जिन्द कौर
साँचा:infobox महारानी जिन्द कौर (1817 – 1 अगस्त 1863) 1843 से 1846 तक सिख साम्राज्य की संरक्षिका थीं। वे महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटी महारानी थीं। अन्तिम महाराजा दलीप सिंह उनके ही पुत्र थे। वे अपने सौन्दर्य, ऊर्जा तथा उद्देश्य के प्रति समर्पण के लिये प्रसिद्ध थीं। इसलिये उन्हें 'रानी जिन्दा' भी कहते थे। किन्तु उनकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण अंग्रेजों का उनसे डरना है। अंग्रेज उनको पंजाब का मेस्सालिना (Messalina) कहा करते थे जिनके विद्रोह को दबाना अत्यन्त कठिन था।[१]
महारानी जिन्द कौर पिंड चॉढ (सियालकोट, तसील जफरवाल) निवासी सरदार मन्ना सिंह औलख जट्ट की पुत्री थीं।
1843 ई. में जब दलीप सिंह गद्दी पर बैठा तो वह नाबालिग था, अतः जिन्दा रानी उसकी संरक्षिका बनीं। परन्तु वह इस पद भार को सम्भाल नहीं सकीं और 1845 ई. में प्रथम सिखयुद्ध छिड़ गया। जब 1846 ई. में लाहौर की संधि के द्वारा युद्ध समाप्त हुआ तो ज़िन्दाँ रानी दलीप सिंह की संरक्षिका बनी रहीं। परन्तु उनकी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगी और 1848 ई. में षड्यंत्र रचने के अभियोग में उसे लाहौर से हटा दिया गया। द्वितीय सिखयुद्ध (1849 ई.) जिन कारणों से छिड़ा, उनमें एक कारण यह भी था। इस युद्ध में भी सिखों की हार हुई। युद्ध की समाप्ति पर दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया गया।
लाहौर का राजप्रबंध अंग्रेज़ी सरकार के हाथ आने पर अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर ले जाकर पहले शेखूपुरा में नज़रबंद रखा, फिर 19 अगस्त 1849 को चुनार (उत्तर प्रदेश, जिला मिर्जापुर) के खुंटे में कैद किया। यहाँ से यह फ़कीरी वेश में कैद से निकल कर नेपाल चली गई और वहाँ सम्मान सहित रही। 1861 में महारानी जिन्दकौर अपने बेटों के दर्शन के लिए इंग्लैंड गयीं थीं। वहाँ 1 अगस्त 1863 को लंदन में इनका देहान्त हुआ था, तब वे 46 वर्ष की थीं। इनकी शव का दाह नासिकमें किया गया था।