जयसिंह प्रथम
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मालवा के परमार शासक भोज ने 1010 से 1060 ईस्वी तक शासन किया था। उसकी मृत्यु के बाद परमार वंश का अंत हो गया। भोज का पुत्र जयसिंह प्रथम (1055-1070ईस्वी) उसके बाद गद्दी पर बैठा। इस समय मालवा की राजधानी धारा पर कलचुरी कर्ण तथा चालुक्य भीम प्रथम का अधइकार था।
जयसिंह ने कल्याणी नरेश सोमेश्वर प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य की सहायता प्राप्त की थी तथा अपनी राजधानी को शत्रुओं से मुक्त करा लिया। वह सोमेश्वर प्रथम का आश्रित राजा बन गया। किन्तु जब कल्याणी का शासक सोमेश्वर द्वितीय बना तो स्थिति बदल गयी। उसने कर्ण तथा कुछ अन्य राजाओं के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में जयसिंह पराजित हुआ तथा मार डाला गया। आक्रमणकारियों ने उसकी राजधानी को लूटने के बाद ध्वस्त कर दिया। उसके बाद उदयादित्य राजा बना। प्रारंभ में तो उसे कलचुरि कर्ण के विरुद्ध संघर्ष में सफलता नहीं मिली, किन्तु बाद में उसने मेवाङ के गुहिलोत, नाडोल तथा शाकंभरी के चाहमान वंशों की सहायता प्राप्त कर अपनी स्थिति मजबूत बना ली। इनमें शाकंभरी के चाहमान नरेश विग्रहराज की सहायता विशेष कारगर सिद्ध हुई तथा उदयादित्य ने कर्ण को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त करा लिया। उसके बाद उदायदित्य ने कुछ समय तक शांतिपूर्वक शासन किया तथा अपना समय राजधानी के पुनरुद्धार में लगाया। उसने भिलसा के पास उदयपुर नामक नगर बसाया तथा वहाँ नीलकुंठ के मंदिर का निर्माण करवाया।
उदयादित्य के बाद उसका बङा पुत्र लक्ष्मदेव राजा बना। इसके समय में पालों की स्थिति कमजोर थी, जिसका फायदा उठाकर उसने बिहार तथा बंगाल के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया था। इसी प्रकार उसने कलचुरि नरेश यशःकर्ण को युद्ध में पराजित किया था। किन्तु मुसलमानों के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिली थी तथा महमूद गजनवी ने उज्जैन पर आक्रमण कर उसे हरा दिया था।लक्ष्मदेव के बाद उसका छोटा भाई नरवर्मा (1094-1113 ईस्वी) राजा बना।
नरवर्मा को निर्वाण नारायण की उपाधि मिली थी। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। उसे राजनीतिक मोर्चे में असफलता मिली। पूर्व में चंदेल शासक मदनवर्मा ने भिलसा के परमार राज्य पर अधिकार कर लिया। उत्तर पश्चिम में चाहमान शासक अजयराज तथा उसके पुत्र अर्णोराज ने नरवर्मा को हराया। अन्हिलवाङ के चालुक्य नरेश जयसिंह सिंद्धराज ने उसके राज्य पर कई आक्रमण किये,जिसमें नरवर्मा पराजित हुआ था।
नरवर्मा का उत्तराधिकारी उसका पुत्र यशोवर्मा (1133-1142 ईस्वी) हुआ। उसके समय चालुक्यों के आक्रमण के कारण मालवा की स्थिति काफी खराब हो गयी थी। यशोवर्मा अपने साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं रखा पाया तथा साम्राज्य बिखरता ही गया। भिलसा पर चंदेल मदनवर्मा का अधिकार हो गया। चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने नाडोल के चाहमान आशाराज के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण कर दिया। यशोवर्मा बंदी बना लिया गया, संपूर्ण मालवा पर जयसिंह का अधिकार हो गया तथा उसने अवन्तिनाथ की उपाधि धारण की।
यशोवर्मा का पुत्र जयवर्मन् उसका उत्तराधिकारी बना। कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल एवं होयसल शासक नरसिंहवर्मन् प्रथम ने मालवा पर आक्रमण कर उसकी शक्ति को नष्ट कर दिया तथा अपनी ओर से बल्लाल को वहां का शासक बना कर संपूर्ण मालवा का क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिया। अगले 20 वर्षों तक मालवा गुजरात का अंग बना रहा। इसके बाद जयवर्मन का पुत्र विन्ध्यवर्मन् सम्राट बना, जिसने चालुक्य नरेश मूलराज द्वितीय को हराकर मालवा पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की।
जयवर्मन् का पुत्र सुभटवर्मन् अगला शासक बना, इसने गुजरात पर आक्रमण कर चालुक्यों के लाट के सामंत सिंह को अपनी अधीनता मानने के लिये विवश कर दिया। डभोई तथा कांबे में कई जैन मंदिरों को उसने लूटा, अन्हिलवाङ को जीता तथा सोमनाथ पर चढाई की। लेकिन भीम के मंत्री लवणप्रसाद ने उसे वापल लौटा दिया। उसके बाद सुभटवर्मन् का पुत्र अर्जुनवर्मन उसका उत्तराधिकारी बना। उसने गुजरात के जयसिंह को पराजित कर उसकी कन्या से विवाह कर लिया। किन्तु यादव वंशी सिंघन ने उसे हरा दिया। मदन तथा आशाराम जैसे विद्वान अर्जुनवर्मन् के दरबार में रहते थे।