जल चक्की

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जल चक्कियों

तरह की टरबाइन जल चक्कियों को कृषि के लिए प्रयोग में लाते थे।

इस तरह टरबाइन वाटर व्हील की प्राकृतिक रूप से विकसित तकनीक है। हालांकि, जब तक औद्योगिक क्रांति नहीं हुई थी, तब तक आधुनिक टरबाइन का विकास नहीं हुआ था। ऐतिहासिक तौर पर देखें तो 19वीं सदी में यह बड़ी-बड़ी फैक्टरियों में इस्तेमाल होता था। लेकिन, जब बिजली की उत्पत्ति हुई तब से कारखानों में जेनरेटर का इस्तेमाल होने लगा. अब अगर टरबाइन की कार्यप्रणाली की बात करें तो यह न्यूटन के तीसरे गति नियम के अधार पर काम करती है। यानी प्रत्येक क्रिया पर, विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इसी तरह टरबाइन का प्रोपेलर काम करता है। प्रोपेलर में लगा स्पाइंडल हवा या पानी पर दबाव बनाता है।

इसी दबाव की वजह से प्रोपेलर टरबाइन को पीछे की ओर धक्का मारता है, जिससे वह चलती है। आमतौर पर टरबाइन को एक जगह रख दिया जाता है, ताकि जब भी पानी उससे होकर गुजरे तो टरबाइन के हर ब्लेड पर पड़ने वाले दबाव से वह चल पड़े. हवा या पानी के टरबाइन के साथ एक ही नियम लागू होता है। जितना अधिक पानी या हवा का प्रवाह होगा, टरबाइन उतनी तेज गति से चलेगी.



जल टरबाइन या जलचक्र -

उन मूल चालक यंत्रों (prime movers) को कहते हैं जो जलराशि में निहित स्थितिज ऊर्जा को यांत्रिक कार्य में परिवर्तित कर देते हैं। पनचक्कियाँ विभिन्न प्रकार से बनाई जाने पर भी बड़ी ही सरल प्रकार की युक्तियाँ (devices) हैं, जिनका प्रयोग प्रागैतिहासिक काल से ही शक्ति उत्पादन करने के लिए होता चला आया है। समय समय पर आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों से प्रेरित होकर लोगों ने इनमें अनेक सुधार किए, अत: जल टरबाइन भी पनचक्की का ही विकसित रूप है। पिछली अर्धशताब्दी से तो इनका इतना उपयोग बढ़ गया है कि इनके द्वारा लगभग सभी सभ्य देशों में जगह जगह, छोटे बड़े अनेक जल-विद्युच्छक्ति-गृह बनाए जाने लगे। इस कारण सुदूर जलहीन देहातों में भी बड़े सस्ते भाव पर बिजली प्राप्त होने लगी और नाना प्रकार के उद्योग धंधों के विकास को प्रत्साहन मिला।


जल राशि में निहित स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन कैसे होता है, इसे संक्षेप में समझने के लिए कल्पना कीजिए कि कुछ ऊँचाई पर स्थित एक टंकी में से पानी की एक धारा उसी के नीचे स्थित जलाशय में गिर रही है। इस उदाहरण में, ऊपर से आनेवाले पानी में निहित गतिज ऊर्जा जलाशय के पानी में विक्षोभ उत्पन्न करके ही बरबाद हो गई और उससे कोई उपयोगी कार्य नहीं हो सका। यदि वही पानी एक नल में से होकर नीचे आता तो वह उस नल के मुहान े पर दाब उत्पन्न कर किसी जलचक्र अथवा इंजन को चला सकता था। जब भी किसी स्थान पर जल के प्रवाह अथवा वर्चस (head) द्वारा प्राप्त ऊर्जा की सहायता से कोई जलचालित मोटर या टरबाइन चलाकर शक्ति उन्पादन करने का विचार किया जाता है, तो उसके पहले आस पास में स्थित जलराशि अथवा जलस्रोतों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का यथासाध्य सही अनुमान लगा लिया जाता है। जलचालित मोटरों का वर्गीकरण - यह वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार है :

