त्यूतन जातियाँ

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त्यूतन जातियाँ (ट्यूटानिक पीपुल्स Teutonic peoples) से यूरोप की उन जनजातियों का बोध होता है जो विभिन्न त्यूतन भाषाओं में से कोई भी एक बोलती हैं; उदाहरणार्थ -- ब्रिटिश द्वीपसमूहों के अंग्रेजी भाषाभाषी लोग; जर्मनी, आस्रिया-हंगरी तथा स्विट्जरलैंड के जर्मन भाषाभाषी लोग; बेल्जियम के फ्लेमिश भाषी निवासी, स्वीडन तथा नार्वे के स्कैडिनेवियन भाषी लोग; हालैंड तथा डेनमार्क के लगभग सभी निवासी; इटली तथा फ्रांस के जर्मन तथा फ्लेमिश भाषाएँ बोलनेवाले अल्पसंख्यक लोग, रूस में निवास करनेवाले जर्मन और स्वीडिश भाषा बोलनेवाले अधिकांश लोग तथा अमरीका, अफ्रीका और आस्ट्रेलेशिया में बसे हुए वे लोग जो मूलत: उपर्युक्त देशों से वहाँ गए।

"जर्मानिक", "गोथिक" आदि संज्ञाओं की तरह ही "ट्यूटानिक" शब्द की उत्पत्ति अब विद्वानों के अनुसंधान का ही विषय रह गई है। सामान्य जन उनके एक ही मूल की बात अब भूल गए हैं। टासिटस के समय में लोगों को इसकी पूरी जानकारी थी। उसने जानपद कविताओं के जो उद्धरण दिए हैं उनमें त्यूतन जातियों के मूल पुरुषों का उल्लेख है। उन कविताओं में "मानुस" नामक एक व्यक्तिविशेष से "जर्मनी" की तीन मुख्य शाखाएँ उत्पन्न हुईं, ऐसा वर्णन है। प्राचीन अंग्रेजी कागज पत्रों में भी इन जातियों के मूल पुरुषों की वंशावलियाँ मिलती हैं।

शारीरिक गठन और रंग की दृष्टि से आज इन जातियों में काफी भिन्नता पाई जाती है। लेकिन ये जातियाँ आज यूरोप की सर्वाधिक ऊँची तथा गोरी जातियाँ हैं। प्रारंभिक काल में ये विशेषताएँ बहुत ही स्पष्ट रहीं होंगी। ऊँचा डीलडौल तथा लंबा चेहरा जो आज यूरोप के सुदूर उत्तर भाग में पाया जाता है वैसा ही स्विट्जरलैंड तथा उसके आसपास के प्रदेशों की पुरानी श्मशान भूमि में गड़े कंकालों तथा खोपड़ियों में पाया जाता है। इन पुराने अवशेषों के आधार पर यह कहा जाता है कि आज की ट्यूटन जातियों तथा उस समय के इनके मूल पुरुषों में बहुत अधिक अंतर नहीं है।

उत्तर प्रस्तरयुग के प्राप्त अवशेषों से इन जातियों के संबंध में अधिक जानकारी नहीं मिलती। लेकिन एल्ब की घाटी, मेक्लेनबुर्ग, हालस्टीन, जुटलैंड, दक्षिण स्वीडन तथा बेल्ट द्वीपों में हुए कांस्य युग संबंधी अनुसंधानों से त्यूतन जातियों की प्रारंभिक सभ्यता पर काफी प्रकाश पड़ता है। कला तथा समृद्धि की दृष्टि से ये लोग उन्नत थे तथा दक्षिणी सभ्यता से इनका व्यापार तथा आदान प्रदान चलता था, ऐसा दिखाई देता है। लौह युग के प्रारंभ से केल्टिक प्रभाव बढ़ता गया और दक्षिणी सभ्यता के केंद्रों से त्यूतन लोगों का संबंध धीरे धीरे टूटता गया।

परंपरा

जर्मनी, हालैंड इत्यादि देशों के निवासी अपने केल्टिक पड़ोसियों से भिन्न थे, इसके प्रमाण ईसा पूर्व पहली शताब्दी के मध्य से (सीजर के गॉल विजय के समय से) स्पष्ट रूप से मिलते हैं। इस समय रोमन लोग इन्हें "जर्मानी" नाम से जानते थे। यह नाम संभवत: गॉल लोगों का दिया हुआ है और सर्वप्रथम म्यूज नदी की घाटी में रहनेवाली कतिपय बेल्जिक जातियों के लिये प्रयुक्त होता था।

