प्रकाशसंदीप्ति
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साँचा:wikifyतंतुवाले दीपक तथा गैस के मैंटल बत्तीवाले दीपक आदि इस कारण प्रकाश उत्सर्जित करते हैं कि उच्च ताप पर तंतु तथा मैंटल में तापदीप्ति (incandescence) उत्पन्न हो जाती है। पर कुछ अन्य विधियाँ भी हैं जिनसे वस्तुएँ प्रकाश उत्सर्जित कर सकती हैं। उदाहरणस्वरूप, कुछ पदार्थो पर अदृश्य पराबैंगनी किरणों के, अदृश्य कैथोड किरणों के, अदृश्य एक्स किरणों के अथवा अदृश्य रेडियोऐक्टिव विकिरण के पड़ने से वे प्रकाश उत्सर्जित करने लगते हैं। कुछ रासायनिक अभिक्रियाओं में भी प्रकाश निकलता है। इस सब प्रभावों को प्रकाशसंदीप्ति के लिये प्राथमिक उत्तेजन कई स्रोतों, जैसे प्रकाश, यांत्रिक तनाव, रासायनिक अभिक्रिया, ऊष्मा, विद्युत् ऊर्जा, नाभिकीय विकिरण आदि, से प्राप्त हो सकता है। नाभिकीय विकिरण द्वारा उत्सर्जित संदीप्ति पदार्थो में उत्तेजन तथा आयनीकरण की क्रिया द्वारा होती है।
प्रतिदीप्ति (Fluorescence)
पदार्थ का वह गुण है जिसके कारण पदार्थ, अन्य स्रोतों से निकले विकिरण को अवशोषित कर तत्काल ही उत्सर्जित कर देता है। ऐसे पदार्थ को प्रतिदीप्त पदार्थ कहते हैं जिससे प्रकाश का उत्सर्जन उसी समय तक रहता है, अथवा उत्तेजक के हटा लेने के 10-8 सेकंड के अंदर तक रहता है। 10-8 सेकंड का काल एक परमाणु की उत्तेजित अवस्था के एक स्वीकार्य अथवा अनुमत संक्रमण (allowed transition) के जीवनकाल को प्रदर्शित करता है।
स्फुरदीप्ति (Phosphorescence)
पदार्थ का वह गुण है जिसके कारण पदार्थ से प्रकाश का उत्सर्जन ज्ञेय ऊष्मा के बिना होता है। ऐसे पदार्थ, जिनसे प्रकाश का उत्सर्जन उत्तेजक विकिरण के समाप्त हो जाने के पश्चात् होता है, 'स्फुरदीप्त पदार्थ' कहलाते हैं। स्फुरदीप्ति विभिन्न पदार्थो में भिन्न भिन्न काल तक बनी रह सकती है तथा यह काल माइक्रोसेकंड (10-6 सेकंड) से लेकर कई घंटों तक का हो सकता है। नाभिकीय गणित्र के लिये केवल लघुकालवाले स्फुरदीप्त पदार्थ ही उपयोगी हैं।
प्रकार
प्रकाशसंदीप्ति के विभिन्न प्रकारों के नाम हैं : (1) विद्युत्प्रकाश संदीप्ति या गैसीय विसर्जन,
(2) प्रकाशसंदीप्ति (विद्युत्च्चुंबकीय किरणों द्वारा उत्तेजन),
(3) कैथोड प्रकाशसंदीप्ति (कैथोड किरणों द्वारा उत्तेजन) तथा
(4) रासायनिक प्रकाशसंदीप्ति।
इनके अतिरिक्त प्रकाशसंदीप्ति के अन्य रूप हैं :
- ऊष्मा-प्रकाश-संदीप्ति तथा घर्षण-प्रकाश-संदीप्ति (चोट अथवा घर्षण द्वारा),
- शीत-प्रकाश-संदीप्ति (ठंड़ा करने से उत्पन्न),
- क्रिस्टलीकरण प्रकाशसंदीप्ति,
- विद्युत् रासायनिक प्रकाशसंदीप्ति तथा
- जैविक प्रकाशसंदीप्ति (जो जैविक क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होती है, यद्यपि इसको भी रासायनिक प्रकाश संदीप्ति का ही अंग माना जाता है। ल्यूसीफ़ेरिन (luciferin) के एंजाइम ल्यूसीफेरेज़ (luciferase) की उपस्थिति में ऑक्सीजन द्वारा ऑक्सीकरण से यह संबंधित है])
