श्रुत पंचमी

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श्रुत पंचमी एक दिगंबर जैन पर्व है | यह प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। दिगंबर जैन परंपरा के अनुसार श्रुत पंचमी पर्व, ज्ञान की आराधना का महान पर्व है, जो जैन भाई-बंधुओं को वीतरागी संतों की वाणी सुनने, आराधना करने और प्रभावना बांटने का संदेश देता है। इस दिन मां जिनवाणी की पूजा अर्चना करते हैं।

श्रुत पंचमी
आधिकारिक नाम श्रुत पंचमी
अन्य नाम ज्ञान पंचमी व ज्ञानामृत पर्व
अनुयायी जैन
अनुष्ठान पुराने ग्रंथों, शास्त्रों और सभी किताबों की देखभाल
तिथि ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी
२०२३ date ८ जुन
२०२४ date २७ मई

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श्रुतपंचमी का इतिहास

धवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार भगवान महावीर के मुख से श्री इन्द्रभूति (गौतम) गणधर ने श्रुत को धारण किया। उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जम्बू नामक अंतिम केवली ने ग्रहण किया।

पश्चात 100 वर्ष में 1-विष्णु 2- नन्दिमित्र 3-अपराजित 4-गोवर्धन और 5-भद्रबाहु, ये पांच आर्चाय पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए।

तदनंतर ग्यारह अंग और दश पूर्वों के वेत्ता से ग्यारह आचार्य हुए- 1-विशाखाचार्य 2-प्रोष्ठिन 3-क्षत्रिय 4-जय 5-नाग 6-सिद्धार्थ 7-धृतिसेन 8-विजय 9-बुद्धिल 10-गंगदेव और 11-धर्म सेन। इनका काल 183 वर्ष है।

तत्पश्चात 1-नक्षत्र, 2-जयपाल, 3-पाण्डु, 4-ध्रुवसेन और 5-कंस ये पांच आर्चाय ग्यारह अंगों के धारक है। इनका काल 220 वर्ष है।

तदनन्तर 1– सुभद्र 2-यशोभद्र 3- यशोबाहु और 4- लोहार्य, ये चार आचार्य एकमात्र आचारंग के धारक हुए। इनका समय 11 वर्ष है। इसके पश्चात अंग और पूर्ववेत्तओं की परम्परा समाप्त हो गई और सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश का ज्ञान आचार्य परम्परा से धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए।

आचार्य धरसेन काठियावाड में स्थित गिरनार की चन्द्र गुफा में रहते थे। जब वे बहुत वृद्ध हो गए तब उन्होनें श्रुतज्ञान परंपरा को सतत बनायें रखने हेतु दो मुनिराज ‘पुष्पदन्त’ तथा ‘भूतबलि’ को श्रुतज्ञान प्रदान किया; इस ज्ञान के माध्यम से मुनिराजो ने छह खण्डों (जीवस्थान, क्षुद्रक बंध, बंधस्वामित्व, वेदना खण्डा, वर्गणाखण्ड, और महाबंध) की रचना की; जिस दिन भूतबलि आचार्य ने षटखण्डागम सूत्रों को पूर्ण रुप से ग्रंथ रूप में बद्ध किया;और ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित कृतिकर्मपूर्वक महापूजा की। उसी दिन से यह पंचमी श्रुतपंचमी नाम से प्रसिद्ध हो गयी। क्योकि भगवान महावीर के दर्शन को पहली बार लिखित ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इससे पूर्व भगवान महावीर की वाणी को लिखने की परंपरा नहीं  थी। उसे सुनकर ही स्मरण किया जाता था इसीलिए उसका नाम 'श्रुत' था। इसी दिन से श्रुत परंपरा को लिपिबद्ध परंपरा के रूप में प्रारंभ किया गया।[१][२][३]

श्रुत पंचमी के दिन जैन धर्मावलंबी मंदिरों में प्राकृत, संस्कृत, प्राचीन भाषाओं में हस्तलिखित प्राचीन मूल शास्त्रों को शास्त्र भंडार से बाहर निकालकर, शास्त्र-भंडारों की साफ-सफाई करके, प्राचीनतम शास्त्रों की सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें नए वस्त्रों में लपेटकर सुरक्षित किया जाता है तथा इन ग्रंथों को भगवान की वेदी के समीप विराजमान करके उनकी पूजा-अर्चना करते हैं, क्योंकि इसी दिन जैन शास्त्र लिखकर उनकी पूजा की गई थी

श्रुत देवी

जैन परंपरा मे जिनवाणी के साथ देवता और भगवती शब्दों का प्रयोग मात्र आदर सूचक है सरस्वती ( स+रस+वती अर्थात रस से परिपूर्ण प्रकृति ) पद का प्रयोग मात्र जिनवाणी के रूप में हुआ है और उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण दिया गया | जैनागम में जैनाचार्यो ने सरस्वती देवी के स्वरूप की तुलना भगवान की वाणी से की है |[४]

श्रुत स्कन्ध यंन्त्र्

सन्दर्भ

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  4. Dr. Shanti Swaroop Sinh, Dr. Maruti Nandan Pd. Tiwari. "CONCEPT OF SARASWATI IN JAIN TRADITION AND ART" (PDF). Indian Journal of Archaeology: २४.

इन्हें भी देखें