दार्जिलिंग
दार्जिलिङ দার্জিলিং | |
— नगर — | |
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०) | |
देश | साँचा:flag |
राज्य | पश्चिम बंगाल |
सभापति | प्रतिभा राई |
जनसंख्या • घनत्व |
१०७,५३० (साँचा:as of) • ८५४८ |
क्षेत्रफल • ऊँचाई (AMSL) |
१०५७ कि.मी² • २१३४ मीटर |
साँचा:collapsible list |
दार्जिलिङ भारत के राज्य पश्चिम बंगाल का एक नगर है। यह नगर दार्जिलिंग जिले का मुख्यालय है। यह नगर शिवालिक पर्वतमाला में लघु हिमालय में अवस्थित है। यहां की औसत ऊँचाई २,१३४ मीटर (६,९८२ फुट) है।
दार्जिलिङ शब्द की उत्त्पत्ति दो तिब्बती शब्दों, दोर्जे (बज्र) और लिंग (स्थान) से हुई है। इस का अर्थ "बज्रका स्थान है।"[१] भारत में ब्रिटिश राज के दौरान दार्जिलिङ की समशीतोष्ण जलवायु के कारण से इस जगह को पर्वतीय स्थल बनाया गया था। ब्रिटिश निवासी यहां गर्मी के मौसम में गर्मी से छुटकारा पाने के लिए आते थे।
दार्जिलिंग अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यहां की दार्जिलिङ चाय के लिए प्रसिद्ध है। दार्जिलिंग की दार्जिलिङ हिमालयन रेलवे एक युनेस्को विश्व धरोहर स्थल तथा प्रसिद्ध स्थल है। यहां की चाय की खेती १८५६ से शुरु हुई थी। यहां की चाय उत्पादकों ने काली चाय और फ़र्मेण्टिङ प्रविधि का एक सम्मिश्रण तैयार किया है जो कि विश्व में सर्वोत्कृष्ट है।[२] दार्जिलिङ हिमालयन रेलवे जो कि दार्जिलिङ नगर को समथर स्थल से जोड़ता है, को १९९९ में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था। यह वाष्प से संचालित यन्त्र भारत में बहुत ही कम देखने को मिलता है।
दार्जिलिङ में ब्रिटिश शैली के निजी विद्यालय भी है, जो भारत और नेपाल से बहुत से विद्यार्थियों को आकर्षित करते हैं। सन १९८० की गोरखालैंड राज्य की मांग इस शहर और इस के नजदीक का कालिम्पोंग के शहर से शुरु हुई थी। अभी राज्य की यह मांग एक स्वायत्त पर्वतीय परिषद के गठन के परिणामस्वरूप कुछ कम हुई है। हाल की दिनों में यहाँ का वातावरण ज्यादा पर्यटकों और अव्यवस्थित शहरीकरण के कारण से कुछ बिगड़ रहा है।
परिचय
इस स्थान की खोज उस समय हुई जब आंग्ल-नेपाल युद्ध के दौरान एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी सिक्किम जाने के लिए छोटा रास्ता तलाश रही थी। इस रास्ते से सिक्िकम तक आसान पहुंच के कारण यह स्थान ब्रिटिशों के लिए रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण था। इसके अलावा यह स्थान प्राकृतिक रूप से भी काफी संपन्न था। यहां का ठण्डा वातावरण तथा बर्फबारी अंग्रेजों के मुफीद थी। इस कारण ब्रिटिश लोग यहां धीरे-धीरे बसने लगे।
प्रारंभ में दार्जिलिंग सिक्किम का एक भाग था। बाद में भूटान ने इस पर कब्जा कर लिया। लेकिन कुछ समय बाद सिक्किम ने इस पर पुन: कब्जा कर लिया। परंतु १८वीं शताब्दी में पुन: इसे नेपाल के हाथों गवां दिया। किन्तु नेपाल भी इस पर ज्यादा समय तक अधिकार नहीं रख पाया। १८१७ ई. में हुए आंग्ल-नेपाल में हार के बाद नेपाल को इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा।
अपने रणनीतिक महत्व तथा तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के कारण १८४० तथा ५० के दशक में दार्जिलिंग एक युद्ध स्थल के रूप में परिणत हो गया था। उस समय यह जगह विभिन्न देशों के शक्ित प्रदर्शन का स्थल बन चुका था। पहले तिब्बत के लोग यहां आए। उसके बाद यूरोपियन लोग आए। इसके बाद रुसी लोग यहां बसे। इन सबको अफगानिस्तान के अमीर ने यहां से भगाया। यह राजनीतिक अस्थिरता तभी समाप्त हुई जब अफगानिस्तान का अमीर अंगेजों से हुए युद्ध में हार गया। इसके बाद से इस पर अंग्रेजों का कब्जा था। बाद में यह जापानियों, कुमितांग तथा सुभाषचंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की भी कर्मस्थली बना। स्वतंत्रता के बाद ल्हासा से भागे हुए बौद्ध भिक्षु यहां आकर बस गए।
वर्तमान में दार्जिलिंग पश्िचम बंगाल का एक भाग है। यह शहर ३१४९ वर्ग किलोमीटर में क्षेत्र में फैला हुआ है। यह शहर त्रिभुजाकर है। इसका उत्तरी भाग नेपाल और सिक्किम से सटा हुआ है। यहां शरद ऋतु जो अक्टूबर से मार्च तक होता है। इस मौसम यहां में अत्यधिक ठण्ड रहती है। यहां ग्रीष्म ऋतु अप्रैल से जून तक रहती है। इस समय का मौसम हल्का ठण्डापन लिए होता है। यहां बारिश जून से सितम्बर तक होती है। ग्रीष्म काल में ही यहां अधिकांश पर्यटक आते हैं।
