तरबूज़
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तरबूज़ | |
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दिल्ली में बिकते हुए तरबूज़ | |
Scientific classification | |
Binomial name | |
सिट्रलस लैनेटस Citrullus lanatus | |
२००५ में तरबूज़ की पैदावार |
तरबूज़ ग्रीष्म ऋतु का फल है। यह बाहर से हरे रंग के होते हैं, परन्तु अंदर से लाल और पानी से भरपूर व मीठे होते हैं। इनकी फ़सल आमतौर पर गर्मी में तैयार होती है। पारमरिक रूप से इन्हें गर्मी में खाना अच्छा माना जाता है क्योंकि यह शरीर में पानी की कमी को पूरा करते हैं। तरबूज में लगभग 97% पानी होता है यह शरीर में ग्लूकोज की मात्रा को पूरा करता है कुछ स्रोतों के अनुसार तरबूज़ रक्तचाप को संतुलित रखता है और कई बीमारियाँ दूर करता है। हिन्दी की उपभाषाओं में इसे मतीरा (राजस्थान के कुछ भागों में) और हदवाना (हरियाणा के कुछ भागों में) भी कहा जाता है।
तरबूज़ के कथित फ़ायदे
इसके और भी लाभ बताए जाते हैं जैसे कि[१]:
- खाना खाने के उपरांत तरबूज़ का रस पीने से भोजन शीघ्र पचना। नींद आने में आसानी। रस से लू लगने का अंदेशा कम होना।
- मोटापा कम करने में लाभ।
- पोलियो के रोगियों में ख़ून को बढ़ाना और साफ़ करना। त्वचा रोगों में फ़ायदेमंद।
- तपती गर्मी में सिरदर्द होने पर आधा-गिलास रस सेवन से लाभ।
- पेशाब में जलन पर ओस या बर्फ़ में रखे हुए तरबूज़ के रस का सुबह शक्कर मिलाकर पीने से लाभ।
- गर्मी में नित्य तरबूज़ के ठंडा शरबत से शरीर का शीतल होना। चेहरा चमकदार होना। लाल गूदेदार छिलकों को हाथ-पैर, गर्दन व चेहरे पर रगड़ने से सौंदर्य निखरना।
- सूखी खाँसी में तरबूज़ खाने से खाँसी का बार-बार चलना बंद होना।
- तरबूज़ की फाँकों पर काली मिर्च पाउडर, सेंधा व काला नमक बुरककर खाने से खट्टी डकारों का बंद होना।
- धूप में चलने से बुख़ार आने की स्थिति में फ़्रिज के ठंडे तरबूज़ खाने से फ़ायदा।
- तरबूज़ के गूदे को "ब्लैक हैडस" द्वारा प्रभावित जगह पर आहिस्ता रगड़कर धोने पर लाभ।
- तरबूज़ में विटामिन ए, बी, सी तथा लौहा भी प्रचुर मात्रा में मिलता है, जिससे रक्त सुर्ख़ व शुद्ध होता है।
प्राकृतिक वायाग्रा
साँचा:nutritionalvalue कुछ का दावा है कि यह मोटापे और मधुमेह को भी रोकने का कार्य करता है। अर्जीनाइन नाइट्रिक ऑक्साइड को बढावा देता है, जिससे रक्त धमनियों को आराम मिलता है। एक भारतीय-अमरीकी वैज्ञानिक ने दावा किया है कि तरबूज़ वायग्रा-जैसा असर भी पैदा करता है।[२] टेक्सास के फ्रुट एंड वेजीटेबल इम्प्रूवमेंट सेंटर के वैज्ञानिक डॉ भिमु पाटिल के अनुसार, "जितना हम तरबूज़ के बारे में शोध करते जाते हैं, उतना ही और अधिक जान पाते हैं। यह फल गुणो की खान है और शरीर के लिए वरदान स्वरूप है। तरबूज़ में सिट्रुलिन नामक न्यूट्रिन होता है जो शरीर में जाने के बाद अर्जीनाइन में बदल जाता है। अर्जीनाइन एक एम्यूनो इसिड होता है जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाता है और खून का परिभ्रमण सुदृढ रखता है।
किस्में व प्रजातियाँ
तरबूज़ की कुछ उन्नत किस्में इस प्रकार से हैं:[३]
- शुगर बेबी
यह संयुक्त राज्य अमेरिका से लाई गई किस्म है इस किस्म के फल बीज बोने के ९५-१०० दिन बाद तोड़ाई के लिए तैयार हो जाते है, जिनका औसत भार ४-६ किग्राम होता है इसके फल में बीज बहुत कम होते है बीज छोटे, भूरे और एक सिरे पर काले होते है उत्तर भारत में इस किस्म ने काफी लोकप्रियता हासिल कर ली है प्रति हे० २००-२५० क्विंटल तक उपज दे देती है छिलका हरे रंग का, गूदा लाल, मीठा होता है।
- आशायी यामातो
यह जापान से लाई गई किस्म है इस किस्म के फल का औसत भार ७-८ किग्रा० होता है इसका छिलका हरा और मामूली धारीदार होता है इसका गूदा गहरा गुलाबी मीठा होता है इसके बीज छोटे होते है प्रति हे० २२५ क्विंटल तक उपज दे देती है।
- न्यू हेम्पशायर मिडगट
यह एक उन्नत किस्म है इसके फलों का औसत भार १५-२० किग्रा० होता है इस किस्म के फल ८५ दिनों में खाने योग्य हो जाते है इसका छिलका हरा और हल्की धारियों वाला होता है यह किस्म गृह वाटिका में उगाने के लिए बहुत अच्छी है।
- पूसा बेदाना
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है इस किस्म की सबसे बङी विशेषता यह है कि इसके फलों में बीज नहीं होते हैं फल में गूदा गुलाबी व अधिक रसदार व मीठा होता है यह किस्म ८५-९० दिन में तैयार हो जाती है।
