देशेर कथा
देशेर कथा (हिन्दी अर्थ : 'देश की बात') महान क्रान्तिकारी विचारक एवं लेखक सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा लिखित क्रांतिकारी बांग्ला पुस्तक है।
सन् 1904 में ‘देशेर कथा’ शीर्षक से प्रकाशित यह पुस्तक ब्रिटिश साम्राज्य में गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और शोषण की यातना में जीती-जागती भारतीय जनता के चीत्कार का दस्तावेज है। मात्र पांच वर्षों में इसके पांच संस्करण की तेरह हजार प्रतियों के प्रकाशन की सूचना से भयभीत अंग्रेज़ों ने सन् 1910 में इस पुस्तक पर पाबंदी लगा दी। भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए यहां की कृषि व्यवस्था कारीगरी और उद्योग-धंधों को तहस-नहस करने और भारतीय नागरिक के संबंध में अवमानना भरे वाक्यों का व्यवहार करने की घटनाओं का प्रमाणिक चित्र यहां उपस्थित है।
सखाराम गणेश देउस्कर ने देश में स्वाधीनता की चेतना के जागरण और विकास के लिए ‘देशेर कथा’ की रचना की थी। यद्यपि उन्होंने कांग्रेस द्वारा संचालित स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन उन्होंने उस आंदोलन की रीति-नीति की आलोचना भी की है। उन्होंने देशेर कथा की भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि ‘‘हमारे आंदोलन भिक्षुक के आवेदन मात्र है। हमलोगों को दाता की करुणा पर एकांत रूप से निर्भर रहना पड़ता है। यह बात सत्य होते हुए भी राजनीति की कर्तव्य-बुद्धि को उद्बोधित करने के लिए पुन: पुन: चीत्कार के अलावा हमारे पास दूसरे उपाय कहां है।’’1 वस्ततु: ‘देशेर कथा’ गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और शोषण की यातना में जीती-मरती भारतीय जनता के चीत्कार की प्रामाणिक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति है।
इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद 'देश की बात' नाम से बाबूराव विष्णु पराड़कर ने लगभग शताब्दीभर पूर्व किया। पहली बार सन् 1908 में मुंबई से तथा उसका परिवर्द्धित संस्करण सन् 1910 में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ।
परिचय
आरंभ में जिस पुस्तक का प्रकाशन और वितरण एक समस्या थी, वह सन् 1905 में बंग-भंग के विरुद्ध स्वदेशी आंदोलन के आरंभ के साथ ही अपूर्व रूप से लोकप्रिय हुई। माधव प्रसाद मिश्र ने सन् 1908 में लिखा था कि ‘जिस पुस्तक के लागत तक के वसूल होने में लेखक को और मुझे आशंका थी उसकी थोड़े ही दिनों में सब प्रतियां बंट गईं। बंगाल के टुकड़े होते ही वहां स्वदेशी आंदोलन उपस्थित हुआ। जिसमें पुस्तक के प्रदीप्त वाक्यों ने भी अपना प्रभाव दिखलाया। यह कहना तो छोटे मुंह बड़ी बात समझी जाएगी कि स्वदेशी आंदोलन इसी पुस्तक का फल है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन की प्रज्जवलित वह्नि में इसने घृताहुति का सा काम अवश्य किया।
बरीसाल के वीर स्वदेश हितैषी बाबू अश्विनी कुमार दत्त ने अपनी कालीघाट वाली वक्तृता में कहा था कि इतने दिनों तक सरस्वती की आराधना करने पर भी बंगालियों को मातृभाषा में वैसा उपयोगी ग्रंथ लिखना न आया जैसा एक परिणामदर्शी महाराष्ट्र युवा ने लिख दिखाया। बंगालियों, इस ग्रंथ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार करो।’’1 बंग-भंग विरोधी आंदोलन को ‘देशेर कथा’ ने अनेक रूपों में प्रभावित किया, उसे शक्ति और गति दी और इस प्रक्रिया में वह स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणादायी पुस्तक बन गई।
देशेर कथा की अपूर्व लोकप्रियता का अंदाज सन् 1904 से 1908 के बीच उसके प्रकाशन के इतिहास से लगाया जा सकता है। महादेव साहा के अनुसार ‘देशेर कथा’ का एक हजार प्रतियों का पहला संस्करण सन् 1904 में छपा। दो हजार प्रतियों का दूसरा संस्करण सन् 1905 में निकला। पुस्तक की मांग को ध्यान में रखकर ठीक चार महीने बाद ही पांच हजार प्रतियों का तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। पुस्तक का दो हजार प्रतियों का चौथा संस्करण सन् 1907 में और तीन हजार प्रतियों का पांचवां संस्करण सन् 1908 में छपा। 1 महज पांच वर्षों में पांच संस्करण और तेरह हजार प्रतियां। इस पुस्तक के प्रकाशन के प्रसंग में एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि लेखक प्रत्येक संस्करण में कुछ नई सामग्री जोड़ता था, जिससे पुस्तक का आकार बढ़ जाता था, किंतु उसकी कीमत नहीं बढ़ाई जाती थी, बल्कि दो बार घटा दी गई।
