उठायी थी, दो अन्य पार्टियों की कोशिशों के नाकाम हो जाने के बाद असाधारण रूप से खतरनाक ग्राउंड पर दुश्मन की मौजूदगी से 20 गज की दूरी के भीतर उन्होंने 96 बमों की आपूर्ति की जानकारी दी। लेफ्टिनेंट स्मिथ अपने दो जवानों की मदद से बमों को वांछित स्थान पर ले जाने में सफल रहे (आठ अन्य जवान मारे गए थे या घायल हो गए थे) और अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्हें एक नदी को तैरकर पार करना पड़ा था जिसके दौरान पूरे समय वे होवित्ज़र, श्राप्नेल, मशीन-गन और राइफल की आग के बीच घिरे रहे थे।[६४]
  • कुलबीर थापा, 3री गोरखा राइफल्स
    • 25 सितंबर 1915 को फ्रांस के फ्रौक्विसार्ट में रायफलमैन थापा ने स्वयं घायल होने के बावजूद लीसेस्टरशायर रेजिमेंट के एक घायल सैनिक को जर्मन ट्रेंच की पहली पंक्ति के पीछे पाया। हालांकि खुद को बचाने का तर्क देते हुए गोरखा घायल जवान के साथ पूरे दिन-रात जुटे रहे। अगले दिन सबेरे धुंधले मौसम में वे उसे जर्मन वायर से होकर ले गए और उसे एक अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान पर रखा, फिर वापस लौटकर एक के बाद एक दो घायल गोरखा जवानों को वहां लेकर आये। उसके बाद वे वापस गए और दिन के व्यापक उजाले में ज्यादातर मार्ग पर दुश्मन की गोलाबारी के बीच ब्रिटिश सैनिक को बचाकर ले आये। [६५]
  • लाला 41वीं डोगरा
    • 21 जनवरी 1916 को मेसोपोटामिया के अल ओराह में एक ब्रिटिश अधिकारी को दुश्मन के नजदीक लेता हुआ पाकर लांस-नाइक लाला उन्हें घसीटकर एक अस्थायी आश्रय में ले आये। उनके घावों पर पट्टी बांधने के बाद लांस-नाइक ने अपने ही एक सैन्य अधिकारी की पुकार सुनी जो खुले में घायल पड़े हुए थे। दुश्मन केवल साँचा:convert दूर था। लाला ने मदद के लिए आगे बढ़ने पर जोर दिया। उन्होंने घायल अधिकारी को गर्म रखने के लिए अपने स्वयं के कपड़ों को उतार लिया और उनके साथ अंधेरा होने के ठीक पहले तक मौजूद रहे और तब वापस अपने आश्रय में लौट आये। अंधेरा होने के बाद वे पहले अधिकारी को सुरक्षित स्थान पर ले गए और उसके बाद एक स्ट्रेचर के साथ वापस लौटकर अपने सैन्य अधिकारी को वापस ले गए।[६६]
  • जॉन अलेक्जेंडर सिंटन इंडियन मेडिकल सर्विस
    • 21 जनवरी 1916 को मेसोपोटामिया के ओराह रेन्स में कप्तान सिंटन ने बहुत भीषण गोलाबारी के बीच घायल जवान की सेवा की। "सबसे विशिष्ट वीरता और कर्तव्य के प्रति निष्ठा के लिए. हालांकि दोनों हाथों और बगल में गोली लगने के बावजूद उन्होंने अस्पताल जाने से मना कर दिया और दिन की रोशनी के रहते भीषण आग के बीच अपनी ड्यूटी पर डटे रहे. पिछली तीन कार्रवाइयों में कप्तान सिंटन ने अत्यंत बहादुरी का प्रदर्शन किया था।"[६७]
  • शाहमद खान 89 वी पंजाबी