प्रकाशसंदीप्ति केवल गैसों में ही नहीं, अपितु ठोसों तथा द्रवों में भी घटित होती है। एक प्रतिदीप्त नली द्वारा उत्सर्जित प्रकाश इन दो प्रकार के प्रकाश संदीप्त प्रभावों का परिणाम है :
- (1) गैसीय विसर्जन द्वारा पारे के वाष्प से छोटी तरंगदैर्ध्यवाली विद्युच्चुंबकीय किरणों का निकलना और
- (2) प्रकाश-संदीप्त पदार्थ द्वारा विद्युच्चुंबकीय किरणों का दृश्य प्रकाश में परिणत होना।
प्रकाशसंदीप्ति का इतिहास तथा ठोसों की प्रकाशसंदीप्ति
प्रतिदीप्त पदार्थो के ज्ञान के बहुत पहले से स्फुरदीप्त पदार्थों का ज्ञान लोगों को रहा है। इसका कारण यह है कि प्रतिदीप्ति का प्रदर्शन पराबैंगनी किरणों की ज्योति के बिना संभव नहीं है, जब कि स्फुरदीप्ति सूर्यप्रकाश से भी प्रेरित हो सकती है। ऐसा कहा जाता है कि लगभग 1000 ई. में एक जापानी पुजारी ने ऑस्टर के छिलकों को गंधक के साथ जलाकर एक रंग बनाया तथा उस रंग से बैल का एक चित्र बनाया था। यह चित्र दिन के प्रकाश में अदृश्य रहता था, पर रात के प्रकाश में चमकता था। यूरोप में स्फुरदीप्त पदार्थो के प्रयोग का प्रारंभ विसंटियस केस्केरिओलस ने किया था। इन्होंने बैराइटीज़ को कार्बन के साथ गरम करके एक ऐसा पदार्थ तैयार किया था जो अँधेरे में चमकता था।
18वीं और 19वीं शती के ग्रंथों में स्फुरदीप्त पदार्थो की चर्चा बराबर पाई जाती है पर केवल 19वीं शती के अंत में ही गंभीरता से इसका अध्ययन करने की ओर लोगों का ध्यान गया।
स्फुरदीप्ति का एक विशेष गुण यह है कि प्रकाशउत्सर्जन का काल ताप पर निर्भर करता है। यदि स्फुरदीप्त पदार्थ से पुती एक पट्टिका को लेकर उसे पराबैंगनी किरणों के समक्ष रखा जाय, ताकि बाद में किरणों का स्रोत हटा लेने पर वह स्फुरदीप्ति उत्पन्न करे और फिर उसे गरम पानी में डुबाया जाय तो देखा जायेगा कि प्रकाश की तीव्रता एकदम बढ़ जाती है और उसके तुरंत बाद ही क्षीण होकर समाप्त हो जाती है। पर यदि उस पट्टिका को तरल वायु के ताप पर ठंढा करके पराबैंगनी किरणों के समक्ष रखा जाय, तो किरणों के हटा लेने के पश्चात् कोई स्फुरदीप्ति उत्पन्न न होगी, पर अब यदि पट्टिका को तरल वायु के ताप से हटा लिया जाय और उसे कमरे के ताप पर रखा जाय तो वह धीरे धीरे प्रकाश निकालने लगेगी। किंतु प्रतिदीप्ति का गुण इससे बिल्कुल भिन्न होता है। यह नीचे ताप पर भी विद्यमान रहती है। ताप के बढ़ने से प्रतिदीप्ति का क्षय होता है। कुछ प्रतिदीप्त पदार्थो में सामान्य से नीचे ताप पर भी क्षय होता है। कुछ प्रतिदीप्त पदार्थो में सामान्य से नीचे ताप पर भी क्षय होता है। कुछ प्रतिदीप्त पदार्थ हैं, जो 4000 सें. के ताप पर भी प्रतिदीप्ति का अध्ययन वुड (Wood) ने सर्वप्रथम क्रमश: 1904 और 1912 ई. में किया था। अनुनादीय प्रतिदीप्ति में उत्सर्जित विकिरण का तरंगदैर्घ्य वही रहता है जो अवशोषित विकिरण का तरंगदैर्घ्य होता है।