वर्तमान युग के प्रारंभ में त्यूतन जातियाँ राइन से विस्ट्युला तक फैली हुई थीं। सीजर के पहले ये राइनलाँघ चुकी थीं। लेकिन सीजर के आक्रमणों ने इनका फैलाव रोक दिया। राइन के दोनों तटों पर ये लोग बसे हुए थे पर इनमें से अधिकांश जातियाँ रोमन साम्राज्य की प्रजा थीं। सुदूर पूर्व की त्यूतन जाति संभवत: विस्ट्युला की घाटी में रहनेवाली "गोथ" जाति थी और सुदूर दक्षिण की त्यूतन जातियाँ "मारकोमानी" तथा "कादि" थीं जो बोहेमिया और मोराविया के प्रदेशों में रहती थीं। ये प्रदेश इन्होंने वर्तमान युग के प्रारंभ में केल्टिक लोगों से जीत लिए थे। दक्षिण तथा पश्चिम में भी ये लोग केल्टिक लोगों को दबा रहे थे और इनके अधिकार में स्केंडिनेविया का काफी भाग था।

ईसाई काल के प्रारंभ के कुछ वर्षों के लिये एल्ब नदी के पश्चिम ओर का जर्मनी का कुछ भाग रोमनों के अधिकार में था लेकिन वारुस की पराजय के बाद (ईसवी सन् 9 में) राइन तथा डेन्यूब नदियों तक रोमन साम्राज्य फैल गया। चौथी से छठी शताब्दी तक त्यूतन जातियों ने यूरोप में काफी पैर फैला लिए थे। कुछ भाग इन्होंने जीता था और कुछ भाग रोमनों से संधि कर पाया था।

पाँचवीं शताब्दी यूरोप की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण काल है। इन सौ वर्षों में यूरोप में कई लड़ाइयाँ हुईं, कई जातियों ने कई प्रदेश जीते और यूरोप कई राष्ट्रों में विभक्त हो गया। वांडाल जाति ने स्पेन जीता, विस्गोथों ने इटली को जीतकर रोम पर झंडा फहराया, दक्षिणी स्यूबिक जातियों ने, अलमानी तथा बवेरियन लोगों ने अपना राज्य आल्प्स तक बढ़ाया, फ्रेंकों ने उत्तरी गाली लिया, पूर्वी भाग पर बर्गंडियनों ने कब्जा जमाया, हंगरी में हूणों का साम्राज्य बना और नष्ट हुआ, ब्रिटेन पर आंग्ल लोगों ने अधिकार किया तथा इटली पर आस्ट्रोगोथों ने आक्रमण किया। इस तरह शताब्दी के अंत तक अधिकांश दक्षिणी तथा पश्चिमी यूरोप त्यूतन जातियों के अधिकार में आ गया।

छठी शताब्दी में फ्रैंकों ने बर्गंडियनों को तथा गाल के विस्गोथों को अपना मांडलिक बनाया, रोमनों ने अफ्रीका पर पुन: अधिकार किया, आस्ट्रोगोथों का राज्य उलट गया, इटली पर लांगोबार्दी लोगों ने कब्जा जमाया और पूर्वी जर्मनी के प्राचीन त्यूतन प्रदेश पर (एल्ब की घाटी भी इसमें शामिल थी) स्लावोनिक जातियों ने अपना साम्राज्य कायम किया। इस शताब्दी के अंत तक बोहेमिया, निम्न आस्ट्रिया और द्रेव तथा सेव की घाटियाँ भी स्लावोनिक हो गईं।

छठी शताब्दी के बाद धीरे धीरे त्यूतन लोगों का प्रादेशिक राष्ट्रीयताओं में विलयन होता गया और आज आईसलैंड की स्कैंडिनेवियन बस्ती को छोड़ दिया जाए तो यूरोप में प्रत्यक्ष त्यूतन राष्ट्र कहीं भी नहीं है।