1. जलधारा के प्रवाह तथा गुरुत्वाकर्षण से पैदा ऊर्जा से चलने वाला चक्र -

ये चक्र जलधारा के प्रवाह में रुकावट डालने पर होलेवाले प्रभाव (impact) अथवा चक्र की डोलचियों (डिब्बों) में भरे पानी के भार के कारण चला करते हैं।

2. आवेगचक्र (Impulse Wheels) और टरबाइन

ये किसी नोजल में से निकलनेवाली पानी की अत्यधिक वेगयुक्त प्रधार (jet) की गतिज ऊर्जा द्वारा चलते हैं। इस प्रकार के आवेगचक्रों का वहीं उपयोग होता है जहाँ पर पानी की मात्रा तो सीमित होती है लेकिन उसका दबाव अत्याधिक होता है।

3. प्रतिक्रिया टरबाइन (Reaction Turbine) -

इसमें पानी की गतिज ऊर्जा तथा दाब दोनों का ही उपयोग होता है। ये वहीं लगाए जाते हैं जहाँ परिस्थितियाँ आवेगचक्र तथा आवेग टरबाइनो के लिए बताई परिस्थितियों से विपरीत होती हैं, अर्थात्‌ जहाँ पानी अल्प ऊँचाई युक्त होते हुए भी विपुल मात्रा में प्राप्त हो सकता है। इस पानी का ऊँचाई 5 से लेकर 500 फुट तक हो सकता है।

जलधारा के प्रवाह तथा गुरुत्वाकर्षण से पैदा ऊर्जा से चलनेवाले चक्रों का उपयोग तो अब देहातों में कुटीर उद्योगों के उपयुक्त ही समझा जाता है, पहाड़ी स्थानों पर जहाँ निरंतर झरने बहते रहते हैं। इस प्रकार के चक्रों में अध:प्रवाही (Under-shot), पॉन्सले (Poncelet) मध्यप्रवाही (Breast-wheel) और ऊर्ध्वप्रवाही (Over-shot) चक्र प्रमुख हैं, लेकिन बड़ी मात्रा में विद्युदुत्पादन क े लिए ये सर्वथा अनुपयुक्त समझे जाते हैं, फिर भी सहायक मोटर के रूप में बड़े बिजलीघरों में, ऊर्ध्वप्रवाही चक्र का उपयोग, आवश्यकता पड़ने पर, आधुनिक संयंत्रों के साथ किया जाता है।

अध: प्रवाही चक्र -

कार्यक्षमता लगभग 25 प्रति शत ही होती है, इसमें पानी की बहुत सी ऊर्जा व्यर्थ में नष्ट हो जाती है। 1,800 ई0 तक इसका उपयोग बहुत होता था।

पॉन्सले का चक्र -

यह अर्धप्रवाही चक्र का ही परिष्कृत रूप है। इसकी पंखुड़ियाँ इस प्रकार से मोड़कर गोलाईदार बनाई जाती हैं कि इनमें पानी बिना झटका मारे ही प्रवेश कर जाता है और उनमें से बाहर निकलते समय वह चक्र की परिधि की स्पर्शरेखीय दिशा में होकर ही निकलता है, जिसे चक्र को अधिक आवेग प्राप्त हो जाता है और चक्र की कार्यक्षमता लगभग दुगनी हो जाती है।

मध्यप्रवाही चक्र -

यह भी अध:प्रवाही चक्र का ही परिष्कृत रूप है। इसकी कोनियानुमा पंखुड़ियों में पानी, चक्र की धुरी के तल से कुछ ऊँचाई पर स्थित पंखुड़ियों में भरना आरंभ होता है और उनके नीचे आने तक उन्हों में भरा रहता है। चक्र की खोल भी इस पानी को उनमें भरा रखने में कुछ सहायता करती है, अत: यह चक्र मुख्यतया पानी के भार के कारण ही घूमता है। मध्यप्रवाही चक्र भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो मध्योच्च प्रवाही (High Breast) और दूसरा अध:मध्यप्रवाही (Low Breast) कहलाता है। इसकी पंखुड़ियों में पानी धुरी के तल से कुछ नीचे की पंखुड़ियों में भरना आरंभ होता है, जिसमें पानी के भार और प्रवाहजनित, दोनों प्रकार की, ऊर्जाओं का उपयोग होता है। इन चक्रों की कार्यक्षमता 50 प्रति शत से लेकर 80 प्रति शत तक हो सकती है, जो इनकी बनावट तथा आकार पर निर्भर करती है। इनका प्रयोग 19वीं शताब्दी के मध्य तक होता था उर्ध्व प्रवाही चक्र -