स्टोक्स का (Stokes) नियम, उत्तेजन (Excitation) तथा उत्सर्जन (Emission) स्पेक्ट्रम
जब प्रकाश को किसी गैस द्वारा पारित किया जाता है और निकलनेवाली किरणों को स्पेक्ट्रमदर्शी से देखा जाता है तथा कुछ अंधकारपूर्ण या काली लकीरें, जिनकों अवशोषण रेखाएँ कहते हैं, देखी जाती हैं, पर बहुत बार वे अगल बगल प्रकीर्णित हो जाती हैं। इन प्रकीर्णित किरणों का तरंगदैर्घ्य उत्तेजक किरणों के तरंगदैर्घ्य से भिन्न होता है।
1904 ई. में वुड ने खोज निकाला कि सोडियम का वाष्प सोडियम के डी-रेखावाले तरंगदैर्घ्य का ही अवशोषण कर लेता है। और बाद में उसे पुन: उत्सर्जित कर देता है। इसी प्रकार का अध्ययन उन्होंने 1912 ई. में पारे के संबंध में भी किया। पीछे डुनोयर (Dunoyer) ने भी सोडियम का अध्ययन किया। इस प्रभाव को अनुनादीय प्रतिदीप्ति कहते हैं। प्रश्न यह उठता है कि यदि उत्सर्जित तथा अवशोषित किरणों का तरंगदैर्घ्य समान नहीं है, तो फिर उनमें क्या संबंध है ? स्टोक्स ने इस संबंध में एक नियम प्रतिपादित किया जो 'स्टोक्स के नियम' के नाम से ज्ञात है। स्टोक्स का नियम है कि उत्सर्जित विकिरण सदा उत्तेजक विकिरण की अपेक्षा अधिक लंबे तरंगदैर्घ्य का होता है। इस प्रकार परमाणु द्वारा अवशोषित ऊर्जा निष्कासित ऊर्जा की तुलना में सदा अधिक प्रतीत होती है। पर बाद के अध्ययन से सिद्ध हुआ कि यह पूर्णतया सत्य नहीं है, अर्थात् निष्कासित ऊर्जा अवशोषित ऊर्जा से अधिक हो सकती है। ऐसा हो सकता है कि उत्तेजित अवस्था में एक परमाणु दूसरे समान परमाणुओं से टकराकर कुछ ऊर्जा अवशोषित कर ले। इस कारण निष्कासित किरण का तरंगदैर्घ्य उत्तेजक विकिरण के तरंगदैर्घ्य की तुलना में कम होगा।
बहुत से परीक्षण इस बात का पता लगाने के लिये किए गए हैं कि प्रकाशसंदीप्ति की तीव्रता तरंगदैर्घ्य पर किस प्रकार निर्भर करती है। प्रयोगों से ज्ञात हुआ हैं कि प्रकाशसंदीप्ति उस दशा में तीव्रतम होती है जब उत्तेजन किसी निश्चित तरंगदैर्घ्य द्वारा होता है। यदि प्रयुक्त तरंगदैर्घ्य अधिक या कम हो, तो तीव्रता घट जाती है। ऐसी दशा में उत्तेजन स्पेक्ट्रम एक उल्टी घंटी का रूप ले लेता है (देखें चित्र 1.)। यही बात प्रकाशसंदीप्ति के स्पेक्ट्रम की भी है। साधारणतया प्रकाश संदीप्ति के स्पेक्ट्रम का एक निश्चित तरंगदैर्घ्य पर एकशीर्ष होता है। कभी कभी एक से अधिक शीर्ष भी देखे गए हैं।
कभी कभी संदीप्ति स्पेक्ट्रम की छोटी तरंगवाली पूँछ उत्तेजन स्पेक्ट्रम के लंबे तरंगवाले छोर को अधिक ढक लेती है (देखें चित्र 1.)। यह आम नियम नहीं है कि प्रतिदीप्ति की तीव्रता उत्तेजक तरंगदैर्घ्य पर निर्भर करती है पर उनके रंग पर नहीं। तरंगदैर्घ्य 'अ' द्वारा उत्पन्न प्रतिदीप्ति उत्सर्जन इसी कारण से आनेवाले तरंगदैर्घ्य की तुलना में कम तरंगदैर्घ्य का है। अधिक उचित शब्दों में स्टोक्स के नियम का अर्थ यह है कि उत्सर्जन स्पेक्ट्रम का गुरुत्वकेंद्र अवशोषण स्पेक्ट्रम की अपेक्षा अधिक तरंगदैर्घ्य का होता है। अधिकांश दशाओं में दोनों बिल्कुल भिन्न होते हैं।
