नरदेव शास्त्री
| नरदेव शास्त्री | |
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| कार्यकाल 1952 से 1957 | |
| राष्ट्रीयता | भारतीय |
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नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ (२१ अक्टूबर सन १८८० -- २४ सितम्बर १९६२), भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आर्यसमाज के कार्यकर्ता, हिन्दी साहित्यकार, पत्रकार एवं राजनेता थे। आप उत्तर प्रदेश की प्रथम विधानसभा सभा में विधायक रहे। 1952 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इन्होंने उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले के 2 - देहरादून (भोगपुर) विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से चुनाव में भाग लिया। [१]
जीवन परिचय
पण्डित नरदेव जी का जन्म २१ अक्टूबर सन १८८० को तत्कालीन हैदराबाद रियासत के शैडम गाँव में हुआ था। आप के पिता का नाम निवास राव तथा माता का नाम श्रीमती कृष्णा बाई था। आपका मूल नाम 'नरसिंह राव' था किन्तु जब आप आर्य समाज के सम्पर्क में आये तो आप ने स्वयं ही अपना नाम बदल कर नरदेव कर लिया किन्तु मित्र मण्डली में आप राव जी के नाम से ही जाने जाते थे।
नरसिंह राव जी की आरम्भिक शिक्षा पुणे में हुई । आरम्भिक शिक्षा पूर्ण कर आपके मन में संस्कृत की उच्च शिक्शा प्राप्ति की इच्छा शक्ति उदय हुई , जिसकी पूर्ति के लिए आप लाहौर के लिए रवाना हो गये। लाहौर रहते हुए आपने सन १९०३ में शास्त्री परीक्षा उतीर्ण की। इस शास्त्री शिक्षा काल में ही आपका सम्पर्क आर्यसमाज से हुआ । लाहौर उस काल में आर्यसमाज का मुख्य केन्द्र था तथा यहां आर्यसमाज के बड़े-बड़े विद्वान आते ही रहते थे। इन विद्वानों से आपका सम्पर्क होता ही रहता था, उनसे चर्चा के अवसर मिलते ही रहते थे। अतः आप शीघ्र ही आर्यसमाज की गतिविधियों में बड़ी रुचि के साथ भाग लेने लगे।
एक संस्कृत का विद्वान ओर वह भी आर्यसमाजी, अतः उसके मन में वेदाध्ययन की इच्छा का होना स्वाभाविक ही है। आप के मन में भी वेद का विस्तार से अधययन करने की इच्छा उत्पन्न हुई । इस इच्छा की पूर्ति के लिए कलकता जाकर वहाँ के वेद के उच्च कोटि के विद्वान सामश्रमी जी से आपने ऋग्वेद की शिक्क्षा का मार्गदर्शन प्राप्त किया । इसी ऋग्वेद की ही वेदतीर्थ परीक्षा आपने कलकता विश्वविद्यालय से उतीर्ण की तथा 'वेदतीर्थ' नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं दिनों में ही आपने व्याकरण, दर्शन तथा साहित्य का भी भली प्रकार से अध्ययन कर इन पर भी पाण्डित्य प्राप्त किया।
कलकता की शिक्षा पूर्ण कर आपकी नियुक्ति गुरुकुल कांगडी में निरुक्त के प्राध्यापक स्वरुप हुई किन्तु १९०६ – १९०७ तक की मात्र थोड़ी सी अवधि ही यहां टिक पाये तथा अगले वर्ष आपने फ़र्रुखाबाद में आचार्य स्वरुप कार्य किया। यह गुरुकुल आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त द्वारा संचालित होता था। यहां भी आप अधिक समय न रुक सके तथा इस १९०८ के वर्ष में ही आप ज्वालापुर आ गये तथा यहां के गुरुकुल महाविद्यालय में नियुक्त हुए। यह स्थान आप को सुहा गया तथा सन १९५७ तक आप ने विभिन्न पदों पर इस गुरुकुल को अपनी सेवाएं दीं। इस गुरुकुल में आप मुख्याध्यापक, आचार्य, मुख्याधिष्ठाता, मन्त्री, उप प्रधान ओर कुलपति आदि प्रायः विभिन्न पदों पर कार्य करते रहे।
आप राजनीति के भी अच्छे खिलाड़ी थे। इस कारण देश के स्वाधीनता अन्दोलन में निरन्तर भाग लेते रहते थे। इस कारण अनेक बार कारावास भी हुआ किन्तु कभी घबराये नहीं। १९४७ में भारत के स्वाधीन होने पर उतर प्रदेश में जो विधानसभा बनाई गयी आप १९५२ से १९५७ तक इस के सदस्य रहे ।
आपकी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यों में अत्यधिक रुचि रही, इसका १९२४ में देहरादून में जो सम्मेलन हुआ, इसके आप स्वागताध्यक्ष थे। इसके भरतपुर अधिवेशन में जिस पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया गया , उसके भी आप अध्यक्ष बनाए गये। सन १९३६ में नागपुर में सम्मेलन हुआ तो आप को दर्शन सम्मेलन का सभापति बनाया गया । कुशल पत्रकार होने के नाते गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर के मासिक मुखपत्र 'भारतोदय' के सम्पादक पं. पद्मसिंह शर्मा थे। आप १९६६ विक्रमी में इसके सह सम्पादक रहे। मुरादाबाद से शंकर नाम से जो मासिक निकलता था, उसके भी आप सम्पादक थे।
कृतियाँ
अपने जीवन काल में आपने अनेक पुस्तकें लिखकर भी देश व आर्य समाज का मार्गदर्शन किया। इन पुस्तकों में ऋग्वेदालोचन, गीताविमर्श, आर्य समाज का इतिहास, पत्र पुष्प , यज्ञे पशुवधो वेदविरुद्धः (यज्ञ में पशुवध वेद विरुद्ध है), सचित्र शुद्बोबोध (जीवन चरित), गुरुकुल महाविद्यालय का इतिहास, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती संक्षिप्त जीवन, याज्ञवल्क्य चरित, कारावास की राम कहानी , अछूत मीमांसा तथा कालगति आदि। इस प्रकार पण्डित जी ने समय समय पर विभिन्न प्रकार से आर्य समाज की सेवा की।
२४ सितम्बर १९६२ ईस्वी को आप इस संसार को त्याग गये।
सन्दर्भ
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