जन्तुओं का विस्तार

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संसार में चारों ओर भ्रमण करके जिस किसी ने जंतुजीवन का अध्ययन किया है, वह जानता है कि संसार में जंतुओं का वितरण सर्वत्र एक जैसा नहीं है, यद्यपि संसार के हर कोने में प्राणी मिलते हैं। संसार के हर भाग के जंतु उसके अपने होते हैं, अर्थात् आस्ट्रेलिया में पाए जानेवाले जंतु भारत में नहीं पाए जाते और भारत में पाए जानेवाले जंतु यूरोप में नहीं मिलते। हसका कदाचित् एक कारण यह है कि जानवरों में अनुकूलन शक्ति कम होती है। इसलिये एक भाग की जलवायु में पनपनेवाले प्राणी दूसरे भाग की जलवायु में पनप नहीं पाते। कभी कभी ऐस भी होता है कि किसी विशेष जाति के जानवर के लिये उपयुक्त वातावरण कहीं पर हो, पर वह वहाँ विशेष रुकावटों के कारण पहुँच न सके। कुछ ऐसे भी जानवर हैं जो अपने आदि निवासस्थान को छोड़कर दूसरे देशों को चले गए और वहाँ भली-भाँति पनपे, जैसे खरगोश आस्ट्रेलिया में, नेवला जामेका में और अंग्रेजी स्पैरो अमरीका में।

जंतुओं के वितरण के अध्ययन को 'जंतु-विस्तार-विज्ञान' कहते हैं। यह जंतुशास्त्र की एक विशेष शाखा है। जंतुविस्तार का अध्ययन कई ढंगों से होता है। पहले जानवरों के विस्तार का अध्ययन पृथ्वी की सतह पर किया जाता है, जिसे भौगोलिक विस्तार या क्षैतिज विस्तार कहते हैं। इसके पश्चात् जानवरों के विस्तार का अध्ययन पहाड़ की चोटी से लेकर समुद्र की गहराई तक करते हैं। इसे ऊर्ध्वाधर या शीर्षलंब संबंधी (altitudinal) विस्तार, अथवा उदग्र (bathymetric) विस्तार कहते हैं। इन दोनों विस्तारों को अवकाश में विस्तार कहते हैं। इसके अतिरिक्त जानवरों के ""काल (समय) में विस्तार"" का अध्ययन भी किया जाता है, जिसे भूवैज्ञानिक बिस्तार कहते हैं। इसका अध्ययन भूविज्ञान की सहायता से होता है। प्रत्येक प्राणी का अध्ययन तीनों पक्षों के अंतर्गत हो सकता है, परंतु जंतुविस्तार का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए तीनों पक्षों का अलग अलग अध्ययन करना आवश्यक है।

विस्तार के कारक

संख्या में कितनी ही कम क्यों न हो, पर प्रत्येक जाति का अपना एक क्षेत्र होता है। लंबे समय तक लगातार प्रजनन होते रहने के कारण इनकी संख्या इतनी बढ़ जाती है कि प्रस्तुत क्षेत्र इनके लिय कम हो जाता है; इसलिए क्षेत्र के बढ़ाव के लिए जाति का विस्तार होता है। संख्या में वृद्धि के कारण खाद्य सामग्री में भी कमी हो जाती है। यह भी विस्तार का प्रेरक है। जाति का विस्तार स्थानांतरण से होता है। प्राय: जाति प्राकृतिक रुकावटों को भी पार करके अपना क्षेत्र बढ़ाती है। इस तरह स्पष्ट है कि विस्तार के दो मुख्य कारण हैं :

(1) जीवसंख्या की वृद्धि (population pressure) और

(2) बदलता हुआ वातावरण।

जीवसंख्या में वृद्धि का दबाव तीव्र गति से प्रजनन का कारण होता है। इसी कारण भोजन की कमी हो जाती है और आपस में स्पर्धा बढ़ जाती है। एक ही जाति के सदस्यों के बीच स्पर्धा के साथ साथ अन्य संबंधी जाति से भी प्रतिद्वंद्विता प्रारंभ हो जाती है। इससे वह जाति अपनी सुरक्षा के लिए नए स्थान को चल पड़ती है।