मुख्य आकर्षण
यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनी पुराने समय की याद दिलाती हैं। आप यहां कब्रिस्तान, पुराने स्कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है।
सक्या मठ
यह मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सक्या मठ सक्या सम्प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण मठ है। इस मठ की स्थापना १९१५ ई. में की गई थी। इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है। इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ्ा ६० बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं।
ड्रुग-थुब्तन-सांगग-छोस्लिंग-मठ
11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्यु १९६० ई. में हो गई थी। इन्हीं के याद में इस मठ की स्थापना १९७१ ई. में की गई थी। इस मठ की बनावट तिब्बतियन शैली में की गई थी। बाद में इस मठ की पुनर्स्थापना १९९३ ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था।
माकडोग मठ
यह मठ चौरास्ता से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है। यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ की स्थापना श्री संगे लामा ने की थी। संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे। यह एक छोटा सा सम्प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था। लेकिन बाद में इस सम्प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए। इस मठ का निर्माण कार्य १९१४ ई. में पूरा हुआ था। इस मठ में योलमोवा सम्प्रदाय के लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है।
जापानी मंदिर (पीस पैगोडा)
विश्व में शांति लाने के लिए इस स्तूप की स्थापना फूजी गुरु जो कि महात्मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्तूप हैं। निप्पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य १९७२ ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर १ नवम्बर १९९२ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है।
टाइगर हिल
टाइगर हिल का मुख्य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है। आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। १८३८ से १८४९ ई. तक इसे ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। लेकिन १८५६ ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा जिसे अंगेजों ने एवरेस्ट का नाम दिया था, विश्व की सबसे ऊंची चोटी है। अगर आप भाग्यशाली हैं तो आपको टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं। इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र ८२७ फीट का अंतर है। वर्तमान में कंचनजंघा विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है। कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है। इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इसे इस उपाधि से नवाजा है। इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा सत्यजीत राय की फिल्मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है।
- शुल्क
केवल देखने के लिए नि: शुल्क टावर पर चढ़ने का शुल्क १० रु. टावर पर बैठने का शुल्क ३० रु. यहां तक आप जीप द्वारा जा सकते हैं। डार्जिलिंग से यहां तक जाने और वापस जाने का किराया ६५ से ७० रु. के बीच है।
घूम मठ (गेलुगस्)
टाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्बतियन मठ है। यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी।
इस मठ की स्थापना १८५० ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्तसू द्वारा की गई थी। याल्तसू अपने धार्मिक इच्छाओं की पूर्त्ति के लिए १८२० ई. के करीब भारत में आए थे। इस मठ में १९१८ ई. में बुद्ध की १५ फीट ऊंची मूर्त्ति स्थापित की गई थी। उस समय इस मूर्त्ति को बनाने पर २५००० रु. का खर्च आया था। यह मूर्त्ति एक कीमती पत्थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है। इस मठ में बहुमूल्य ग्रंथों का संग्रह भी है। ये ग्रंथ संस्कृत से तिब्बतीयन भाषा में अनुवादित हैं। इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है। हिल कार्ट रोड के निकट समतेन चोलिंग द्वारा स्थापित एक और जेलूग्पा मठ है। समय: सभी दिन खुला। मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है।