शासनपद्धति

टैसीटस ने ऐसी त्यूतन जातियों का वर्णन किया है जिनमें राजा होता था। उसने ऐसी भी जातियों का वर्णन किया है जो -- मुखिया द्वारा शासित होती थीं। उसने त्यूतन राजाओं के अधिकारों का वर्णन किया है। उसके अनुसार पश्चिमी त्यूतन जातियों पर उनके राजा का बहुत कम प्रभाव था। पूर्व में गोथ जातियों के राजाओं को काफी अधिकार थे और स्वीड लोगों में तो राजा को सार्वभौम अधिकार प्राप्त थे। राजा को ईश्वर का अंश समझा जाता था और बहुत से राजवंश अपनी उत्पत्ति देवताओं से बताते थे। यूरोप का पश्चिमी भाग विदेशी प्रभाव के कारण काफी प्रगतिशील था और गाल प्रदेश से तो "राजा" या राजपद की समाप्ति ही हो चुकी थी।

टैसीटस ने जर्मानी जातियों के संबंध में "कान्सिलियम" अथवा जातीय सभा का प्रमुखता से वर्णन किया है। अत्यधिक महत्व के विषयों में इस सभा का निर्णय अंतिम माना जाता था। इस सभा में मुखियों का चुनाव होता था, जाति के सदस्यों के विरुद्ध गंभीर अभियोगों पर विचार होता था और तरुणों की योद्धाओं में भर्ती होती थी। कार्यवाही का प्रारंभ करने की तथा सभा में शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी पुरोहित की होती थी। इसीलिये शायद यह सभा धर्मस्थानों के निकट होती थी और उसका प्राथमिक रूप धार्मिक था। टैसीटस के बाद इन जातीय सभाओं का बहुत कम उल्लेख मिलता है। हाँ, धार्मिक उत्सवों के तथा महत्व के अवसरों पर राजा लोग जब दरबार लगाते थे तो कभी कभी जनसभाएँ होने के उल्लेख मिलते हैं। लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता कि शासन संबंधी मसलों पर इन सभाओं ने कभी विचार किया हो।

"कांसिलियम्" के अलावा एक और संस्था भी उस समय विद्यमान थी जो बहुत ही महत्वपूर्ण थी और जिसका प्रभाव त्यूतन जातियों के इतिहास पर शायद सबसे अधिक पड़ा। इसे "कोमितातस्" कहते थे। सीजर ने इसका वर्णन किया है। जब किसी जातिप्रमुख को नया अभियान करना होता था तो वह यह जनसभा बुलाता था और अनुयायी प्राप्त करना था जो उस अभियान में उसका अंत तक साथ देते थे।

राजा तथा अन्य प्रमुख लोग अपनी नौकरी में तरुण योद्धाओं की सेनाएँ रखते थे। ये योद्धा शांति के समय में उनकी शान बढ़ाते थे और लड़ाई में उनके काम आते थे। ये मृत्यु पर्यंत अपने स्वामी के प्रति ईमानदार रहते थे। ऐसे कई उल्लेख मिलते हैं जिनके अनुसार स्वामी को देशनिकाला मिलने पर उसके आश्रितों ने स्वेच्छा से उसका साथ दिया और उसके साथ गए। इस सेवा के बदले में स्वामी उन्हें धन, घोड़ों तथा शस्त्रों से संमानित करता था। स्वामी यदि राजा हुआ तो उन्हें भूमि देता था या अपने राज्य के किसी भाग का शासन सौंप देता था। इस प्रकार संमान पानेवाले लोग अपने लड़कों को भी स्वामी की सेवा में लगा देते थे। इस तरह ये जागीरें और अधिकार उन वंशों के पुश्तैनी बन जाते थे। इन्हीं में से जागीरदार या सरदार (अर्ल्स, काउंट्स्) तथा दूसरी ओर बड़े बड़े प्रदेशों के गवर्नर आदि अधिकारियों का उदय हुआ।

समाजव्यवस्था

टैसीटसृ के समय त्यूतन समाज में तीन वर्ग थे। उच्च वंश के लोग, स्वतंत्र लोग तथा (दासता से मुक्त किए गये) मुक्त लोग। आगे चलकर भी इन्हीं तीन वर्गों का वर्णन मिलता है। कहीं कहीं इनमें से एकआध वर्ग गायब भी रहता है। उदाहरणार्थ फ्रैंक जाति में उच्च वर्ग का वर्णन नहीं मिलता और केंट प्रदेश को छोड़कर अन्य एंग्लोसैक्सन राज्यों में मुक्त वर्ग दिखाई नहीं देता। ये वर्ग वंशपरंपरागत होते थे और इनके भिन्न भिन्न अधिकार तथा सुविधाएँ होती थीं। इनमें से प्रमुख अधिकार या सुविधा "मनुष्य का मूल्य" होती थी। प्रत्येक वर्ग का अलग अलग मूल्य होता था। जब कोई आदमी मारा जाता था तो उसके परिवार, आश्रित या स्वामी का यह कर्तव्य होता था कि हत्या का बदला ले। लेकिन घायल होने की अवस्था में आक्रामक को हर्जाने के रूप में एक निर्धारित मूल्य देना होता था।