प्रत्येक स्थान का जलवायु परिवर्तनशील होता है, जो सदा धीरे-धीरे बदलता रहता है। ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक है कि लंबी अवधि तक लगातार परिवर्तन होते रहने के पश्चात्, किसी विशेष स्थान का वातावरण उस जाति के रहने योग्य नहीं रह जाता। अब उस जाति के लिए दो ही रास्ते रह जाते हैं, एक है स्थानांतरण और दूसरा विलोप। यदि प्राकृतिक रुकावटों को पार करके बाहर निकलने के साधन प्राप्त हुए, तो वह जाति उस स्थान का छोड़कर नए स्थान पर चली जाती है और यदि ये साधन न हुए और उपयुक्त रास्ते न मिले, तो वह जाति विलुप्त हो जाती है। हाथी और घोड़ों के जीवाश्मों (fossils) के अध्ययन से पता चलता है कि जब भी अवसर मिला, ये एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहे हैं और इसी कारण इनकी जाति विलुप्त होने से बच गई।

विस्तार के साधन

जंतुओं का प्रव्रजन कई मागों से होता है। ये मार्ग वातावरण की परिस्थितियों तथा प्राकृतिक रुकावटों पर निर्भर करते हैं। रुकावटें होने पर भी ऐसे अनेक अन्य साधन रहते हैं, जिनके द्वारा जंतु प्रव्रजन करते हैं, जैसे वायु, जल, पृथ्वी के पुल, प्राकृतिक बेड़े और तैरती हुई लकड़ियाँ आदि।

वायु द्वारा प्रव्रजन

कुछ जानवर अपना क्षेत्र अपनी उड़ान शक्ति की सहायता से बढ़ाते हैं। पक्षी, चमगादड़, तितली तथा उसके संबंधी कीड़े मकोड़े ऐसे प्राणियों के अच्छे उदाहरण हैं। हवा के झोंके और प्रचंड वायु भी जानवरों के विस्तार में सहायता देते हैं। हवा के बहाव की सहायता से पतंगे तथा उनके अन्य संबंधी कीड़े लगातार लंबी उड़ानें भर सकते हैं। एक उल्लेख के अनुसार प्लाइओन (Pleione) नामक एक जहाज को केप वर्ड (Cape Verde) टापुओं से 960 मील दक्षिण-पश्चिम की ओर कुछ फतिंगे मिले थे। ये पूर्वी अयनवृत्तीय देशों के रहनेवाले थे, जिन्हें हवा अपने साथ वहाँ तक उड़ा ले गई थी, मधुमक्खी तथा अन्य कीटों का समागम उड़ान भी इनके विस्तार में सहायता देती है।

पक्षियों का प्रव्रजन वितरण का आश्चर्य में डालनेवाला उदाहरण है। कई सौ से लेकर हजार मील से अधिक तक बड़ी तेजी के साथ उड़ सकते हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि जंगली हंस 60 से लेकर 75 मील प्रति घंटे तक की गति से उड़ता है और अवाबील (Swallow) 90 मील प्रति घंटे की गति से। इसी गति से यह लगातार 10 से 12 घंटे तक उड़ सकती है। पृथ्वी पर रहनेवाली चिड़ियाँ पृथ्वी से दूर ऐटलांटिक महासागर के बीच में पाई गई हैं। इनका प्राय: पूर्वी तथा पश्चिमी प्रचंड हवाएँ अपने साथ उड़ा ले जाती हैं। चमगादड़ सारे संसार में मिलते हैं, समुद्र में स्थित टापुओं में भी। इससे सिद्ध है कि हवा की लहरें जानवरों के विस्तार में सहायता करती हैं।

