तुकोजी होल्कर
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साँचा:infobox तुकोजीराव होल्कर प्रथम (1767-1797) अहिल्याबाई होल्कर के सेनापति थे तथा उनकी मृत्यु के बाद होल्करवंश के शासक बन गये । पहले उन्होने पेशावर जीतने में अपना पूरा योगदान दिया और अटक के किले मे २.५ साल ठहरकर हिंदवी स्वराज्य कि अफ़गानी दुश्मन अहमदशाह अब्दाली से रक्षा करी ,दक्षिण मे टीपू सुलतान को युद्ध मे हराकर मराठा साम्राज्य कि पुनः एक बार नींव रखी ।
आरम्भिक समय
बाजीराव प्रथम के समय से ही 'शिन्दे' तथा 'होल्कर' मराठा साम्राज्य के दो प्रमुख आधार स्तंभ थे। राणोजी शिंदे एवं मल्हारराव होल्कर शाहू महाराज के सर्वप्रमुख सरदारों में से थे, लेकिन इन दोनों परिवारों का भविष्य सामान्य स्थिति वाला नहीं रह पाया। राणोजी शिंदे के सभी उत्तराधिकारी सुयोग्य हुए जबकि मल्हारराव होलकर की पारिवारिक स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो गयी। उनके पुत्र खंडेराव के दुर्भाग्यपूर्ण अंत के पश्चात अहिल्याबाई होल्कर के स्त्री तथा भक्तिभाव पूर्ण महिला होने से द्वैध शासन स्थापित हो गया। राजधानी में शासिका के रूप में अहिल्याबाई होल्कर थी तथा सैनिक कार्यवाहियों के लिए उन्होंने तुकोजी राव होळकर को मुख्य कार्याधिकारी बनाया था। कोष पर अहिल्याबाई अपना कठोर नियंत्रण रखती थी तथा तुकोजीराव कार्यवाहक अधिकारी के रूप में उनकी इच्छाओं तथा आदेशों के पालन के लिए अभियानों एवं अन्य कार्यों का संचालन करते थे । अहिल्याबाई भक्ति एवं दान में अधिक व्यस्त रहती थी तथा सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप महिलाओं की सेना को उन्नत बनाने पर विशेष ध्यान दे रही थी। तुकोजी होळकर अत्यधिक महत्वाकांक्षी थे । आरंभ में मराठा अभियानों में वह महादजी के साथ सहयोगी की तरह रहे । तब तक उनकी स्थिति भी अपेक्षाकृत सुदृढ़ रही। बालक पेशवा माधवराव नारायण की ओर से बड़गाँव तथा तालेगाँव के बीच ब्रिटिश सेना की पराजय, रघुनाथराव के समर्पण तथा मराठों की विजय में महादजी के साथ तुकोजी होळकर का भी संतोषजनक भाग था।
अवनति के पथ पर
सन् 1780 में तुकोजी महादजी से अलग हो गये । उसके बाद महादजी ने राजनीतिक क्षेत्र में भारी उन्नति प्राप्त की तथा तुकोजी का स्थान काफी नीचा हो गया। लालसोट के संघर्ष के बाद 1787 में महादजी द्वारा सहायता भेजे जाने के अनुरोध पर नाना फडणवीस ने पुणे से अली बहादुर तथा तुकोजी होळकर को भेजा था; परंतु वहा पहुँचकर भी महादजी का और तुकोजी में वैमनस्य उत्पन्न हो गया । तुकोजी जीते गये प्रांतों में हिस्सा चाह रहे थे और स्वभावतः महादजी का कहना था कि यदि हिस्सा चाहिए तो पहले विजय हेतु व्यय किये गये धन को चुकाने में भी हिस्सा देना चाहिए। परंतु महादजी ने अहिल्याबाई से लिया हुआ कर्ज चुकाया नही था इसिलिये तुकोजी का कहना था कि "आप पहले मातेश्वरी (अहिल्याबाई होळकर) से लिया हुआ कर्ज चुकाईये"। अहिल्याबाई तथा तुकोजी जो प्रायः समवयस्क थे, कभी समान मतवाले होकर नहीं रह पाये। परंतु वे कभी अहिल्याबाई के शब्दो के आगे नही गये ।
परिवार
तुकोजी होल्कर के चार पुत्र थे-- काशीराव, मल्हारराव, विठोजी तथा यशवंतराव। इनमें से प्रथम दो पहली पत्नी तथा अंतिम दो दूसरी पत्नी के पुत्र थे ।
पराभव का आरम्भ
तुकोजी और महादजी का वैमनस्य और बढने लगा ,परिणामस्वरूप महादजी ने उनका सर्वनाश करने का निश्चय किया । 8 अक्टूबर 1792 को महादजी की ओर से गोपाल राव भाऊ ने सुरावली नामक स्थान पर होलकर पर आकस्मिक आक्रमण किया। अनेक सैनिक मारे गए परंतु खुद तुकोजी होलकर बंदी होने से बच गए । यद्यपि बापूजी होलकर तथा पाराशर पंत के प्रयत्न से इस प्रकरण में समझौता हो गया, परंतु इंदौर में अहिल्याबाई तथा तुकोजी के पुत्र मल्हारराव द्वितीय को यह अपमानजनक लगा। उन्होंने थोड़ी सी सेना तथा धन लेकर अपने पिता के शिविर में पहुँचकर समझौते तथा बापूजी एवं पाराशर पंत के परामर्श का उल्लंघन कर महादजी के बिखरे अश्वारोहियों पर आक्रमण आरंभ कर दिया। गोपालराव द्वारा समाचार पाकर महादजी ने आक्रमण का आदेश दे दिया।
लाखेरी के युद्ध में भीषण पराजय
लाखेरी में हुए इस युद्ध के बारे में माना गया है कि इतना जोरदार युद्ध उत्तर भारत में कभी नहीं हुआ था। होल्कर के अश्वारोही दल की संख्या लगभग 25,000 थी। उनके साथ करीब 2,000 डुड्रेनेक की प्रशिक्षित पैदल सेना थी, जिसके पास 38 तोपें थीं। महादजी के प्रतिनिधि गोपालराव 20,000 अश्वारोही, 6,000 प्रशिक्षित पैदल तथा फ्रेंच शैली की उन्नत 80 हल्की तोपें लेकर होल्कर के सामने डट गया। प्रथम टक्कर 27 मई 1793 को हुई उसमे तुकोजी कि जीत हुई तथा निर्णायक युद्ध 1 जून 1793 को हुआ। महादजी के अनुभवसिद्ध प्रबंधक जीवबा बख्शी तथा दि बायने की चतुर रण शैली के कारण होल्कर की समस्त सेना का लगभग सर्वनाश हो गया।
तुकोजी होल्कर का पराभव हो गया और वह इंदौर लौट गये ।
अन्त
1795 में निज़ाम के विरुद्ध मराठों के खरडा के युद्ध में अत्यंत वृद्धावस्था में तुकोजीराव भाग लिया था । 1795 ई० में अहिल्याबाई का देहान्त हो जाने पर तुकोजी ने इंदौर का राज्याधिकार ग्रहण किया । अपनी अंतिम अवस्था में तुकोजी पुणे में ही रहे । 15 अगस्त 1797 को पुणे में ही उनका निधन हो गया।