थारू भाषा

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थारू भाषा, थारू समुदाय में बोली जाने वाली भाषा है। यह नेपाल में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। थारू जाति में और भी कई भाषाएँ हैं जो थारू भाषा के समान मानी जाती हैं। इसे सोन्हा, कथरिया, डंगौरा या मुख्य कोचिला भाषा भी कहा जाता है।[१]

नेपाल के पश्चिमी भाग में इन भाषाओं के अलावा पूर्वी थारू समुदाय में चितवानिया थारू भाषा बोली जाती है जो पश्चिमी थारू भाषा से भिन्न है। यह नेपाल में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं के समान है। यह मैथिली, भोजपुरी, बंगाली, आदि के समान प्रतीत होता है, लेकिन अन्य भाषाएं थारू मूल भाषा से विकसित हुई हैं क्योंकि अन्य थारू भाषाएं विकसित हुई हैं और इसलिए हैं सभ्य और परिष्कृत। थारू भाषा में अनेक प्राचीन कृतियाँ हैं और उन्हें कहानी के रूप में संकलित करने की आवश्यकता है।

यद्यपि इंडो-आर्यन के भीतर उनका अपना सटीक वर्गीकरण अनिश्चित बना हुआ है, थारू भाषाओं में अवधी, मैथिली और भोजपुरी जैसी पड़ोसी भाषाओं के साथ सतही समानताएं हैं। कुछ थारू परिवारों का शब्दकोष एक पुरातन, 'स्वदेशी' आधार का संकेत है, जो संभावित रूप से चीन-तिब्बती या इंडो-आर्यन बस्ती से पहले का है। थारू भाषाएं इंडो-आर्यन के संदर्भ में संक्रमणकालीन प्रतीत होती हैं।

थारू भाषा का इतिहास

यद्यपि थारू भाषा का कोई लिखित इतिहास नहीं है किन्तु इसे बहुत पुराना माना जाता है। यह बौद्ध धर्म और प्राचीन पालि भाषा से जुड़ा हुआ है। अधिकांश भाषाएँ समान हैं।

थारू लिपि

काफी पहले जब थारू परिवार समाज की मुख्यधारा से हटकर अलग जीवन-शैली से जीवन बसर करते थे तो इनके रहन-सहन की विलक्षण शैली के साथ ही तीज-त्योहार, नृत्य और पहनावे तो अलग होते ही थे। इनकी भाषा भी सामान्य लोगों से भिन्न थी। थारुओं की खुद की अपनी लिपि थी, जिसमें वह पढ़ते-लिखते और संवाद करते थे। आज भी थारू लिपि पर आधारित पांडुलिपियां थारू जनजाति गांवों में बुजुर्गों के पास मौजूद हैं। बुजुर्गों के हाथ के लिखे थारू लिपि के इश्तिहार उन्हीं के पीढ़ी के युवा न तो पढ़ पाते हैं और न समझ पाते हैं। थारुओं के उत्थान पर काम कर रहे देहात संस्था के जितेंद्र चतुर्वेदी कहते हैं कि थारू लिपि के संरक्षण में सरकार बेपरवाह है। किसी स्तर का शैक्षिक अथवा अनुसंधानगत प्रयास भी नहीं हो पाया है, जिससे पांडुलिपियों को सुरक्षित रखकर इस जनजातीय लिपि को जीवन्त रखा जा सके। फकीरपुरी के थारू जनजाति के 60 वर्षीय रामकुमार कहते हैं कि थारू लिपि में लिखने वाले बुजुर्ग थारू जब दिवंगत होते हैं तो उनकी लिखी पांडुलिपियां भी चिता पर जला दी जाती हैं। इसी के चलते थारू लिपि धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।[२]

सन्दर्भ

  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  2. अपनी पौराणिक लिपि को भूलकर परिवर्तन की इबारत लिख रहे थारू

बाहरी कड़ियाँ