जल से प्रव्रजन

कुछ जानवरों का प्रव्रजन जल द्वारा होता है। वे या तो स्वयं तैरकर जाते हैं अथवा जल उन्हें बहाकर ले जाता है। कुछ ऐसे हैं, जो पानी पर तैरते हुए कूड़े करकट पर बैठकर चले जाते हैं। पानी पर तैरते हुए लट्ठों, अथवा अन्य वस्तुआं पर बैठकर बहुत से जानवर जलमार्ग पार करते हैं। अनेक ध्रुवप्रदेशीय जानवर बर्फ के टुकड़ों पर बैठकर लंबी यात्राएँ कर डालते हैं। कुछ जानवर इस तरह 240 मील तक लंबी यात्राएँ कर डालते हैं। कुछ जानवर इस तरह 240 मील तक लंबी यात्रा करते पाए गए हैं। ध्रुवप्रदेशीय भालू अपने भोजन की तलाश में इसी तरह बहते हैं।

प्राकृतिक पुलों द्वारा विस्तार

पृथ्वी पर जानवरों का विस्तार किसी विशेष जाति की गति से भी होता है। जानवरों के समूह के समूह एक स्थान को जाते रहते हैं। इस प्रकार के प्रव्रजन की प्रवृत्ति अनेक जाति के जानवरों में पाई जाती है। प्राय: बड़े बड़े महाद्वीपों के बीच पृथ्वी के प्राकृतिक पुल पाए जाते हैं, जिन पर से जानवर आसानी से आ जा सकते हैं। स्वेज़ और पनामा के प्राकृतिक पुल इसके उदाहरण हैं। पनामा का पुल विशेष रूप से रोचक है, इसलिए कि उसकी उत्पत्ति का इतिहास भी हमें भली-भाँति मालूम है।

उत्तर अमरीका और यूरेशिया के जानवरों में भी इसी तरह का संबंध है। पहले ये दोनों महाप्रदेश एक दूसरे से प्राकृतिक पुल द्वारा जुड़े थे। यह प्राकृतिक पुल उस स्थान पर था जहाँ इस समय बेरिंग स्ट्रेट जलसंधि (Bering Strait) है। इसका अलास्का का पुल कहा जाता है।

प्रव्रजन (Migration)

जानवरों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक के आवागमन को प्रव्रजन कहते हैं। वास्तव में प्रव्रजन उस आवागमन को कहते हैं, जो बदलते हुए मौसमों द्वारा प्रेरित होते हैं। जिस प्रकार ऋतुएँ आती जाती हैं और सूर्य की अयनगति होती रहती है, वैसे ही जानवरों के प्रव्रजन भी हुआ करते हैं। अनेक जानवर, जिनमें चलने फिरने की विशेष क्षमता होती है, सूर्य के साथ चलते हैं। जब सूर्य उत्तर की ओर जाता है तब ये उत्तर की ओर जाते हैं और जब दक्षिण की ओर जाता है, तब ये भी दक्षिण की ओर जाते हैं।

प्रव्रजन के दो मुख्य रूप हैं, यद्यपि इन दोनों में विशेष अंतर नहीं है। घास खानेवाले लगभग सभी जानवर समूहों में रहते हैं। इनको अधिक मात्रा में भोजन की आवश्यकता होती है। शीघ्र ही ये किसी स्थान की खाद्य सामग्री खा डालते हैं और दूसरे स्थान को चल पड़ते हैं। इन जानवरों को भ्रमणशील कहते हैं। ये नित्य ही भोजन के अतिरिक्त पानी और हिंसक जानवरों से सुरक्षा की खोज में घूमते रहते हैं।

कुछ जानवर ऋतुपरिवर्तन के साथ-साथ अत्यधिक दूर-दूर तक चले जाते हैं। कुछ पहाड़ की चोटियों पर चढ़ जाते हैं अथवा उनपर से उतर आते हैं। इसको लंबरूप (vertical) प्रव्रजन कहते हैं। पहाड़ की चोटी से नीचे तक ताप, आर्द्रता आदि के स्तर में अधिक अंतर होता है। इसलिए जैसे ही कोई पहाड़ पर चढ़ता है, वह अनुभव करता है कि कई प्रकार की जलवायु से गुजरा है। कुछ जानवर हैं, जो केवल पृथ्वी की सतह पर प्रव्रजन करते हैं। इस प्रकार के प्रव्रजन को क्षैतिज प्रव्रजन कहते हैं। उत्तरी कैनेडा का कैरीबू (caribou) गर्मियों में उत्तर की ओर और हेमंत में दक्षिण की ओर चलता है।