    • 12-13 अप्रैल 1916 को मेसोपोटामिया में बीट आईसा के निकट नायक शाहमद खान मजबूती से जमे दुश्मन से 150 गज की दूरी के भीतर हमारी नयी पंक्ति में एक अंतराल को कवर करने वाले एक मशीन-गन का इंचार्ज थे। उन्होंने तीन जवाबी हमलों को नाकाम कर दिया और दो बेल्ट फिलर्स को छोड़कर अपने सभी जवानों के घायल हो जाने के बाद भी अपनी बंदूक के साथ अकेले लड़ते रहे। तीन घंटे तक उन्होंने बहुत भीषण गोलाबारी के बीच अंतराल को बनाए रखा और जब उनका बंदूक नाकाम हो गया, वे और उनके दो बेल्ट-फिलर साथियों ने वापस लौटने का आदेश दिए जाने तक राइफलों के साथ अपनी पकड़ को बनाए रखा। उसके बाद उनकी मदद से वे अपनी बंदूक, गोला-बारूद और एक गंभीर रूप से घायल जवान और अंततः बाकी बचे सभी हथियारों और उपकरणों को वापस ले आये। [६८]
  • गोबिंद सिंह 28वीं लाइट कैवलरी
    • 30 नवम्बर और 1 दिसम्बर 1917 की रात को फ्रांस के पोजिएयेस के पूरब में लांस दफादार गोबिंद सिंह ने रेजिमेंट और ब्रिगेड के मुख्यालय के बीच तीन बार स्वयंसेवक के रूप में संदेशों का आदान-प्रदान किया, यह स्थान साँचा:convert से अधिक की दूरी पर खुले मैदान में स्थित था जहां दुश्मन की भीषण गोलाबारी हो रही थी। वे हर बार सन्देश को पहुंचाने में कामयाब रहे, हालांकि हर मौके पर उनके घोड़े को गोली लगी और उन्हें पैदल यात्रा के लिए मजबूर होना पड़ा.[६९]
  • करणबहादुर राणा 3री गोरखा राइफल्स
    • 10 अप्रैल 1918 को मिस्र के अल केफ्र में एक हमले के दौरान रायफलमैन करणबहादुर राणा और कुछ अन्य लोग भारी गोलाबारी के बीच दुश्मन के एक मशीन-गन पर हमला करने के लिए एक लुईस गन के साथ दबे पांव आगे बढ़ते रहे। लुईस गन की नंबर 1 टीम ने गोलाबारी शुरू कर दी लेकिन लगभग तुरंत उसे गोली मार दी गयी, जिसके बाद राइफ़लमैन ने मृत आदमी को बंदूक से दूर घसीट लिया, गोलाबारी शुरू की, दुश्मन के बंदूक चालक दल को करारा जवाब दिया और उसके बाद दुश्मन के बमवर्षकों एवं अपने सामने आये राइफ़ल्मैन को खामोश कर दिया। दिन के बचे हुए समय में उन्होंने काफी बहादुरी का काम किया और अंततः वापसी में गोलाबारी की कवर देने में मदद की जब तक कि दुश्मन उनके करीब नहीं आ गया।[७०]
  • बदलू सिंह 14वीं मूर्रे'ज जाट लांसर्स
    • 2 सितंबर 1918 को फिलिस्तीन में जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर, जब उनके स्क्वाड्रन दुश्मन की एक मजबूत श्तिति का सामना कर रहे थे, रसाईदार बदलू सिंह ने महसूस किया कि ज्यादातर लोग एक छोटी सी पहाड़ी से होने वाले हमले से हताहत हो रहे थे जिस पर मशीन-गनों और 200 पैदल सैनिकों का कब्जा था। बिना किसी झिझक के उन्होंने छह अन्य रैंकों को एकत्र किया और खतरे की पूरी तरह से परवाह किये बिना धावा बोल दिया और उस स्थिति पर कब्जा कर लिया। एक मशीनगन को अकेले कब्जे में करने के क्रम में वे प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे लेकिन उनकी मृत्यु से पहले सभी बंदूकों और पैदल सैनिकों ने उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया था।[७१]