भूटिया-बस्ती-मठ
यह डार्जिलिंग का सबसे पुराना मठ है। यह मूल रूप से ऑब्जरबेटरी हिल पर १७६५ ई. में लामा दोरजे रिंगजे द्वारा बनाया गया था। इस मठ को नेपालियों ने १८१५ ई. में लूट लिया था। इसके बाद इस मठ की पुर्नस्थापना संत एंड्रूज चर्च के पास १८६१ ई. की गई। अंतत: यह अपने वर्तमान स्थान चौरासता के निकट, भूटिया बस्ती में १८७९ ई. स्थापित हुआ। यह मठ तिब्बतियन-नेपाली शैली में बना हुआ है। इस मठ में भी बहुमूल्य प्राचीन बौद्ध सामग्री रखी हुई है।
यहां का मखाला मंदिर काफी आकर्षक है। यह मंदिर उसी जगह स्थापित है जहां भूटिया-बस्ती-मठ प्रारंभ में बना था। इस मंदिर को भी अवश्य घूमना चाहिए। समय: सभी दिन खुला। केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है।
तेंजिंगस लेगेसी
हिमालय माउंटेनिंग संस्थान की स्थापना १९५४ ई. में की गई थी। ज्ञातव्य हो कि १९५३ ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था। तेंजिंग कई वर्षों तक इस संस्थान के निदेशक रहे। यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। इस गैलेरी में एवरेस्टे से संबंधित वस्तुओं को रखा गया है। इस संस्थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।
प्रवेश शुल्क: २५ रु.(इसी में जैविक उद्यान का प्रवेश शुल्क भी शामिल है) टेली: ०३५४-२२७०१५८ समय: सुबह १० बजे से शाम ४:३० बजे तक (बीच में आधा घण्टा बंद)। बृहस्पतिवार बंद।
जैविक उद्यान
पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्थान के दायीं ओर स्थित है। यह उद्यान बर्फीले तेंडुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्बतियन भेडिया को भी देख सकते हैं।
मुख्य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्पतिक उद्यान है। इस उद्यान को यह नाम मिस्टर डब्ल्यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है। लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्होंने १८७८ ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी। इस उद्यान में ऑर्किड की ५० जातियों का बहुमूल्य संग्रह है। समय: सुबह ६ बजे से शाम ५ बजे तक।
इस वानस्पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम है। इस म्यूजियम की स्थापना १९०३ ई. में की गई थी। यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्न किस्मों को संरक्षति अवस्था में रखा गया है।
समय: सुबह १० बजे से शाम ४: ३० बजे तक। बृहस्पतिवार बंद।
तिब्बतियन रिफ्यूजी कैंप
तिब्बतियन रिफ्यूजी स्वयं सहयता केंद्र (टेली: ०३५४-२२५२५५२) चौरास्ता से ४५ मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस कैंप की स्थापना १९५९ ई. में की गई थी। इससे एक वर्ष पहले १९५८ ईं में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था। इसी कैंप में १३वें दलाई लामा (वर्तमान में१४ वें दलाई लामा हैं) ने १९१० से १९१२ तक अपना निर्वासन का समय व्यतीत किया था। १३वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्नावस्था में है।
आज यह रिफ्यूजी कैंप ६५० तिब्बतियन परिवारों का आश्रय स्थल है। ये तिब्बतियन लोग यहां विभिन्न प्रकार के सामान बेचते हैं। इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं। लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें। यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है।
ट्वॉय ट्रेन
इस अनोखे ट्रेन का निर्माण १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था। डार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्चर्यजनक नमूना है। यह रेलमार्ग ७० किलोमीटर लंबा है। यह पूरा रेलखण्ड समुद्र तल से ७५४६ फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस रेलखण्ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। यह रेलखण्ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों तथा वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है। लेकिन इस रेलखण्ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप है। इस जगह रेलखण्ड आठ अंक के आकार में हो जाती है।