सीज़र तथा टैसीटस् के कथनानुसार त्यूतन समाजव्यवस्था में कुटुंब और परिवारसंस्था का प्रमुख स्थान था। परिजनों को संरक्षण देना, अन्याय का प्रतिकार करने में उनकी मदद करना तथा उनकी हत्या के प्रसंग में बदला लेना अथवा हर्जाना वसूल करना सर्वसंमत कर्तव्य समझा जाता था। अतएव त्यूतन समाज में बड़ी संख्या में परिजनों का होना सुरक्षा तथा प्रभाव की दृष्टि से अच्छा समझा जाता था। जब किसी उच्च वर्ग के अथवा स्वतंत्र वर्ग के व्यक्ति की हत्या हो जाती थी तो निर्धारित हर्जाना चुकाने की जिम्मेदारी हत्या करनेवाले व्यक्ति के साथ साथ उसके परिवार के प्रत्येक परिजन की भी (नाते की निकटता अथवा दूरी के अनुपात में) होती थी। उसी प्रकार हर्जाना वसूल होने पर वह मृत व्यक्ति के परिजनों में अनुपात से बँटता था। भूमि की व्यवस्था में परिजन हाथ बँटाते थे। टैसीटस् के अनुसार जातीय सेनाएँ भी परिजनों से ही बनती थीं।

विवाहसंस्था

विवाह के सभी साधारण प्रकार उस समय प्रचलित थे। किंतु केंट, प्राचीन सैक्सन, लैंगोबार्दी तथा बर्गंडियनों में मूल्य दे कर विवाह करने की प्रथा प्रमुख रूप से प्रचलित थी। टैसीटस् ने यह भी लिखा है कि विवाह के समय वर की ओर से स्वयं वधू को (उसके अभिभावकों को नहीं) शस्त्र तथा बैल भेंट किए जाते थे। यह प्रथा उत्तर की ओर के त्यूतन राष्ट्रों में प्रारंभिक काल से ही प्रचलित थी। वैवाहिक कृत्यों के संबंध में विशेष जानकारी नहीं मिलती। किंतु यह कहा जा सकता है कि विवाह के पूर्व वाग्दा में समारंभ तथा उसके बाद दावत होती थी।

ईसाई धर्म स्वीकार करने के बाद भ्रातृविधवाओं से तथा सौतेली माँ से विवाह करना निषिद्ध माना जाने लगा। बहुविवाह की प्रथा उनमें सीमित रूप में विद्यमान थी।

सभ्यता

वर्तमान युग के प्रारंभ में त्यूतन जातियाँ खेती करती थीं अथवा नहीं, इस संबंध में विवाद है। सीज़र जर्मानी जाति को प्रधान रूप से पशु चरानेवाली जाति समझता था; कृषि उनका गौण कार्य था। टैसीटस् के अनुसार कृषिकला उस समय प्रारंभिक अवस्था में थी। कृषिकार्य सहकारी रूप से होता था।

सभी प्राचीन लेखकों ने जर्मानी लोगों को योद्धा जाति माना है। फिर भी टैसीटस् के कथनानुसार उन्हें तलवारों तथा कवच और शिरस्त्राण इत्यादि की जानकारी नहीं थी। साधारणत: वे बड़ी बड़ी ढालों, भालों अथवा फेंककर चलाए जानेवाले अस्त्रों का प्रयोग करते थे। लेकिन शायद यह वर्णन केवल पश्चिमी जातियों का है क्योंकि अन्य स्थान पर वह लिखता है कि पूर्व की कुछ जातियों के पास छोटी तलवारें तथा गोल ढालें होती थीं। ये शस्त्र उत्तर की जातियों के पास भी थे। कुछ जातियाँ अपने घुड़सवारों के लिये प्रसिद्ध थीं। लेकिन जर्मानी जाति पैदल लड़ना अधिक पसंद करती थीं।