- दुर्गापुरा केसर
इस किस्म का विकास उदयपुर वि०वि० के सब्जी अनुसंधान केन्द्र दुर्गापुर जयपुर, राजस्थान द्वारा किया गया है यह तरबूज़ की किस्मों के विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण उपलब्धि है फल का भार ६-७ किग्रा० तक होता है फल हरे रंग का होता है जिस पर गहरे हरे रंग की धारियाँ होती है गूदा केसरी रंग का होता है इसमें मिठास १० प्रतिशत होती है।
- अर्का ज्योति
इस किस्म का विकास भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंगलौर द्वारा एक अमेरिकन और एक देशी किस्म के संकरण से विकसित किया गया है फल का भार ६-८ किग्रा० तक होता है इसका गूदा चमकीले लाल रंग का होता है इसका खाने योग्य गूदा अन्य किस्मों की तुलना में अधिक होता है फलों की भण्डारण क्षमता भी अधिक होती है प्रति हे० ३५० क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है।
- अर्का मानिक
इस किस्म का विकास भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंगलौर द्वारा किया गया है यह एन्थ्रेक्नोज, चूर्णी फफूंदी और मृदुरोमिल फफूंदी की प्रतिरोधी किस्म है प्रति हे० ६० टन तक उपज दे देती है।
- डब्लू० १९
यह मध्यम समय (७५-८० दिन) में तैयार होने वाली किस्म है इसके फल पर हल्के-हल्के हरे से गहरे रंग की धारियाँ पाई जाती है इसका गूदा गहरा गुलाबी और ठोस होता है यह गुणवत्ता में श्रेष्ठ और स्वाद मीठा होता है यह किस्म उच्च तापमान सहिष्णु है यह किस्म एन०आर०सी०एच० द्वारा गर्म शुष्क क्षेत्रों में खेती के लिए जारी की गई है प्रति हे० ४६-५० टन तक उपज दे देती है।
- संकर किस्में
मधु, मिलन, मोहिनी।
व्युत्पति
तरबूज की उत्पत्ति जोधपुर जिले के मोडकिया ग्राम से मानी जाती है ग्राम के निवासी भरूवो के जाटाले खेत में बड़े-बड़े तरबूज एवं मतीरे होते थे देश विदेश के लोग यहां से तरबूज एवं मतीरे खाने के लिए आते थे और साथ में भी ले जाते थे अभी भी यहां के तरबूज विश्व भर में प्रसिद्ध है देश-विदेश के पर्यटक यहां के बड़े-बड़े तरबूज तरबूज खाने के लिए आते हैं
खेती व प्रयोग
तरबूज़ एक लम्बी अवधि वाली फ़सल है जिसकी ज़्यादा तापमान होने पर अधिक वृद्धि होती है इसलिए इसकी खेती अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में की जाती है इसकी स्वाभाविक वृद्धि के लिए ३६.२२ से ३९.२२ सेल्सियस तापमान अनुकूल माना गया है। तरबूज़ की खेती अत्यधिक रेतीली मिट्टी से लेकर चिकनी दोमट मिट्टी तक में की जा सकती है विशेष रूप से नदियों के किनारे रेतीली भूमि में इसकी खेती की जाती है राजस्थान की रेतीली भूमि में तरबूज़ की खेती अच्छी होती है मैदानी क्षेत्रों में उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट वाली भूमि सर्वोत्तम मानी गई है ५.५ से ७.० पी०एच० वाली भूमि इसके लिए उपयुक्त रहती है पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करना और उसके उपरान्त २-३ बार हैरों या कल्टीवेटर चलाना इसके लिये अच्छा कहा जाता है।[४]
बोने का समय
तरबूज़ को इस प्रकार बोया जाता है:
- नदियों के किनारे- अक्टूबर-नवम्बर।
- मैदानी क्षेत्रों में- मध्य फरवरी-मध्य मार्च।
- बीज की मात्रा- प्रति हे० ४ से ५ किग्रा० बीज पर्याप्त होता है।
- बुवाई की विधि
मैदानी क्षेत्रों में इसकी बुवाई समतल भूमि में या डौलियों पर की जाती है, जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में बुवाई कुछ ऊँची उठी क्यारियों में की जाती है क्यारियाँ २.५० मीटर चौङी बनाई जाती है उसके दोनों किनारों पर १.५ सेमी० गहराई पर ३-४ बीज बो दिये जाते है थामलों की आपसी दूरी भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है वर्गाकार प्रणाली में ४ गुणा १ मीटर की दूरी रखी जाती है पंक्ति और पौधों की आपसी दूरी तरबूज़ की किस्मों पर निर्भर करता है। साँचा:reflist
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- तरबूज के फायदे और नुकसान स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
इन्हें भी देखें
- ↑ वेबदुनिया पर
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- ↑ डील परसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ डील की वेबसाइट परसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
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