अगर आप ट्रेन से पूरे डार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से डार्जिलिंग स्टेशन से घूम मठ तक जा सकते हैं। इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं। इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को। अन्य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है।
चाय उद्यान
डार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था। चाय के लिए ही डार्जिलिंग विश्व स्तर पर जाना जाता है। डॉ॰ कैम्पबेल जो कि डार्जिलिंग में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग १८३० या ४० के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था। ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने १८८० के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था। बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था। बारेन बंधओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान (टेली: ०३५४-२२७६७१२) के नाम से जाना जाता है।
चाय का पहला बीज जो कि चाइनिज झाड़ी का था कुमाऊं हिल से लाया गया था। लेकिन समय के साथ यह डार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। १८८६ ई. में टी. टी. कॉपर ने यह अनुमान लगाया कि तिब्बत में हर साल ६०,००,००० lb चाइनिज चाय का उपभोग होता था। इसका उत्पादन मुख्यत: सेजहवान प्रांत में होता था। कॉपर का विचार था कि अगर तिब्बत के लोग चाइनिज चाय की जगह भारत के चाय का उपयोग करें तो भारत को एक बहुत मूल्यावान बाजार प्राप्त होगा। इसके बाद का इतिहास सभी को मालूम ही है।
स्थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण डार्जिलिंग चाय की गणवता उत्तम कोटि की होती है। वर्तमान में डार्जिलिंग में तथा इसके आसपास लगभग ८७ चाय उद्यान हैं। इन उद्यानों में लगभग ५०००० लोगों को काम मिला हुआ है। प्रत्येक चाय उद्यान का अपना-अपना इतिहास है। इसी तरह प्रत्येक चाय उद्यान के चाय की किस्म अलग-अलग होती है। लेकिन ये चाय सामूहिक रूप से डार्जिलिंग चाय' के नाम से जाना जाता है। इन उद्यानों को घूमने का सबसे अच्छा समय ग्रीष्म काल है जब चाय की पत्तियों को तोड़ा जाता है। हैपी-वैली-चाय उद्यान (टेली: २२५२४०५) जो कि शहर से ३ किलोमीटर की दूरी पर है, आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां आप मजदूरों को चाय की पत्तियों को तोड़ते हुए देख सकते हैं। आप ताजी पत्तियों को चाय में परिवर्तित होते हुए भी देख सकते हैं। लेकिन चाय उद्यान घूमने के लिए इन उद्यान के प्रबंधकों को पहले से सूचना देना जरुरी होता है।
चाय
नि:सन्देह यहां से खरीदारी के लिए सबसे बढि़या वस्तु चाय है। यहां आपको कई प्रकार के चाय मिल जाएंगे। लेकिन उत्तम किस्म का चाय आमतौर पर निर्यात कर दिया जाता है। अगर आपको उत्तम किस्म की चाय मिल भी गई तो इसकी कीमत ५०० से २००० रु. प्रति किलो तक की होती है। सही कीमत पर अच्छी किस्म का चाय खरीदने के लिए आप नाथमुलाज माल जा सकते हैं।
चाय के अतिरिक्त दार्जिलिंग में हस्तशिल्प का अच्छा सामान भी मिलता है। हस्तशिल्प के लिए यहां का सबसे प्रसिद्ध दुकान 'हबीब मलिक एंड संस' (टेली: २२५४१०९) है जोकि चौरास्ता या नेहरु रोड के निकट स्थित है। इस दुकान की स्थापना १८९० ई. में हुई थी। यहां आपको अच्छे किस्म की पेंटिग भी मिल जाएगी। इस दुकान के अलावा आप 'ईस्टर्न आर्ट' (टेली: २२५२९१७) जोकि चौरास्ता के ही नजदीक स्थित है से भी हस्तशिल्प खरीद सकते हैं। नोट: रविवार को दुकाने बंद रहती हैं।
आवागमन
- हवाई मार्ग
यह स्थान देश के हरेक जगह से हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है। बागदोगरा (सिलीगुड़ी) यहां का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा (९० किलोमीटर) है। यह दार्जिलिंग से २ घण्टे की दूरी पर है। यहां से कलकत्ता और दिल्ली के प्रतिदिन उड़ाने संचालित की जाती है। इसके अलावा गुवाहाटी तथा पटना से भी यहां के लिए उड़ाने संचालित की जाती है।
- रेलमार्ग
