तुरीय

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तुरीय अनुभव की एक अवस्था है, जिसमें मन और मस्तिष्क में कुछ भी नहीं चलता है - यह भी नहीं कि कुछ नहीं है। यह ध्यान की चौथी (चतुरीय )अवस्था है, इससे पहले की तीन अवस्थाओं में इंद्रियों द्वारा महसूस की गई बात (कोई रूप, कोई गन्ध, कोई ख़याल), कल्पना की गई बात और शून्य महसूस किया जाता है। इसका सबसे पहला संदर्भ माण्डूक्योपनिषद में हुआ है - लेकिन इसी नाम से नहीं।

इसको इस संदर्भ में देखना चाहिये कि चेतना के तीन स्तर हैं -

  1. जब हम जगते हैं तो जो दिखता है और जो कल्पना करते हैं वो हमारे मन में चलता है - कल्पना या विश्लेषण।
  2. सपने (आधी नींद, ख़्वाब) में कल्पना, स्मृति जैसी चीज़ें हम नींद में देखते हैं।
  3. तीसरी अवस्था में कुछ भी नहीं कल्पना करते - गाढ़ी नींद में ऐसा होता है।
  4. इस चौथी अवस्था में ये भी नहीं पता चलता है कि हमें कुछ भी पता नहीं चलता। अद्वैत वादियों के लिए इसका अर्थ आपकी एकदम आत्मिक अनुभूति है जो एकदम शून्य है। इतना शून्य कि आप इसके अनुभूति भी नहीं कह सकते। इसमें यह भी अनुभूति नहीं होती कि आपको कोई अनुभूति नही होती।

शब्द

तुरीय (चतुर्थ) का शाब्दिक अर्थ है - चौथा। इसका पहला प्रयोग गौड़ापादाचार्य (७वीं सदी) ने किया था जो - माण्डूक्य कारिका में किया था। गीता, भागवत और शंकराचार्य द्वारा की गई व्याख्या, यानि भाष्यम् में भी इसका उल्लेख मिलता है।

तुरीय शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी मिलता है।

यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे ।अध स्मा नो ददिर्भव ॥ (ऋग्वेद १/१५/१०)