इसका कार्यक्षमता 70 प्रतिशत से लेकर 85 प्रतिशत तक पहुँच जाती है, जो आधुनिक जल टरबाइनों के लगभग समकक्ष ही है यह अपेक्षाकृत आधुनिक प्रकार का गुरुत्वाकर्षणजनित ऊर्जाचालित जलचक्र है, जिसका प्रयोग थोड़ी मात्रा में विद्युच्छक्ति उत्पन्न करने के लिए आजकल भी सहायक मोटर के रूप में होता है तथा अच्छा काम देता है।

आवेगचक्र और टरबाइन -

आधुनिक प्रकार के आवेग चक्र पॉन्सले के अध:प्रवाही चक्र के परिष्कृत रूप हैं। इनमें स्लूस मार्ग (sluice way) के स्थान पर तुड़ों का उपयोग किया जाता है, जिनमें से पानी की प्रधार (jet) बड़े बेग से निकलकर चक्र की पंखुड़ियों से टकराती है। इस ढंग के जिस संयंत्र का सर्वाधिक प्रचार है वह पेल्टन चक्र (Pelton's Wheel) के नाम से प्रसिद्ध है, में उसकी एक डोलची (bucket) तथा पानी की धार का आरेख है। डोलची को दो जुड़वाँ प्यालों के रूप में इस प्रकार बना दिया गया है कि पानी की प्रधार उसके मध्य में टकराते ही फटकर, दो भागों में विभक्त होकर, एक दूसरी से लगभग 180 डिग्री के कोणांतर पर चलने लगती है। यदि ये दोनों उपप्रधाराएँ अपनी मूल प्रधारा से बिलकुल विपरीत दिशा में बह निकले तो अवश्य ही पेल्टन चक्र की कार्यक्षमता 100 प्रति शत हो जाय, लेकिन इन्हें जान बूझकर तिरछा करके निकाला जाता है, जिससे ये अपने पासवाली डोलची से टकराएँ नहीं। ऐसा करने से अवश्य ही कुछ ऊर्जा घर्षण में बरबाद हो जाती है, जिससे इस चक्र की कार्य-क्षमता लगभग 80 प्रतिशत ही रह जाती है।

इसमें चिह्नित मार्ग से पानी प्रविष्ट होता है और टोंटी से चक्र पर लगे पंख (blades) पर पड़ता हैं। इसमें प्रवेश करते समय, बाहर निकलते समय की अपेक्षा, पानी का वेग बहुत अधिक होता है। अत: बाहर की तरफ उनका रास्ता क्रमश: चौड़ा कर दिया जाता है। संयुक्त राज्य, अमरीका में इस टरबाइन का निर्माण 'विक्टर उच्चदाब टरबाइन' नाम से किया जाता है, जिसकी कार्यक्षमता 70 प्रतिशत से लेकर 80 प्रतिशत तक, उसके अभिकल्प तथा आकार के अनुसार होती है।

== प्रतिक्रिया टरबाइन == (Reaction Turbine) - आवेगचक्र में तो पानी की गत्यात्मक ऊर्जा ही काम करती है, लेकिन अभिक्रियात्मक चक्र में गयात्मक तथा दाबजनित दोनों ही प्रकार की ऊर्जाएँ सम्मिलित रूप से काम करती हैं।

प्रतिक्रियात्मक टरबाइनें पानी के प्रवाह के दिशानुसार निम्नलिखित चार मुख्य वर्गों में बाँटी जा सकती हैं : 1. त्रैज्य बहिर्प्रवाही, 2. त्रैज्य अंत:प्रवाही, 3. अक्षीय प्रवाही और 4. मिश्रप्रवाही।