घास खानेवाले जंगली जानवरों के प्रव्रजन के उदाहरण पालतू जानवरों के आवागमन से भिन्न होते हैं। पालतू जानवर चरवाहे के संकेतों पर चलते हैं, परंतु जंगली जानवर अंत: प्रेरणा के बल पर। ऐसा अनुमान है कि उत्तरी अमरीका का गवल (bison) अनेक अक्षांशों से प्रव्रजन कर चुका है। बड़ी बड़ी दूरीवाले प्रव्रजन भी स्थानीय आवागमन के विस्तृत रूप माने जाते हैं, क्योंकि इनका मुख्य कारण भी भोजन की खोज ही है।

प्रव्रजन का दूसरा कारण संतान की सुरक्षा की प्रवृत्ति है। अनेक निम्नस्तर के प्राणी जन्म के समय माता-पिता के रूप से भिन्न होते हैं और भोजन भी भिन्न प्रकार का करते हैं। इसलिए माँ प्राय: ऐसे स्थान में अंडे देती है, जहाँ भविष्य में बच्चों के काम आनेवाली सभी चीजें सुलभ तथा पर्याप्त हों। ऐसा करने के लिए उन्हें अंडा देने के लिए प्राय: दूर दूर तक जाना पड़ता है। ऐसे प्रव्रजन का उदाहरण चिड़ियों में मिलता है। कुछ जंतु अपनी अंत:प्रेरणा के बल पर अपना जन्मस्थान पहचान लेते हैं और अपने बच्चों के लालन-पालन के लिए भी वे अपने जन्मस्थान पर वापस आ जाते हैं। मातृत्वभार से निवृत्त होकर वे पुन: वहाँ चले जाते हैं, जहाँ से आए थे। वहाँ आने पर या तो उनकी मृत्यु हो जाती है या वे दूसरी ऋतु में पुन: अंडे देने के लिए अपनी जन्मभूमि में पहुँच जाते हैं।

प्रव्रजन के ये दोनों रूप समयानुकूल आवागमन के यथार्थ उदाहरण हैं। चाहे प्राणी प्रभावित हो (जैसे पक्षियों में), चाहे एक पीढ़ी (जैसे मछलियों में), ये प्रव्रजन उसी तरह स्वत: (automatic) होते हैं जैसे पृथ्वी की गति (जो कदाचित् इस प्रव्रजन का उत्तेजक है)।

पक्षियों का प्रव्रजन -

यह ऋतुओं की प्रेरणा के कारण होता है। समयानुकूलता तथा गमनस्थानपर पुनरागमन इसकी विशेषता है। कुछ चिड़ियों में अनियमित प्रव्रजन भी मिलता है। इसमें चिड़ियाँ उस स्थान को वापस नहीं हातीं जहाँ से चलती हैं। कुछ प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियाँ सहस्रों मील निल जाती हैं। उदाहरणार्थ कोयल को लीजिए। यह फीजो से न्यूजीलैंड तक जाती है और वापस आती है। यह दोनों स्थान 1,500 मील की दूरी पर हैं। एशिया का सुनहला प्लवर 2,000 मील की दूरी तय करके अलास्का से हवाई तक जाता है, रास्ते में आराम तक नहीं करता। प्रव्रजन क्यों होता हे, इसका मुख्य कारण नहीं मालूम, परंतु कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ मालूम हैं, जिनकी प्ररेणा से प्रव्रजन होता है। इनमें प्रमुख है, पक्षियों की अतिविकसित अंत:प्रेरणा और नए क्षेत्र में भोजन सामग्री की सुलभता।

