पद्मपादाचार्य
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श्री पद्मपादाचार्य (सनन्दन)
पद्मपादाचार्य आदि शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे। इनका बचपन का नाम सनंदन था। द्रविड़ देश के कावेरी तटवर्ती चोल देशीय सनन्दन नामक ब्राह्मण नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। वह श्रीरंगम में तीर्थयात्रा करते हुए मामा के घर पहुंचे। कुछ दिग्विजय ग्रंथों में इन्हें विष्णु का अंशावतार तथा कुछ में अरुण का अंशावतार कहा गया है। ये सनन्दन ही बाद में पद्मपादाचार्य हुए।
माधवीय दिग्विजय में पद्मपादाचार्य के पिता का नाम अरुण और माता का नाम विमला कहा गया है। कहीं-कहीं शास्त्रों में जैसे वायु तथा रुद्र के मिश्रित अंश से हनुमान जी को कहा है , वैसे ही इनको भी विष्णु और अरुण के अंश से बताया है।
सदानंदीय दिग्विजय नामक ग्रंथ में इन्हें चन्द्रमा का अंश, चिद्विलासीय ग्रंथ में लिखा है कि इनका जन्म अहोविल क्षेत्र में पिता माधव तथा माता लक्ष्मी के यहां हुआ था।
ग्रंथ के अनुसार पद्मपादाचार्य के माता पिता ने नृसिंह भगवान की आराधना करके स्वप्न में नृसिंह भगवान के दर्शन किये। उन्होंने वरदान दिया कि मेरे अंश से तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी।
गोविंदनाथीय दिग्विजय ग्रंथ के अनुसार श्रीकुण्ड ग्राम में सोमशर्मा ही नृसिंह भगवान की कृपा से सनन्दन के रूप में अवतरित हुए थे। पद्मपादाचार्य के अलावा विष्णु शर्मा भी इनका अन्य नाम था।
पद्मपादाचार्य तीर्थयात्रा करते हुए काशी पहुँचे, आचार्य शंकर को देखते ही चरणों में गिर पड़े।
आचार्य शंकर ने उठाकर पूछा, "तुम कौन हो ? , घर कहाँ है?, कहाँ से आये हो?, बालक होने पर भी बुद्धिमान दिखते हो।"
इन्होंने कहा---- "मैं चोल देश से आया हूँ, मुझपर कृपा करो।
मेरे गुण, दोषों पर विचार न करके मुझे अपनाओ।"
कहते हैं कि वैदिक सनातन धर्म का प्रचार करने के लिए शिव आज्ञा प्राप्त करके अन्य देवता भी भगवान् शंकराचार्य के शिष्य के रूप में अवतरित हुये हैं।
शंकराचार्य जी के उपलब्ध ग्रंथों में वर्णन है कि ब्रह्मा मण्डन मिश्र के रूप में, दुर्वासा ऋषि के श्राप से सरस्वती उभयभारती के रूप में, स्वामी कार्तिक कुमारिल भट्ट के रूप में, देवगुरु बृहस्पति हस्तामलकाचार्य के रूप में, अग्नि त्रोटकाचार्य के रूप में और इंद्र महाराज सुधन्वा के रूप में अवतरित हुए थे।
भगवत्पाद के प्रमुख चार शिष्यों के अतिरिक्त समित्पाणि, चिद्विलास, ज्ञानकन्द, विष्णुगुप्त, शुद्धकीर्ति, भानुमारीचि, कृष्णदर्शन, बुद्धिवृद्धि, विरंचिपाद, शुद्धानंद आदि अनेकों शिष्य थे।
पद्मपादाचार्य नाम के पीछे एक कथा छुपी हुई है जिसके अनुसार जब बचपन में पद्मपादाचार्य शंकराचार्य जी के पास शिक्षा लेने के उद्देश्य से गए थे तब उन्होंने कहा -- "मैं सनन्दन हूँ।"
इनको गंगातट पर आचार्यपाद ने संन्यास दीक्षा दी।
सनन्दन को दीक्षा देने के अनन्तर आचार्य ने शारिरिक भाष्य पढ़ाना आरम्भ किया।
अनेकों शिष्यों के साथ सनन्दन अध्ययन करने लगे। सनन्दन शंकराचार्य के परम प्रिय शिष्य थे, जो गुरु के ज्ञान में आकंठ डूबे रहते थे। सनन्दन को गुरु पर अटूट विश्वास था।
एक दिन काशी में गंगा के उस पार सनन्दन खड़े थे।
आचार्य ने उन्हें भाष्य पढ़ने के लिए पुकारा।
गंगा जी के उस पार से इस पार तक आने के लिए नौका या पुल नहीं था।
गुरु आज्ञा प्राप्त होते ही वे गंगा में डूबने की गम्भीरता पर बिना विचार किये शीघ्रता से गंगा पार करने के लिये गुरु का नाम लेकर जल पर पैर रखने लगे।
भगवती गंगा उनकी गुरुभक्ति देखकर जहां भी जल पर वे चरण रखते थे, वहां कमल पैदा कर देती थी। आश्चर्य था कि उसी समय उगा हुआ प्रत्येक कमल उनके शरीर का भार वहन भी कर रहा था। सनन्दन ने कमलों पर पैर रखते हुए गंगा पार करके गुरुजी को प्रणाम किया। उनकी गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर शंकराचार्य ने उनका नाम पद्मपादाचार्य रख दिया।
पद्मपाद आचार्य नेेेेेेे अद्वैत वेदांत केेे क्षेत्र में एक नई दृष्टि दी थी। इन्होंने ब्रह्म एवं अविद्या में आश्रयाश्रयि भाव एवं विषय विषयि भाव स्थापित किया। शंकर दिग्विजय में वर्णित कथा के अनुसार पद्मपादाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखी इसका पूर्व नाम वेदांतडिण्डिम था अब यह पंचपादिका नाम से जानी जाती है। पंचपादिका शांकर वेदांत का एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में पद्मपाद ने शांकर भाष्य के तात्पर्य का तार्किक और अभूतपूर्व विश्लेषण प्रस्तुत किया है।