दोराबजी टाटा

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दोराबजी टाटा

सर दोराबजी टाटा (१८५९-१९३३ ई०) जमशेदजी टाटा के सबसे बड़े पुत्र थे।

परिचय

सर दोराबजी जमशेदजी टाटा (१८५९ - १९३३ ई०) जमशेदजी नौसरवान जी के ज्येष्ठ पुत्र थे जो २९ अगस्त १८५९ ई. को बंबई में जन्मे। माँ का नाम हीराबाई था। १८७५ ई. में बंबई प्रिपेटरी स्कूल में पढ़ने के उपरांत इन्हें [इंग्लैंड]] भेजा गया जहाँ दो वर्ष वाद ये कैंब्रिज के गोनविल और कायस कालेज में भरती हुए। १८७९ ई. में बंबई लौटे और तीन वर्ष बाद बंबई विश्वविद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त की।

अपने योग्य और अनुभवी पिता के निर्देशन में आपने भारतीय उद्योग और व्यापार का व्यापक अनुभव प्राप्त किया। पिता की मृत्यु के बाद आप उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करने में जुट गए। 1904 में अपने पिता जमशेदजी टाटा की मृत्यु के बाद अपने पिता के सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया। लोहे की खानों का ज्यादातर सर्वेक्षण उन्हीं के निर्देशन में पूरा हुआ। वे टाटा समूह के पहले चैयरमैन बने और 1908 से 1932 तक चैयरमैन बने रहे। साकची को एक आदर्श शहर के रूप में विकसित करने में उनकी मुख्य भूमिका रही है जो बाद में जमशेदपुर के नाम से जाना गया। 1910 में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा नाईटहुड से सम्मानित किया गया था।

पिता की योजनाओं के अनुसार झारखण्ड में इस्पात का भारी कारखाना स्थापित किया और उसका बड़े पैमाने पर विस्तार भी किया। १९४५ ई. तक वह भारत में अपने ढंग का सबसे बड़ा इस्पात का कारखाना बन गया जिसमें १,२०,००० स्त्री और पुरुष काम करते थे और जिसकी पूँजी ५४,०००,००० पौंड थी।

सर दोराब जी ने एक ओर जहाँ भारत में औद्योगिक विकास के निमित्त पिता द्वारा सोची अनेक योजनाओं को कार्यान्वित किया, वहीं दूसरी ओर समाजसेवा के भी कार्य किए। पत्नी की मृत्य के बाद 'लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट' की स्थापना की जिसका उद्देश्य रक्त संबंधी रोगों के अनुसंधान ओर अध्ययन में सहायता करना था। शिक्षा के प्रति भी इनका दृष्टिकोण बड़ा उदार था। जीवन के अंतिम वर्ष में इन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने नाम से स्थाति ट्रस्ट को सार्वजनिक कार्यों के लिये सौंप दी। यह निधि १९४५ में अनुमानत: २,०००,००० पौंड थी जिसमें से आठ लाख पौंड की धनराशि विभिन्न दान कार्यो में तथा कैंसर के इलाज के लिए स्थापित टाटा मेमोरियल हास्पिटल, टाटा इंस्टिट्यटू ऑव सोशल साइंसेज और टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान के कार्यों में खर्च की जा चुकी है।

अपनी सेवाओं के लिए इन्हें १९१० ई. में 'नाइट' की उपाधि भी मिली। १९१५ में ये इंडियन इंडस्ट्रियल कान्फरेंस के अध्यक्ष हुए, तथा १९१८ ई. तक इंडियन इंडस्ट्रियल कमीशन के सदस्य रहे।

इनका विवाह 1897 में मेहरबाई से हुआ था जिनसे कोई संतान न हुई। उपर्युक्त ट्रस्ट की स्थापना के बाद ये अप्रैल, १९३२ में यूरोप गए। ३ जून १९३२ को किसिंग्रन में इनकी मत्यु हुई। इनका अवशेष इंगलैंड ले जाया गया जहाँ व्रकवुड के पारसी कब्रगाह में पत्नी की बगल में वह दफना दिया गया।

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