फूर्नेरॉन (Fourneyron) का टरबाइन -

फूर्नेरॉन नामक एक फ्रांसीसी इंजीनियर ने बार्कर मिल के सिद्धांतानुसार केद्रीय जलमार्ग से बाहर की तरफ त्रैज्य दिशा में बहने के लिए मार्गदर्शक तुंडों को तो स्थिर प्रकार का बनाकर, उनके बाहर की तरफ घूमनेवाला पंखुडीयुक्त चक्र बनाया, इसमें प केंद्रीय कक्ष है, जिसमें पानी प्रविष्ट होकर त्रैज्य दिशा में फ चिह्नित तुंड में जाकर चक्र की ब चिह्नित पंखों को घुमाता हुआ बाहर निकल जाता है। इसमें घ केंद्रीय धुरा है, जिससे डायनेमो आदि संबंधित रहता है। यह त्रैज्य बहिर्प्रवाही टरबाइन का नमूना है।

जूवाल (Jouval) का अक्षीय प्रवाहयुक्त टरबाइन - जिसके विभिन्न अवयवों के संकेताक्षर पूर्ववर्णित टरबाइन चित्र जेसे ही हैं। इसमें पानी का प्रवाह, जैसा बाणचिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया गया है, अक्ष के समांतर ही रहता है।

फ्रैंसिस का अंत:प्रवाही टरबाइन -

इसका अभिकल्प जे0 बी0 फ्रैंसिस नामक सुविख्यात अमरीकन इंजीनियर ने बनाया था। इसमें फ चिह्नित टोंटियों में से पानी बाहर की ओर से त्रैज्य दिशा में प्रविष्ट होकर, भीतर की ओर केंद्र के निकट घूमनेवाले पंखों को ढकेलकर चलाता हुआ, नीचे को धुरी के चारों तरफ होता हुआ, बाहर निकल जाता है। टरबाइनों के धावन चक्र (Runner) -

टरबाइनों का घूमनेवाला चक्र जिसकी परिधि पर डोलचियाँ अथवा पंख लगे होते हैं, धावक कहलाता है। टरबाइनों का यही प्रमुख अवयव है जिसकी उत्तम बनावट तथा संतुलन पर उनकी कार्यक्षमता तथा शक्ति निर्भर करती है। दो प्रकार को टरबाइनें प्राय: अधिक काम आती हैं, एक तो त्रैज्यअंत:प्रवाही प्रतिक्रियात्मक और दूसरी आवेगात्मक। प्रथम प्रकार में से फ्रैंसिस की टरबाइन का धावनचक्र है, जो 100 से लेकर 500 फुट तक के वर्चस्‌युक्त जल के उपयुक्त है। आवश्यकता पड़ने पर 600 फुट वर्चस्‌ के जल का भी इनके साथ उपयोग किया जा सकता है।

आवेगात्मक टरबाइनों के लिये पेल्टन की दोहरी डोलचियों से युक्त धावनचक्र है, जिसकी डोलचियों की आकृतियाँ दीर्घवृत्तजीय पृष्ठ (ellipsoidal surface) युक्त हैं तथा बाहरी किनारे थोड़े थोड़ कटे हुए हैं। इनमें पानी की प्रधार बिना झटका मारे इन्हें ढकेलकत बिलकुल साफ बाहर निकल जाती है और कटे किनारे के कारण चालू करते समय प्रधार की शक्ति विच्छिन्न नही होने पाती।

मिश्रप्रवाही टरबाइनें फ्रैंसिस की टरबाइनों का ही परिष्कृत रूप है। इसका अभिकल्प अल्प वर्चस्‌ के जल से तीव्र गति तथा अधिक शक्ति प्राप्त करने के लिए किया गया है। यंत्रशास्त्र के नियमानुसार तीव्र गति के लिए धावनचक्र का व्यास कम करना पड़ता है, लेकिन ऐसा करने से उसकी शक्ति कम हो जाती है; अत: इस दोष को मिटाने के लिए इसका व्यास कम करके भी चौड़ाई बढ़ा दी गई है और पंखों की संख्या कम करके उन्हें केंद्र के निकट कर दिया गया है। इनका प्रयोग 5 से लेकर 150 फुट वर्चस्‌ तक के पानी के साथ किया जा सकता है।