परिणाम

अधिक जानकारी के लिए वर्ल्ड वार I एंड इट्स आफ्टरमैथ और लिस्ट ऑफ रेजिमेंट्स ऑफ द इंडियन आर्मी (1922) को देखें
5वें रॉयल गोरखा राइफल्स, उत्तर पश्चिम फ्रंटियर 1923

1919 में भारतीय सेना 491,000 जवानों को बुला सकी थी लेकिन अनुभवी अधिकारियों की कमी थी, ज्यादातर अधिकारी युद्ध में मारे गए थे या घायल हो गए थे।[७२] 1921 में भारत सरकार ने नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर की सुरक्षा और आतंरिक सुरक्षा को अपनी प्राथमिकता बनाकर अपनी सैन्य आवश्यकताओं की एक समीक्षा करनी शुरू की। [७३] 1925 तक भारत में सेना के सैनिकों की संख्या घटाकर 197,000 कर दी गयी जिनमें से 140,000 भारतीय थे।[७४] बटालियनों को अब तीन भूमिकाओं में से एक प्रदान किया गया: चार पैदल सेना के डिवीजनों की फील्ड आर्मी और पांच घुड़सवार ब्रिगेड; कवर करने वाले सैनिक, आक्रमण की स्थिति में सुरक्षित सेना के रूप में 12 इन्फैंट्री ब्रिगेड और समर्थक हथियार; और अंत में नागरिक बल की मदद और आवश्यकता पड़ने पर फील्ड आर्मी की सहायता के लिए आतंरिक सुरक्षा सैनिक, 43 इन्फैन्ट्री बटालियन.[७५] कैवलरी रेजिमेंटों की संख्या 39 से घटाकर 21 कर दी गयी थी। पैदल सेना के रेजिमेंटों को 20 बड़े रेजिमेंटों में बदल दिया गया जिसमें प्रत्येक रेजिमेंट में चार या पांच बटालियन के साथ-साथ एक प्रशिक्षण बटालियन शामिल थे, जिन्हें हमेशा 10वां नंबर दिया गया, साथ ही इसमें दस गोरखा रेजीमेंटों को भी शामिल किया गया था।[७६] 1922 तक नौ एकल बटालियन रेजिमेंटों को भंग कर दिया गया।[७६] दो बड़े रेजिमेंटों को बाद में भंग किया गया, तीसरी मद्रास रेजिमेंट को आर्थिक कारणों से और बीसवीं बर्मा राइफल्स को उस समय जब बर्मा भारत के शासन का हिस्सा नहीं रह गया था।[७६]

प्रथम विश्व युद्ध के अंत के बावजूद भी भारतीय सेना के लिए संघर्ष का अंत नहीं हुआ -- यह 1919 में तीसरे अफगान युद्ध[७७] में और उसके बाद 1920-1924 के बीच और फिर 1919-1920 के बीच वजीरिस्तान अभियान में शामिल हुई। [७८] 1930-1931 के बीच आफरीदियों के खिलाफ, 1933 में मोहमंदों के खिलाफ और फिर 1935 में तथा अंत में द्वितीय विश्व युद्ध की कार्रवाई शुरू होने से ठीक पहले एक बार फिर से 1936-1939 के बीच वजीरिस्तान में किये गए युद्ध.[७९]

1931 में नई दिल्ली में इंडिया गेट का निर्माण हुआ जो उन भारतीय सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि है जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में लड़ते हुए अपने प्राण गंवा दिए थे।[८०]

