परिश्रवण

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रोगी के पेट का परिश्रवण करता हुआ एक चिकित्सक

शरीर के अंदर निरंतर होनेवाली ध्वनियों के सुनने की क्रिया को परिश्रवण (Auscultation) कहते हैं। इस शब्द का प्रयोग चिकित्सा विज्ञान में किया जाता है। रोगनिदान में इस क्रिया से बहुत सहायता मिलती है। शरीर के अन्दर की ध्वनियों को सुनने के लिए प्रायः आला (stethoscope) का उपयोग किया जाता है।

इस कला के बढ़ते हुए प्रयोग का श्रेय लेनेक (Laenec) को मिलना चाहिए, जिन्होंने सन् १८१९ में परिश्रवण यंत्र का आविष्कार किया। इस यंत्र के आविष्कार के पहले ये ध्वनियाँ कान से सुनी जाती थीं। आधुनिक परिश्रवण यंत्र ध्वनि के भौतिक गुणों पर आधृत है। इसमें कानों में लगनेवाला भाग धातु का होता है और लगभग १० इंच लंबी रबर की नलियों द्वारा वक्षगोलक (chestpiece) से जुड़ा रहता है।

चिकित्सक इस यंत्र द्वारा हृदय, श्वास और अँतड़ियों की ध्वनि सुनते हैं। सामान्यत: हृदय जब सिकुड़ता है तो लब्ब ध्वनि होती है और फिर जब वह फैलता है तो डब ध्वनि होती है, जिन्हें क्रमश: प्रथम और द्वितीय हृदयध्वनि कहते हैं। बीमारी में अन्य प्रकार की ध्वनियाँ और 'मर मर' ध्वनि सुनाई देती है। हवा फेफड़े में जाते और निकलते समय ध्वनि करती है, जिसे श्वासध्वनि कहते हैं। फेफड़े की बीमारियों में इस ध्वनि में परिवर्तन हो जाता है और दूसरे ढंग की ध्वनि भी सुनाई देने लगती है, जिसे रोंकाई या क्रेपिटेशन (crepitation) कहते हैं। अँतड़ियों की ध्वनि की 'बारबोरिज्म' कहते हैं। यदि यह न सुनाई दे तो अँतड़ियों का अवरोध या पेरिटोनियम की सुजन का निदान समझना चाहिए। परिश्रवण यंत्र की सहायता से भ्रूणहृदय की ध्वनि तथा धमनियों की 'मरमर' ध्वनि भी सुनी जा सकती है। इसकी सहायता से ही 'रक्तचाप' की माप की जाती है।

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