अनेक वैज्ञानिकों ने इस विषय का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया है। गणितीय दृष्टि से भी इसका अध्ययन हुआ है। कुछ सारणियाँ भी इस संबंध में तैयार की गई हैं, जिनमें प्रतिदीप्ति पदार्थो, जैसे ऐं्थ्राासीन क्रिस्टल, ट्रांसस्टिल्बीन क्रिस्टल, जाइलीन विलयन, पोलीविनाइल टोलूइन विलयन, सोलिस्टाइरीन, सोडियम आयोडाइड, लिथियम आयोडाइड, यशद सल्फाइड आदि के गुणों, घनत्व, अधिकतम उत्सर्जन, क्षयकाल इत्यादि के गुणों का वर्णन मिलता है। इनमें कुछ तो कार्बनिक यौगिकों के क्रिस्टल, कुछ विलयन, कुछ अकार्बनिक पदार्थों के क्रिस्टल और चूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त जीनॉन तथा ठोस द्रव एवं गैस के रूप में कुछ अन्य निष्क्रिय गैसें भी प्रतिदीप्त पदार्थों के रूप में उपयोग में आने लगी हैं।
एक अच्छे प्रतिदीपक (प्रतिदीप्ति उत्पन्न करनेवाला पदार्थ) में निम्नलिखित गुण होना आवश्यक है : आगत ऊर्जा को दृश्य प्रकाश में परिणत करने की उच्च क्षमता; अपने स्वयं के प्रतिदीप्त प्रकाश के लिये पारदर्शिता, प्रतिदीप्त प्रकाश के लिये माइक्रो-सेकंड या उससे भी कम का क्षयकाल तथा प्रतिदीप्ति के स्पेक्ट्रम से उपलब्ध फोटो कैथोडों के स्पेक्ट्रमीय गुणों से मेल खाना। इनके अतिरिक्त उपयोगों के अनुसार रूप, आकार घन्त्व, द्रव्य की अवस्था का चुनाव होता है।
प्रतिदीप्ति और स्फुरदीप्ति के सिद्धांत
इस दृष्टिकोण से हम प्रतिदीपकों को चार वर्गो में बाँट सकते हैं।
1. कार्बनिक क्रिस्टल, 2. कार्बनिक पदार्थो के तरल विलयन, 3. कार्बनिक पदार्थो के ठोस विलयन, 4. अकार्बनिक क्रिस्टल तथा 5. निष्क्रिय गैसें।
कार्बनिक क्रिस्टलीय प्रतिदीपकों के सिद्धांत == ऐसे प्रतिदीपक ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बन होते हैं जिनके अणुओं की संरचना में बेंजीन के वलय रहते हैं। बेंजीन वलयों में अन्य प्रकार के अणु भी विद्यमान रह सकते हैं।
चूँकि कार्बनिक क्रिस्टलों की प्रतिदीप्ति आणविक क्रिया है, इस कारण उसको अणु की स्थैतिक ऊर्जा के द्वारा सरलता से स्पष्ट किया जा सकता है। चित्र 1. में अणु के इलेक्ट्रॉनिक मूलभूत या उत्तेजित स्तर तथा अणु का स्वीकार्य दोलनरूप (mode) दिखाया गया है।
एक आनेवाला उत्तेजन विकिरण अणु को एक इलेक्ट्रॉनिक अवस्था से दूसरे इलेक्ट्रॉनिक अवस्था (अ से अ') को ले जा सकता है। फ्रैंक काँडन सिद्धांत के अनुसार यह स्थानांतरण एक स्थिर अंतर परमाणु दूरी पर होता है। अ' बहुत ही अधिक उत्तेजित दोलन अवस्था है। फालतू ऊर्जा का तुरंत 'जालक दोलनों (lattice vibrations)' के द्वारा ऊष्मा के रूप में क्षय हो जाता है। इस प्रकार अणु स्तर ब से ब' पर पहुँच जाता है।