वितरण बाधाएँ

कुछ जानवर प्राय: एक ही क्षेत्र में सीमित रह जाते हैं। क्षेत्र की भौतिक अवस्था तथा वातावरण के अतिरिक्त जानवरों का आवागमन प्राकृतिक बाधाओं पर भी निर्भर है। ये बाधाएँ भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं :

(1) जलवायु संबंधी, (2) भौगोलिक तथा (3) जीवविज्ञान संबंधी।

जलवायु संबंधी बाधाएँ

इनमें ताप, आर्द्रता तथा प्रकाश उल्लेखनीय हैं। गरमी जानवरों के विस्तार का महत्वपूर्ण कारण है। ताप असमतापी प्राणियों के विस्तार पर अधिक प्रभाव डालता है। असमतापी प्राणियों का ताप वातावरण के ताप के साथ घटता बढ़ता रहता है। इसलिए ये न अधिक गरमी सह सकते हैं और न अधिक सर्दी। उभयचर तथा उरग उष्ण तथा शीतोष्ण भागों में पाए जाते हैं और ध्रुव प्रदेशों की ओर ये कम होते जाते हैं। घड़ियाल उष्ण तथा शीतोष्ण देशों में पाए जाते हैं, कछुए 50 डिग्री उत्तर अक्षांश तक पाए जाते हैं। छिपकली 60 डिग्री अक्षांश के बाद नहीं मिलती। साँपों का क्षेत्र बड़ा है, फिर भी सीमित। यही कारण है कि शीतप्रदेशों में केवल पक्षी और स्तनधारी प्राणी ही पाए जाते हैं।

स्तनधारी प्राणियों में भी कुछ ऐसे हैं, जो ताप के अनुसार पाए जाते हैं। शेर भारत तथा मलाया जैसे उष्ण प्रदेशों का रहनेवाला हैं, परंतु यह कॉकेशस (Caucasus) तथा ऐलटाई (Altai) पहाड़ों की चोटियों और मंचूरिया के ठंडे भागों में भी मिलता है। हाथी भी ठंडक सह सकता है, यदि उसे अधिक मात्रा में जल मिल जाए। भारतीय हाथी ठंडे पहाड़ की चोटियों में वैसे ही आराम के साथ रहता है, जैसे नीचे मैदानों में।

आर्द्रता से बाधा - रेगिस्तान में रहनेवाले जानवरों का अध्ययन बतलाता है कि आर्द्रता का प्रभाव भी जानवरों के विस्तार पर पड़ता है, यद्यपि इनमें भी कुछ जानवर ऐसे मिलते हैं जो अत्यधिक शुष्कता सह सकते हैं। अधिकतर बड़े बड़े रेगिस्तान जानवरों के विस्तार में बाधक बन जाते हैं। सहारा इनमें उल्लेखनीय है। हिरण जैसे तीव्रगामी प्राणी भी पानी की कमी ताप के कारण इनको पार नहीं कर पाते। इसीलिए अफ्रीका जैसे विशाल देश में हिरण नहीं पाए जाते। वे केवल उत्तर में ही मिलते हैं। अन्य देशों में, जहाँ अफ्रीका जैसी जलवायु है, ये बहुत मिलते हैं। अरब का रेगिस्तान भी इसी तरह जानवरों के विस्तार में बाधक बन जाता है। आर्द्रता की वृद्धि भी कुछ विशेष जानवरों के विस्तार में बाधा डालती है। स्पष्ट है कि आर्द्रता की अधिकता से दलदली वातावरण उत्पन्न हो जाता है, जिसे अनेक जानवर विजित नहीं कर पाते।