इन्हें भी देखें

टिप्पणियां

  1. सुमनेर, पी.3
  2. Participants from the Indian subcontinent in the First World War. Memorial Gates Trust. http://www.mgtrust.org/ind1.htm. अभिगमन तिथि: 2009-09-12 
  3. हीथकोट, पी.184
  4. पेरी, पी.83
  5. पेरी, पी.85
  6. विलमोट, पी.94
  7. जेफ़री, पी.3
  8. साँचा:cite web
  9. बरुआ, पी.130
  10. ब्रिजर, पी.63
  11. साँचा:cite web
  12. पेरी, पी.86
  13. चैपल (2003), पी.9
  14. साँचा:cite web
  15. हीथकोट, पी.197
  16. डेविस, पी.153
  17. हीथकोट पीपी.200-210
  18. पेति, पी.31
  19. सुमनेर, पी.7
  20. सुमनेर, पी.9
  21. दी थर्ड अफ़ग़ान वार 1919 ऑफिशियल एकाउंट, पी.11
  22. रिदिक, पीपी.96-100
  23. London Gazette: (Supplement) no. 29652, p. 6699, 4 जुलाई 1916. Retrieved 2009-09-19.
  24. रीड, पी.120
  25. किन्ज़ेर, पी.48
  26. फोर्ड, पीपी.23-24
  27. साँचा:cite web
  28. वजीरिस्तान अभियान. प्रेक्षण प्रकाशित किया गया। सक्सेस ऑफ ऑपरेशंस. 5 मई 1918 का नागरिक और सैन्य राजपत्र द्वारा पुनर्प्रकाशित किया गया।
  29. सुमनेर, पी.6
  30. रिदिक, पी.97
  31. सुमनेर, पी.4
  32. साँचा:cite web
  33. सुमनेर, पी.5
  34. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  35. साँचा:cite web
  36. साँचा:cite web
  37. चैपल (2005), पी.11
  38. चैपल (2005), पीपी. 11-12
  39. चैपल (2005), पी.12
  40. होयत, पी.55
  41. होयत, पी.56
  42. मिलर, पी. 72.
  43. साँचा:cite web
  44. साँचा:cite web
  45. कर्श, पी.327
  46. "ब्रिटिश साम्राज्य के सैन्य प्रयास के आंकड़े" (लंदन: एचएमएसओ (HMSO), 1920)
  47. पेरेट, पीपी.24-26
  48. रिनाल्डि, पी.125
  49. साँचा:cite web
  50. पेरी, रोलाण्ड. "मोनेश दी आउटसाइडर हू वन ए वार" पी211
  51. हेथोर्नथ्वैत, पी.55
  52. हेथोर्नथ्वैत, पी.73
  53. साँचा:cite web
  54. विलमोट, पी.91
  55. हौप्ट वर्नर, पी.147
  56. साँचा:cite news
  57. साँचा:cite web
  58. साँचा:cite web
  59. London Gazette: (Supplement) no. 28999, p. 10425, 4 दिसम्बर 1914. Retrieved 2009-08-02.
  60. साँचा:cite web
  61. लंदन राजपत्र 4 सितम्बर 1919
  62. London Gazette: (Supplement) no. 29240, p. 7279, 23 जुलाई 1915. Retrieved 26 नवम्बर 2007.
  63. साँचा:cite news
  64. London Gazette: no. 29210, p. 6269, 1915-06-29. Retrieved 2008-08-14.
  65. साँचा:cite web
  66. लंदन राजपत्र 27 जुलाई 1945
  67. लंदन राजपत्र 21 जून 1916
  68. लंदन राजपत्र 26 सितंबर 1916
  69. लंदन राजपत्र 1 दिसम्बर 1917
  70. London Gazette: (Supplement) no. 30575, p. 7307, 21 जून 1918. Retrieved 2009-03-23.
  71. लंदन गजट 23 सितम्बर 1918
  72. जेफ़री, पी.101
  73. जेफ़री, पी.103
  74. जेफ़री, पी.109
  75. सुमनेर, पी.13
  76. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; su15 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  77. बर्थोर्प, पी.157
  78. बर्थोर्प देखें, पी. 158.
  79. बर्थोर्प, पी.170.
  80. साँचा:cite web

सन्दर्भ

  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  • स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

साँचा:Indian Expeditionary Forces साँचा:navbox