अब यदि अणु की इस उत्तेजित इलेक्ट्रॉनिक अवस्था से अन्य किसी प्रकार से ऊर्जा का क्षय न हो सके, तब वह अंत में 10-8 सेकंड में (यह काल अनुदोलन काल से कहीं अधिक होता है) पथ ब ब' द्वारा मूलभूत इलेक्ट्रॉनिक स्तर में उतरकर प्रतिदीप्त प्रकाश उत्सर्जित कर देगा। यह प्रकाश निम्नांकित रीतियों द्वारा रूक या 'बुझ' (quench) सकता है : (1) इलेक्ट्रॉनिक उत्तेजित अवस्था से सीधे मूलभूत अवस्था में ऊर्जा का संक्रमण (जैसा स्तर 'ह' पर, जहाँ दोनों इलेक्ट्रॉनीय स्तर सन्निकट हैं) संभव है तथा (2) अणु का विश्लेषण स्तर अ यदि पर्याप्त ऊँचा हो।
कार्बन क्रिस्टल अपने प्रतिदीप्त प्रकाश के लिये प्राय: पारदर्शी होते हैं। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि निष्कासित ऊर्जा अवशोषित ऊर्जा की तुलना में अधिक है। अब तक अध्ययन किए गए विभिन्न कार्बनिक क्रिस्टलों में ऐं्थ्राासीन और ट्रांसस्टिलबीन सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
अकार्बनिक क्रिस्टीलीय प्रतिदीपक का सिद्धांत
अकार्बनिक क्रिस्टल प्राय: ऐल्कली हैलाइड के होते हैं। इनमें अल्प मात्रा में कोई अपद्रव्य (impurity), जो प्रकाशसंदीप्ति के कार्य में उत्तेजक (activator) के रूप में काम करता है, मिला रहता है। संदीप्ति के उत्पन्न होने की प्रणाली ठोसों के बैंड सिद्धांत (Band Theory) के आधार पर उत्तम ढंग से समझी जा सकती है।
क्रिस्टल के विन्यास में एक दूसरे से सुदूर व्यवस्थित आयनों के समूह रहते हैं। ये बैंड बनते हैं। ये अनुमत (allowed) तथा वर्जित (forbidden) ऊर्जाओं के बने होते हैं। इनकी मूल अवस्था (ground state) में इलेक्ट्रॉन भरे रहते हैं। इसे पूरित बैंड (Filled band) कहते हैं। इसके ऊपर एक वर्जित बैंड (Forbidden band) रहता है, जो पूरित बैंड को अर्धपूरित बैंड से पृथक् करता है। अर्धपूरित बैंड उच्चतर ऊर्जा के परमाणुस्तर के चौड़े होने से बनता है। इसके ऊपर एक बैंड रहता है, जिसमें इलेक्ट्रॉन नहीं रहता। इसे 'संवहन बैंड (Conduction band)' कहते हैं। यह परमाणु के आयनीकरण के अनुरूप होता है। किसी परमाणु की लकीरों का चौड़ा होना, उसके आस पास के संयुक्त विद्युत् क्षेत्रों के परमाणु के संयोजकता इलेक्ट्रॉन पर प्रभाव के कारण होता है। यदि जालक के किसी बिंदु पर किसी अपद्रव्य के परमाणु, जैसे ताँबे के परमाणु प्रविष्ट कराए, जायँ, तो उससे ऊर्जावस्था चौड़ी नहीं होगी और विविक्तावस्था (discrete state) में चली जायगी। कुछ परिस्थितियों में बैंडों के बीच संकीर्ण अनुमत स्तर उत्पन्न हो सकता है।