भौगोलिक बाधाएँ

भौगोलिक बाधाओं के अंतर्गत समुद्रों, नदियों, पहाड़ों तथा रेगिस्तानों की गणना होती है। भारत के उत्तर में हिमालय की विशाल पर्वतमाला है। हर प्रकार के जानवर इसे पार नहीं कर पाते। इसकी हिमाच्छादित चोटियों के ऊपर स चिड़ियाँ तक नहीं उड़ पातीं। इसी कारण इसके उत्तर में पाए जानेवाले प्राणी दक्षिण में पाए जानेवाले प्राणियों से बिल्कुल भिन्न हैं। भूमध्यरेखा के समांतर पर्वतमालाओं का प्रभाव जंतुओं के विस्तार पर, उत्तर-दक्षिण दिशा में स्थित पर्वतमालाओं से अधिक होता है। इस तरह हिमालय पर्वत संसार की सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है। पश्चिमी संयुक्त राज्य की पर्वतमालाएँ विस्तार पर प्रभाव डालती हैं। प्रशांत महासागर से आनेवाली हवाएँ ज्योंही इन पर्वतमालाओं से गुजरती हैं, अपनी नमी छोड़ती जाती हैं और जैसा पहले बतलाया जा चुका है, केवल इस नमी का प्रभाव जंतुविस्तार पर पड़ता है। हिमालय की भाँति उत्तरी अमरीका का पठार भी ऐसी सीमा बनाता है, जिसके इधर उधर के जानवर एक दूसरे से भिन्न हैं।

पृथ्वी के बृहत् जलीय भाग पृथ्वी पर रहनेवाले जानवरों को पृथक् करते हैं। सतह पर बर्फ जमने पर कुछ जानवर उन्हें पार कर सकते हैं। उभयचर उरग और स्तनधारी जानवरों को समुद्रों अथवा अन्य जलीय भागों से काफी हानि पहुँचती है। पक्षी अथवा चमगादड़ उछकर इन जलाशयों को पार कर जाते हैं। मीठे जल में रहनेवाली मछलियों के लिय समुद्री (लवणीय) जल रुकावट बन जाता है। फिर भी कुछ मछलियाँ, सामन (salmon) और स्टर्जियन (sturgeon) हैं, जो साल में एक बार लवणीय जल से मीठे जल में आ जाती हैं। ईल में इसके विपरीत आवागमन होता है। आधुनिक उभयचरों के लिए लवणीय जल गंभीर बाधा खड़ी करता है, क्योंकि लवणीय जल इनके लिए विष का कार्य करता है। इसलिये फीजी, सॉलोमन तथा न्यूकैलेडोनिया आदि टापुओं को छोड़कर अन्य टापुओं तक यह नहीं पहुँचे हैं। दुमवाले उभयचर जैसे न्यूट (newt), सायरन (siren) और सलामैंडर (salamander) इत्यादि केवल पृथ्वी के उत्तरार्ध में पाए जाते हैं, क्योंकि दक्षिणी भाग के महाद्वीप समुद्रों स घिरे हैं। अफ्रीका ओर दक्षिणी भाग के महाद्वीप समुद्रों से घिरे हैं। अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका इनमें ऐसे देश हैं, जो पृथ्वी के मुख्य भागों से जुड़े हैं। किंतु दुमवाले उभयचर इन देशें तक भी नहीं पहुँच पाए हैं, क्योंकि जिन रास्तों पर से ये जा सकते थे वे लंबे हैं और ये जानवर इतने सुस्त हैं कि इतनी दूर वे नहीं जा सकते। पृथ्वी को खेदकर रहनेवाले उभयचर, जिन्हें सिसिलियन कहते हैं, दक्षिणी अमरीका, अफ्रीका, उत्तरी भारत, सुमात्रा, जाव तथा बोर्नियो आदि में पाए जाते हैं। ये सब भूभाग पुराने दक्षिणी महाद्वीप के हिस्से हैं, जो अब अलग हो गए हैं। मेढक तथा उनके संबंधी (बिना दुमवाले उभयचर) का वितरण अधिक है, परंतु वे भी समुद्री टापुओं में नहीं पहुँच पाए हैं।