इसका सबसे नजदीकी रेल जोन जलपाइगुड़ी है। कलकत्ता से दार्जिलिंग मेल तथा कामरुप एक्सप्रेस जलपाइगुड़ी जाती है। दिल्ली से गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस यहां तक आती है। इसके अलावा ट्वाय ट्रेन से जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग (८-९ घंटा) तक जाया जा सकता है।
- सड़क मार्ग
यह शहर सिलीगुड़ी से सड़क मार्ग से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। दार्जिलिंग सड़क मार्ग से सिलीगुड़ी से २ घण्टे की दूरी पर स्थित है। कलकत्ता से सिलीगुड़ी के लिए बहुत सी सरकारी और निजी बसें चलती है।
इतिहास
साँचा:main दार्जिलिंग की इतिहास नेपाल, भुटान, सिक्किम और बंगाल से जुडा हुआ है। दार्जिलिंग शब्द तिब्बती भाषा के दो शब्द दोर्जे, जिसका अर्थ ओला या उपल होता है , तथा लिंग जिसका अर्थ स्थान होता है, से मिलकर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ हुआ उपलवृष्टि वाली जगह जो इसके अपेक्षाकृत ठंडे वातावरण का चित्र प्रस्तुत करता है। १९वी शताब्दी के पूर्व तक इस जगह पर नेपाली और सिक्किमी राज्य राज करते थे,[३] with settlement consisting of a few villages of Lepcha woodspeople.[४] १८२८ में एक बेलायती इस्ट इन्डिया कम्पनी की अफ़सरौं की टुकडी ने सिक्किम जाते समय दार्जिलिंग पहुंच गए और इस जगह मैं वेलायती सेना के लिए एक स्यानिटरियम बनाने का संकल्प किया।[५][६] The Company negotiated a lease of the area from the Chogyal of Sikkim in 1835.[३] आर्थर क्याम्पबेल, कम्पनी का एक शल्य चिकित्सक और लेफ़्टिनेन्ट नेपियर (बाद मैं रोबर्ट नेपियर, मग्दाला के प्रथम बेरोन) को यहां पर हिल स्टेसन बनाने की जिम्मेवारी सौंपा गया।
१८४१ मैं बेलायतीऔं ने यहां एक प्रायोगिक चाय कृषि कार्यक्रम की संचालन किया। इस प्रयोग के सफ़लता के कारण यहां १९वी शताब्दी के दुसरी भाग मैं इस सहर मैं चाय बगान लगने लगे।[७] दार्जिलिंग को बेलायतीयौं ने सिक्किम से १८४९ में छिन लिया था[५] इस समय मैं प्रवासी विषेश करके नेपाली लोग को बगान, खेती, निर्माण आदि कार्य संचालन के लिए भर्ती किया गया।[६] स्कटिश मिसिनरीयौं ने यहां विद्यालय की स्थापना और बेलायतीयौं के लिए वेल्फ़ेर सेन्टर की स्थापना किया और यह जगह को विद्या के लिए प्रसिद्ध किया। दार्जिलिंग हिमालयन रेल्वे की १८८१ में स्थापना के बाद यहां की विकास उच्च गति से हुआ। [८] १८९८ मैं दार्जिलिंग मैं एक बड़ा भूकम्प आया (जिसे "दार्जिलिंग डिज्यास्टर" भी कहते है) जिसने सहर और लोगों की बहुत क्षति की।[९][१०]
बेलायती साशन के अधीन मैं दार्जिलिंग पहले तो "नन-रेगुलेसन जिला" था[११]) — लेकिन १९०५ के बंगाल की बिभाजन के बाद से यह राजशाही विभाग के अन्तर्गत में सम्मिलित हो गया।[१२]
भूगोल
दार्जिलिंग की औशत उंचाई २,१३४ मिटर वा ६,९८२ फ़िट है[१३]। यह जगह दार्जिलिंग हिमालयन हिल क्षेत्रमै दार्जिलिंग-जलपहर श्रृंखला मैं अवस्थित है जो दक्षिण मैं घुम, पश्चिम बंगाल से उठ्ता है। यह श्रृंखला Y-आकार की है जिसका जग कतपहर और जलपहर मैं है और दो बाहु में उत्तर मैं अब्जर्भेटरी हिल के उत्तर से जाता है। उत्तर-पूर्वी बाहू लेबोङ मैं अन्त्य होता है। उत्तर-पश्चीमी बाहू नर्थ पोइन्ट से जाकर तक्भेर चाय बगान के नजदीक अन्त्य होता है।[३]
मौसम
दार्जिलिंग की टेम्परेट मौसम मैं ६ ऋतु होते है: बसन्त, गृष्म, शरद अथवा शीत,मानसून। और (शिषिर ऋतु - हेमंत ऋतु)
नागरिक प्रशासन
दार्जिलिंग सहर मैं दार्जिलिंग नगरपालिका और पत्ताबोंग चाय बगान सम्मिलित है।[१४] १८५० में स्थापित दार्जिलिंग नगरपालिका यहां का नागरिक प्रशासन संभालता है, जिसका प्रशासन क्षेत्र १०.५७ वर्ग किलोमिटर (४.०८ वर्ग मील) है।[१४] The municipality consists of a board of councillors elected from each of the 32 wards of Darjeeling town as well as a few members nominated by the state government. The board of councillors elects a chairman from among its elected members;[३] the chairman is the executive head of the municipality. The गोर्खा नेसनल लिबरेसन फ़्रन्ट (GNLF) at present
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- ↑ (Lee 1971)
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15.दार्जिलिंग में ऑफबीट जगहें एक्सप्लोर होने की प्रतीक्षा में