धावनचक्रों की क्षमता -

धावनचक्रों की क्षमता उनकी लाक्षणिक चाल (characteristic speed) द्वारा जाँची जाती है। यदि हम किसी धावनचक्र की विभिन्न नापों को इतना छोटा तथा संकुचित करते जायँ कि वह एक फुट वर्चस्‌ के जल से इतने चक्कर प्रति मिनट लगाने लगे कि उससे एक अश्वशक्ति मिल जाए तो चक्करों की उस संख्या को उस चक्र की लाक्षणिक चाल कहते हैं, जो निम्नलिखित सूत्र द्वारा व्यक्त की जाती है :

== जल टरबाइनों के प्रकार == 
  1. 1 से 5 आवेगात्मक टरबाइन - एक टोंटी युक्त
  2. 5 से 10 आवेगात्मक टरबाइन - एक से अधिक टोंटी युक्त
  3. 10 से 20 प्रतिक्रियात्मक टारबाइन - मंद चाल युक्त
  4. 20 से 50 प्रतिक्रियात्मक टारबाइन - मध्यम चाल युक्त
  5. 50 से 80 प्रतिक्रियात्मक टारबाइन - तेज चाल युक्त
  6. 80 से 100 प्रतिक्रियात्मक टारबाइन - बहुत तेज चाल युक्त
  7. 100 से ऊपर प्रतिक्रियात्मक टारबाइन - एक से अधिक धावन चक्र युक्त

धावन चक्र का व्यास -

किसी विशेष टरवाइन के लिए धावन चक्र का व्यास क्या होना चाहिए, यह निम्नलिखित सूत्र से निश्चित किया जा सकता है :

व्यास इंचों में

इस सूत्र में ब (H) = वर्चस्‌ फुटों में; स (n) = धावनचक्र की चाल, चक्कर प्रति मिनट में। गुणांक ग (a) का मान उच्च वर्चसयुक्त टरबाइन के लिए 0.6, मध्यम वर्चस्युक्त टरबाइन के लिये 0.7 और अल्प वर्चस्‌युक्त टरबाइन के लिए 0.8 रखा जाता है।

जलचलित मोटरों के परिष्कृत रूप अब भी थोड़ी मात्रा में शक्ति उत्पादन करने के लिए देहाती क्षेत्रों में प्रयुक्त होते हैं। इनके एकहरे चक्र का व्यास 60 फुट तक बना दिया जाता है तथा उसकी चौड़ाई इतनी रखी जाती है कि वह 3,000 घन फुट पानी प्रति मिनट से चला सके। ये पर्याप्त मंद गति से चला करते हैं, अत: इन्हें पूरे का पूरा इस्पात की चादरों तथा बेले हुए छड़ों से बनाया जाता है। चक्रों की भीतरी परिधियों पर दाँते बना दिए जाते हैं, जिनसे एक तरफ लगा हुआ छोटा दंतचक्र घूमकर अपने से संबंधित धुरी द्वारा यंत्रों को चलाता है। इनके केंद्रीय मुख्य धुरे से यंत्र प्राय: नहीं चलाए जाते, क्योंकि उनपर मरोड़ बल (twisting force) बहुत अधिक पड़कर उनके छूटने की आशंका उत्पन्न कर देता है।

आवेगचक्र -

पेल्टन के टोंटी की बनावट, इसमें लगे एक सूच्याकार वाल्व के स्पिंडल को चौकोर चूड़ियों के द्वारा हाथचकरी से आगे पीछे सरकाकर टोंटी का मुँह कम या ज्यादा खोलकर, पानी की प्रधार को नियंत्रित किया जाता है। इसका परिचालन नियंत्रक यंत्र द्वारा भी किया जा सकता है, जिसका वर्णन आगे किया जाएगा। पेल्टन के आवेगचक्र प्रयोगशाला के छोटे उपकरणों से लेकर 18,000 अश्वशक्ति उत्पादन योग्य कई मापों में बनाए जाते हैं।