कोई विकिरण, जैसे न्यूक्लीय विकिरण, क्रिस्टल पर गिरकर इलेक्ट्रानों को पूरित बैंड से संवहन बैंड में एक उत्तेजित अवस्था में पहुँचा देता है। जब इलेक्ट्रॉन संवहन बैंड से पूरित बैंड (जो मूलभूत अवस्था है) में लौटते हैं, तो ऊर्जा मुक्त कर देते हैं। वह इलेक्ट्रॉन, जो संवहन बैंड में उत्तेजित होकर पहुँच जाता है, अब सारे क्रिस्टल में घूमता फिरता किसी अपूर्णता (imperfection) के निकट पहुँचकर उस 'अपूर्णता' के ऊर्जास्तर पर आ जाता है। इस नए स्तर से वह वापस वर्जित बैंड में गिरकर विकिरण मुक्त कर सकता है1 यह प्रतिदीप्ति का कारण है। इसके बजाय इलेक्ट्रॉन एक विकिरणहीन (radiationless) क्रिया द्वारा, जैसे तापीय ऊर्जा (thermal energy) या जालक दोलन (lattice vibration) में, अपनी ऊर्जा को खो सकता है1 इस क्रिया को बुझाने की क्रिया (quenching) कहते हैं, क्योंकि यह क्रिया विकिरण के उत्सर्जन को रोकती है।
एक अन्य संभावना इस बात की भी कि उस अपद्रव्य के परमाणु से संबंधित ऊर्जास्तर पर इलेक्ट्रॉन फँस जाय। उस अवस्था को मितस्थायी (metastable) अवस्था कहते हैं। इलेक्ट्रॉन उस समय तक इस मितस्थायी अवस्था में रहता है जब तक उसे उठाकर फिर संवहन बैंड में न पहुँचा दिया जाय। यहाँ से इलेक्ट्रॉन अपनी उर्जा का क्षय ऊपर लिखित क्रियाओं द्वारा कर सकता है। यदि मिस्थायी अवस्था में फँसे रहने के पश्चात् इलेक्ट्रॉन पूरित बैंड में गिरकर विकिरण उत्सर्जित करता है, तो उस प्रभाव को 'स्फुरदीप्ति' कहते हैं।
क्रिस्टल में थोड़ी थोड़ी मात्रा में उचित अपद्रव्य के परमाणुओं को डालने से वे परमाणु प्रतिदीप्तिकेंद्रों का कार्य करने लगते हैं। इन अपद्रव्यों को 'सक्रियकारक' (activator) कहते हैं। कुछ अकार्बनिक प्रतिदीप्तिकों के अपने सक्रियकारकों सहित उदाहरण हैं : थैलियम मिला सोडियम आयोडाइड, टिन मिला लीथियम आयोडाइड तथा चाँदी मिला जिंक सल्फाइड।
गैसीय प्रतिदीपक
गैसीय प्रतिदीप्त पदार्थो में प्रकाश गैस के अणुओं से आता है, जो अवशोषित कणों के स्वयं से होकर गुजरने के कारण उत्तेजित तथा आयनीकृत हो जाते हैं। उत्कृष्ट गैसों (noble gases) का इस दृष्टिकोण से विशेष रूप से अध्ययन किया गया है। नॉर्थार्प और नोबल्स (Northorp and Nobles) के विवरणों से पता लगता है कि इस काम के लिये जीनॉन (Zenon) सबसे अधिक उपयोगी मालूम पड़ता है।
प्रत्येक उत्तेजित परमाणु या आयन अपनी मूल अवस्था में लगभग 10-9 सेकंड के भीतर एक या अधिक फोटॉन उत्सर्जित कर देता है। इस प्रकार एक तेज प्रकाशस्पंद (fast light pulse) उत्पन्न हो जाता है। मुख्यतया यह प्रकाश पराबैंगनी क्षेत्र में होता है। प्रकाश फोटॉन के प्रकाशइलेक्ट्रॉन में परिवर्तन की क्षमता बहुत कम रहती है। इस कारण क्षमता बढ़ाने के लिये कई विधियाँ उपयोग में लाई जाती हैं, जैसे कोष्ठक की दीवारों पर एक माध्यमिक प्रतिदीप्त पदार्थ, टेट्राफिनाइल न्यूटाडाइन या क्वार्टर फिनाइल, की पर्त लगा दी जाती है, ताकि तरंगदैर्घ्य दूर पराबैंगनी से ऐसे तरंग दैर्घ्य में खिसक आए जो फोटोकैथोड की स्पेक्ट्रम ग्राहिता से मेल खाए।