‘देशेर कथा’ के लिखे जाने की पृष्ठिभूमि की ओर संकेत करते हुए माधव प्रसाद मिश्र ने सन् 1908 में लिखा था, ‘‘जिस समय यह पुस्तक बांग्ला में लिखी गई थी उस समय बंगाल के टुकड़े नहीं हुए थे, स्वदेशी आंदोलन का विचार भी लोगों के जी में नहीं आया था। लार्ड कर्जन के कुचक्रपूर्ण शासन से लोग शंकित हो चुके थे, पर उनकी मोहमयी निद्रा तब तक भी टूटने नहीं पाई थी। बंगाल के शिक्षित लोग आमोद-प्रमोद में लग रहे थे और कितने ही सौंदर्योपासक ‘मूकाभिनय’ का अपूर्व कौतुक कर कृत्रिम रमणीयता का बाजार खोल रहे थे। उपन्यास और नाटकों में शृंगार रस की प्रधानता हो रही थी और बंगाल के बहुत से बड़े आदमियों का समय उसी के आकलन में पूरा हो रहा था। यह किसी को ध्यान भी न था कि उनके देश की कैसी शोच्य दशा हो रही है और आगे कैसा परिवर्तन होनेवाला है।’’2
ऐसे समय में देशेर कथा का लिखा जाना एक वैचारिक विस्फोट की तरह था, जिसने जन-मानस को धक्का देकर चकित करते हुए जगाया। देशेर कथा की अपार लोकप्रियता से अंग्रेजी-राज भयभीत हुआ और 28 सितंबर 1910 को एक विज्ञप्ति निकालकर उसको जब्त कर दिया गया। ‘देशेर कथा’ पर पाबंदी की खबर 30 सितंबर को कुछ दैनिक अखबारों में छपी। हितवादी और हितवार्ता को छोड़कर किसी अन्य पत्र-पत्रिका ने इस प्रतिबंध का प्रतिवाद नहीं किया। हितवादी-पत्रिका में यह छपा कि पंडित सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक ‘देशेर कथा’ पर पाबंदी इस आधार पर लगाई गयी है कि उसमें ऐसी साम्रगी है जिसको पढ़कर पाठकों के मन में सरकार के प्रति अलगाव का भाव पैदा होगा। 3 हितवादी के लेख में सरकार से बहुत से प्रश्न पूछे गए थे, पर सरकार की ओर से उनके उत्तर कभी नहीं दिए गए। ‘देशेर कथा’ के साथ ही देउस्कर की एक और किताब पर भी पाबंदी लगाई थी। वह किताब थी- ‘तिलकेर मुकद्दमा।’ जिस समय ‘देशेर कथा’ पर प्रतिबंध लगा उस समय तक ‘देशेर कथा’ का हिन्दी अनुवाद ‘देश का बात’ से प्रकाशित हो चुका था। हितवादी के लेख में यह भी लिखा गया है कि ‘देश की बात’ पर पाबंदी नहीं लगाई गई है।
'देशेर कथा' का हिन्दी अनुवाद
हिन्दी में ‘देशेर कथा’ के अनुवाद की कहानी बहुत दिलचस्प है। माधव प्रसाद मिश्र ने ‘देशेर कथा’ के बांग्ला में प्रकाशन में लेखक की मदद की थी। उन्होंने पहले संस्करण के प्रकाशित होते ही उसका हिन्दी में अनुवाद प्रारंभ कर दिया था। उसके कुछ अंशों का अपना अनुवाद कलकत्ता की एक हिन्दी पत्रिका वैश्योपकार में छपवाया भी था, किंतु उस समय पूरी पुस्तक का अनुवाद न हो सका। बाद में अमृत लाल चक्रवर्ती ने ‘देशेर कथा’ के हिन्दी अनुवाद का काम पूरा किया। उस समय अमृत लाल चक्रवर्ती 'श्री वेंकटेश्वर समाचार' नामक पत्रिका के संपादक थे। सन् 1908 में ‘देश की बात’ नाम से ‘देशेर कथा’ का पहला हिन्दी अनुवाद बंबई से प्रकाशित हुआ, जिसकी सुचिंतित भूमिका माधव प्रसाद मिश्र ने लिखी है। ‘देशेर कथा’ का यह अनुवाद हिन्दी में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। श्री वेंकटेश्वर समाचार अपने ग्राहकों को कुछ पुस्तकें उपहार के रूप में दिया करता था, उनमें एक पुस्तक ‘देश की बात’ भी थी। हिन्दी क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सत्यभक्त जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि ‘देश की बात’ परम देशभक्त सखाराम गणेश देउस्कर लिखित बंगाली भाषा के ‘देशेर कथा’ का अनुवाद था। इस पुस्तक ने हमको आरंभ में देशभक्ति की पर्याप्त प्रेरणा दी इसमें संदेह नहीं।
हिन्दी में 'देश की बात' को लोकप्रियता के स्वरूप का अनुमान इस बात से होता है कि माधव प्रसाद मिश्र के भाई और अपने समय के जाने-माने कवि राधाकृष्ण मिश्र ने ‘देश की बात’ पर एक कविता लिखी थी। उस कविता का एक अंश माधव प्रसाद मिश्र ने ‘देश की बात’ के मुखबंध के आरंभ में उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है :
- पाठकगण ! निज हृदय खोलकर, पढ़ो देश अपने की बात,
- निर्दयता से हुआ किस तरह पुण्यभूमि भारत का घात।
- शोक सिंधु में डूब न रहना, रखना मन में भारी धीर,
- वही वीर जननी का जाया, हरै सदा जो उसकी पीर।
इस कविता का शेष अंश श्री नारायण चतुर्वेदी ने अपनी पु्स्तक ‘आधुनिक हिन्दी का आदिकाल’ में अपनी याददाश्त से उद्धृत किया है।