प == रतिक्रियात्मक टरबाइन -==

इसके धावनचक्र ढले लोहे की खोलों में फिट करके इनके पानी का मार्गदर्शन करने वाले गाइड इस प्रकार की चूलों (pivots) पर लगाए जाते हैं कि उनके तिरछेपन का समायोजन करके टरवाइन की चाल पर भी नियंत्रण रखा जा सकत है। इनसे धावनचक्र सुविधानुसार आड़े या खड़े दोनों ही प्रकार से यथेच्छा लगाए जा सकते हैं।

गतिनियंत्रक यंत्र (Governor) -

जलचालित मोटरों के लिये एक नियंत्रक यंत्र, जो साधारण वाट के गवर्नर के नमूने पर दो गेंदों से युक्त है। इसे प्रधान चक्र के धुरे पर लगे एक फट्टे द्वारा चलाया जाता है। चक्र की गति तेज होने पर जब केंद्रापसारी बल के कारण गेंदें ऊपर उठती हैं तब उसका स्लीव (sleeve) वीवल गियरों के बीच लगे एक क्लच से संबंधित होकर, चित्र में बाएँ हाथ की तरफ लगे स्पिडल को घुमाकर, उसके सिरे पर लगे एक वर्म क्षरा वर्मकिर्रे को थोड़ा घुमाकर, एक दंतचक्र को थोड़ा सा घुमा देता है, जिससे संबंधित दंतयुक्त दंड (rack) भी सरक जाता है। इसी दंतदंड से संबंधित छेद युक्त एक वाल्व भी थोड़ा सरक कर पानी के मार्ग को आवश्यकतानुसार अवरुद्ध कर देता है। जल चक्र की गति मंद पड़ने पर इसकी क्रिया विपरीत प्रकार की होने से, इससे संबंधित वाल्व पानी के मार्ग, अथवा मुख्य वाल्व, को अधिक मात्रा में खोल देता है। बड़े टरबाइनों के लिये तेल के दाब से काम करने वाला नियंत्रक यंत्र होता है। इस चित्र में ऊपर की तरफ, क चिह्नित डिब्बे में केंद्रापसारी प्रकार का भायुक्त गतियंत्रक लगा है। इसके नीचे ही पाइलट वाल्व ख है तो उपर्युक्त नियंत्रक द्वारा संचालित होकर अपने नीचे लगे ग बाल्व को जब खोल देता है, तब दाबयुक्त तेल सिलिडर घ में प्रवेश करके उसमें लगे पिस्टन तथा बाहर की तरफ उसमें जुड़े, कनेकिंटग राँड च को चलाकर पानी के प्रवेशमार्ग को आवश्यकतानुसार कम या ज्यादा खोल देता है। इस उपकरण में नीचे की तरफ एक परिभ्रामी पंप छ लगा है, जो तेल में आवश्यक दाब बनाए रखता है।

वर्चस्‌द्वार (Head Gate) -

इसे खोलने तथा बंद करने की अनेक प्रकार की प्रयुक्तियाँ अभिकल्पित की गई हैं। ये द्वार बहुत ही दृढ़ बनाए जाते हैं, जिन्हें ऊपर नीचे सरकाने के लिये प्राय: दाँतेदार प्रयुक्तियों का ही प्रयोग किया जाता है, जो हाथ तथा शक्ति द्वारा दानों ही प्रकार से संचालित की जा सके। हाथ से चलाने वाले हैंडिल तथा किर्रे और रैक आदि स्पष्ट हैं।

संयंत्रों का विन्यास (Plant Arrangement) -

वर्चसद्वार, जलनालिकाएं (flumes), टरबाइन डायनेमी और भवन आदि दिखाए गए हैं। वर्चस्‌ के जल के साथ खड़ी टरबाइन और अल्प वर्चस्‌ जल के साथ आड़ी टरबाइन दिखाई गई है। जल टरबाइनों की कार्यक्षमता - किसी भी जल टरबाइन की सैद्धांन्तिक अश्वशक्ति प्रति मिनट उसपर गिरनेवाले पानी के भार तथा जितनी ऊँचाई से वह गिरता है उसके गुणनफल के अनुपात से जानी जा सकती है।

संदर्भ