वर्तमान युग की प्रारंभिक शताब्दियों में जब त्यूतन जातियाँ रोमनों के संपर्क में आईं, तो इनका काफी प्रभाव त्यूतन सभ्यता पर पड़ा। उन्होंने फल तथा तरकारियाँ उगाना सीखा। पनचक्कियाँ लगाई। सैनिक साज समानों तथा शस्त्रास्त्रों की दृष्टि से भी काफी प्रगति की। लेकिन वेश भूषा में वे मूलत: त्यूतन—बल्कि केल्टिक-ट्यूटानिक -- ही रहे।

यूतन जातियों में लिखने की कला की प्राचीनता के संबंध में टैसीटस् ने भविष्य बताने के लिये उपयोग में लाए जानेवाले पत्थर के टुकड़ों का जिक्र किया है इन टुकड़ों पर चिह्न खुदे होते थे। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे चिह्न वस्तुत: अक्षर होते ही थे। त्यूतनिक जातियों की लेखनपद्धति जिसे "रूनिक" कहा जाता है चौथी शताब्दी तक पूर्ण रूप से विकसित हो चुकी थी। ईसाई मत स्वीकार करने के बाद पश्चिमी तथा उत्तरी त्यूतनिक जातियों ने रोमन लिपि का प्रयोग करना प्रारंभ किया।

मृतक संस्कार

प्रारंभ में ये लोग अपने मुर्दों को जलाते थे। बाद में इन्होंने मुर्दों को गाड़ने की प्रथा अपनाई। उत्तर की ओर इन जातियों में अंतिम संस्कार की एक विशेष प्रथा प्रचलित थी। ये लोग अपने मुर्दों को जहाजों पर जलाते थे। जहाजों को तट पर चढ़ा लिया जाता था और शवों को उनपर रखकर आग लगा दी जाती थी। कहीं कहीं जलते हुए जहाजों को समुद्र पर भेज देने का भी उल्लेख मिलता है।

धर्म

चौथी शताब्दी के मध्य में गोथ जाति ने ईसाई धर्म अपनाया और उसके बाद एक एक कर अन्य त्यूतन जातियों ने भी इसे अपना लिया। ईसाई बनने के पहले त्यूतन जातियाँ कई देवताओं को मानती थीं। इंग्लैंड तथा ब्रिटिश द्वीपों के त्यूतन लोग "वोदेन", "थूनार", तथा "ती" आदि देवताओं को पूजते थे। जर्मनी के त्यूतन वोदेन के पुत्र "बाल्देर" को मानते थे। टैसीटस् ने "भूमिमाता" का उल्लेख किया है। कहीं कहीं पर राजाओं तथा शूरवीरों को भी देवताओं की पंक्ति में बैठाया जाता था और उनकी (मृत्यु के पश्चात्) पूजा होती थी। अलौकिक आत्माओं में विश्वास का उल्लेख भी मिलता है।

पुराने ग्रंथों में पवित्र पशुओं का वर्णन है। टैसीटस् ने देवताओं की सेवा में घोड़ों के उत्सर्ग की बात लिखी है। एक हजार साल के बाद नार्वे में भी इस प्रकार के घोड़ों के उत्सर्ग का उल्लेख है। नार्वे में एक राजा के संबंध में किंवदंती है कि वह गाय की पूजा करता था। उत्तर की पौराणिक गाथाओं में दैत्यों का वर्णन है। इनमें प्रमुख "मिद्गारोसार्मर्" नामक विश्वसर्प तथा "फेन्रिसुल्फर" नामक दैत्य भेड़िया है। यह क्रमश: थूनार तथा वोदेन के शत्रु थे। सिंब्री जाति साँड़ की पीतल की प्रतिमा की पूजा करती थी। "कादि" तबका अपनी तलवारों को दैवी मानता था। उत्तर के लोग चट्टानों तथा पत्थरों के टीलों की पूजा करते थे। लगभग सभी त्यूतन भूभागों में सोतों और तालाबों को पवित्र माना जाता था।