हाल ही में ज़ीनॉन के तरल और ठोस रूप का अध्ययन किया गया है। ठोस जीनॉन का क्षयकाल बहुत अल्प (10-2 माइक्रो सेकंड से भी कम) है।
कार्बनिक द्रव प्रतिदीपक
कार्बनिक द्रव प्रतिदीपकों के सिद्धांत तथा गुण का अध्ययन कालमान तथा फर्स्ट (Kallmann and Furst) ने किया है। ये पदार्थ ऐसे ठोस कार्बनिक प्रतिदीपक हैं। जिन्हें कार्बनिक विलायकों में घुलाया गया है। विभिन्न प्रकार के विलेयों (solutes) का परीक्षण किया गया है। इनमें सबसे अधिक संतोषजनक पैरा-टरफेनिल (P-terphenyl), डाइफेनिल ऑक्सेज़ोल तथा टेट्राफेनिल ब्युटाडाईन तथा विलायकों में जाइलीन, टॉलूईन, तथा फेनिल साइक्लोहेक्सेन पाए गए हैं।
जैसे जैसे विलेय की सांद्रता कम मात्रा से आरंभ करके बढ़ाई जाती है वैसे वैसे प्रतिदीप्ति बढ़ती जाती है। संतृप्त पहुँचने के पहले यह एक चौड़े महत्तम शीर्ष से गुजरता है। अधिकतम प्रतिदीप्ति के लिये पैराटरफेनिल का टॉलूईन में सांद्रण 5 ग्राम प्रति लिटर है।
विलायक में जो उत्तेजन आगत न्यूक्लीय विकिरण के द्वारा होता है वह उत्तेजन तुरंत बुझने के पहले ही विलेय को स्थानांतरित हो जाता है। उत्तेजन ऊर्जा का पतन होकर विलेय द्वारा उसका अवशोषण हो जाता है। बाद में वही उर्जा इस विलेय के अभिलक्षण के प्रतिदीप्त विकिरण के रूप में प्रकीर्णित हो जाती है। उत्तेजन के विलायक से विलेय के अणुओं में स्थानांतरण की विधि स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। कालमान तथा फर्स्ट फोटान की ऊर्जा के स्थानांतरण के सिद्धांत को ठीक नहीं मानते। वे एक दूसरे सिद्धांत को ही ठीक मानते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार अणुओं में क्वांटम यांत्रिकी अनुनाद (Quantum Mechanical Resonance) के कारण ऊर्जा का विनिमय (exchange) होता है। इसके विपरीत बर्क्स (Birks) का मत है कि ऊर्जा का स्थानांतरण फोटॉन द्वारा ही होता है और प्रतिदीप्ति में विलायक के अणुओं के महत्व पर जोर देते हैं।
ठोस विलयनों में प्रतिदीप्ति का सिद्धांत
कार्बनिक पदार्थो के ठोस विलयन, जैसे पॉलिस्टाइरिन में टरफेनिल का अध्ययन स्वाँक तथा बक ने किया है। इन्होंने इसकी प्रतिदीप्ति क्रिस्टलीय ऐंथ्रासीन की प्रतिदीप्ति की क्षमता का 38% पाई है। इन लोगों के मतानुसार सबसे अच्छा पदार्थ 1,1,4, 4- टेट्राफेनिल, 1, 3-व्यूटाडाईन का एक ग्राम पॉलवाइनिल टोलूईन के 100 ग्राम में घुला हुआ है।
ठोस तथा तरल विलयनों में प्रतिदीप्ति की उत्पत्ति की प्रणाली समान प्रतीत होती है और दोनों के लिये विलेय तथा विलायक समान रूप से ही कार्य करते प्रतीत होते हैं। पर विलायक से विलेय में ऊर्जा स्थानांतरण की प्रणाली में अंतर हो सकता है। स्वाँक ने सिद्ध किया है कि विकिरण द्वारा ऊर्जा का स्थानांतरण असंभाव्य प्रतीत होता है, पर इस संबंध में अभी तक पर्याप्त प्रयोगात्मक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।