मगर तथा समुद्री कछुओं जैसे उरगों के लिए समुद्र बाधक नहीं है। यद्यपि इसका ताप इनके आवागमन को सीमित करता है। साँप कुशल तैरनेवाले जानवर हैं, पर वे भी पानी के बड़े विभागों को पार नहीं कर पाते। जल उन पक्षियों के वितरण में बाधक बनता है, जो उड़ नहीं सकते, जैसे शतुर्मुर्ग तथा न्यूज़ीलैंड निवसी चिड़िया कीवी आदि। स्तनधारी प्राणी भी बड़े बड़े जलाशयों को अधिक संख्या में पार नहीं कर पातेद्य ये जल में अधिक से अधिक 50 मील तक तैर सकते हैं। ह्वेल और सील आदि स्तनधारी प्राणी इसके अपवाद हैं, क्योंकि जलाशय इनके वितरण में कोई बाधा नहीं डालते। जैग्वार (Jaguar) जैसे कुशल तैराक दक्षिणी अमरीका की बड़ी से बड़ी नदियों को पार कर जाते हैं, परंतु वे समुद्र में अधिक दूर नहीं जा पाते। शेर, हाथी और हिरण आदि को जल अति प्रिय है, परंतु शायद वे भी पृथ्वी से दूर जाना पसंद नहीं करते। जंतुओं के वितरण संबंधी विशेषज्ञ हीलप्रिन का कहना है कि पृथ्वी पर रहनेवाले बहुत से स्तनधारी प्राणी, जो यूरोप के बड़े से बड़े जलाशयों को पार करने के लिए तत्पर रहते हैं, समुद्र के 50 मील लंबे भाग अथवा इसके आधे से अधिक भाग को ही पार करने के लिये आसानी से तैयार न होंगे।

जीवविज्ञानीय बाधाएँ

ये प्राय: निवासस्थान से संबंधित होती हैं। प्राय: यह देखा गया है कि किसी दूसरे स्थान से आए जानवर नए स्थान में बढ़ नहीं पाते। कभी वे खाद्य सामग्री की कमी से और कभी शत्रुओं की बहुतायत से मर जाते हैं। वनस्पति की घनी पैदावार कुछ जानवरों के वितरण का साधन बन जाती है, तो कुछ के लिए बाधा। वितरण पर वनस्पति का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से पड़ता है। घने जंगलों के पेड़ों पर रहनेवाले जानवर अविरल जंगलों को पार नहीं कर पाते। इसी तरह कहीं कहीं जंगल इतने घने होते हैं कि पृथ्वी पर रहनेवाले बड़े-बड़े जानवर इन्हें पार नहीं कर पाते। मैस्टोडान (Mastodon) के साथ यही हुआ। यह उत्तरी अमरीका से दक्षिणी अमरीका तो आ गया, पर घने जंगलों के कारण मेक्सिको से दक्षिण की ओर नहीं जा सका।

इसी तरह वनस्पति की कमी भी जानवरों के वितरण पर प्रभाव डालती है। वानर-गण (प्राइमेटीज़ Primates) उष्ण प्रदेशों के घने जंगलों में रहते हैं और वृक्ष उनकी सुरक्षा, आवागमन तथा भोजन के लिए आवश्यक होते हैं। ये फल, फूल एव कलियाँ तथा वृक्षों पर रहनेवाले कीड़े और पक्षियों को खाते हैं। यदि उपयुक्त जंगल न मिलें तो इनका निर्वाह नहीं हो सकता। इसीलिए जंगलविहीन भागों में प्राइमेटीज़ नहीं पाए जाते। घने जंगलों के रहनेवाले पक्षी तथा कीड़े भी जंगलविहीन भागों में नहीं पाए जाते।

पृथ्वी को खोदकर रहनेवाले जानवरों के लिए मिट्टी बाधक बन जाती है। फैरीटाइमा नामक केचुआ विशेष प्रकार की मिट्टी में पाया जाता है और यूटाफियस दूसरे प्रकार की मिट्टी में। कुछ जानवर हैं, जो सूखी रेतीली जमीन में बिल बना सकते हैं, तो कुछ हैं जो नम और चिकनी मिट्टी में बिल बनाते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मिट्टी की भौतिक, रासायनिक एवं जीवविज्ञानीय अवस्था भी जंतुवितरण में रुकावट बन जाती है। इस तरह की बाधा को भूमि संबंधी बाधा (edaphic barrier) कहते हैं।

जन्तुभूगोल

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बाहरी कड़ियाँ