त्यूतन धर्म की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि वे कतिपय वृक्षों तथा कुंजों को पवित्र समझते थे। लेकिन इनकी पूजा होती थी या उन्हें देवताओं अथवा आत्माओं का निवासस्थान माना जाता था यह स्पष्ट नहीं है। टैसीटस् ने जिन धर्मस्थानों का वर्णन किया है वे निश्चित रूप से कुंज ही हैं। उसके बाद के काल में भी त्यूतन प्रदेशों में सर्वत्र इस प्रकार के कुंज-देवताओं को धार्मिक महत्व मिलता दिखाई देता है। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध वह कुंज है जिसके अंदर अथवा निकट ही "उप्सला" का महान मंदिर स्थित था। इस संबंध में स्वीडिश "वार्दत्राद" अथवा संरक्षक वृक्ष का उल्लेख करना आवश्यक है। यह वृक्ष जिस परिवार में होता है उसे संरक्षण तथा समृद्धि प्रदान करता है, ऐसा विश्वास उस समय से वर्तमान काल तक चला आता है। उत्तर की पौराणिक गाथाओं में प्रभावित करनेवाली धारणाओं में से एक विशेष धारणा "विश्ववृक्ष" के संबंध में है। यह वृक्ष सभी जीवधारियों का रक्षण करता है।

उत्तर काल में उत्तरी भूभाग के धर्मस्थान अथवा देवालय बहुधा लकड़ी तथा अन्य सामान के बने होते थे। मंदिर का एक हिस्सा घेर दिया जाता था। इसमें देवताओं की मूर्तियाँ होती थीं। मूर्तियों के पास वेदी पर सर्वदा अग्नि जलती रहती थी। मंदिर के मुख्य बड़े भाग में देवताओं के प्रीत्यर्थ की जानेवाली दावतें हुआ करती थीं। धार्मिक अवसरों पर मंदिर का मालिक पौरोहित्य करता था। पौरोहित्य करनेवाली किसी जातिविशेष का उत्तरी त्यूतन जातियों के साहित्य में कोई उल्लेख नही मिलता। बर्गंडियनों में तथा गोथों में पुरोहित वर्ग के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं। टैसीटस् के समय में जर्मन समाज में पुरोहितों का महत्वपूर्ण स्थान था। सिंब्री जाति के समय (और उसके बाद भी) समस्त त्यूतन जातियों में ऐसी पवित्र स्त्रियाँ (साधुनी) वर्णित हैं जिनका मुख्य कर्तव्य भविष्य बताना होता था।

धार्मिक कार्यों में सबसे मुख्य तथा महत्वपूर्ण बलिदान की प्रथा थी। वोदेन के संमुख बहुधा नरबलि दी जाती थी पर थूनार तथा अन्य देवताओं के संमुख यह बलि नहीं होती थी। बलिदान की दावतों में मुख्यत: घोड़ों का मांस परोसा जाता था। कहीं कहीं बैलों तथा सूअरों का मांस भी खाया जाता था। बलिदान के समय भविष्यकथन भी होता था। यह उस उत्सव का ही एक अंग माना जाता था। शत्रु की सेना को देवताओं को समर्पित करना बलिदान के समान समझा जाता था। प्रारंभिक काल से यह प्रथा चली आई थी। इस प्रथा के कारण पराजित सेना का पूर्ण रूप से सफाया हो जाता था। "उप्सलाद्ध तथा "लाइरे" में हर नौवें साल बहुत बड़े पैमाने पर बलिदान होता था। यह उत्सव उप्सला में 21 मार्च को तथा लाइरे में जनवरी मास में होता था।

त्यूतन जातियों का विश्वास था कि मृतात्माएँ जहाँ उनका शरीर गाड़ा गया है उस स्थान पर यह उसके आस पास रहती हैं तथा अपने संबंधी जनों पर कृपा करती हैं। उनका यह विश्वास भी था कि मरने के बाद आत्माएँ "हेल" नामक देवी के लोक में चली जाती हैं और युद्ध में मारे गए लोग वल्हाला जाकर वोदेन की सेवा में यौद्धा बन जाते हैं। त्यूतन जातियों की धारणा थी कि एक दिन ऐसा आएगा जब वोदेन तथा थूनार की दैत्य भेड़िए और विश्वसर्प से लड़ाई होगी देवताओं का निवासस्थान जलकर नष्ट हो जाएगा और पृथ्वी समुद्र में डूब जाएगी। लेकिन यह नाश अंतिम नहीं होगा। प्रलय के बाद नई पीढ़ी के देवता अधिक अच्छे विश्व पर राज्य करेंगे। ये विश्वास समस्त त्यूतन जातियों में प्रचलित थे अथवा नहीं, यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता। जो भी हो, इससे मिलती जुलती धारणाएँ गॉल प्रदेशों में भी प्रचलित थीं, यह मानना पड़ता है।