छेरा रोग
छेरा रोग (Fasciolosis) पशुओं की यह एक परजीवी बीमारी है। यह बीमारी पशुओं में एक प्रकार के परजीवी (लिवर-फ्लूक तथा फैसिओला/Fasciola gigantica) से होती है। ये दोनों परजीवी अपने जीवन का कुछ समय नदी, तलाब, पोखर आदि में पाये जाने वाले घोंघा में व्यतीत करते है और शेष समय पशुओं के शरीर (यकृत) में। घोंघा से निकलकर इस परजीवी के अवस्यक र्लावा नदी, पोखर, तालाब के किनारे वाले घास की पत्तियों पर लटके रहते है। पशु जब इस घास के संपर्क में आते है, तो ये परजीवी पशुआें के शरीर में प्रवेश कर जाते है। शरीर के विभिन्न आंतरिक अंगों में भ्रमण करते हुए अंततः ये अपना स्थान पशु के यकृत (लीवर) तथा पीत की थैली (पित्ताशय) में बना लेते हैं। पशुओं का यकृत जैसे-जैसे प्रभावित होता है, वैसे-वैसे रोग के लक्षण प्रकट होते जाते है। बीमारी की तीव्रता यकृत के नुकासान की व्यापकता पर निर्भर करती है।
लक्षण
- भूख में कमी होना
- रोएं का भींगा-भींगा प्रतीत होना
- शरीर का क्षीण होते जाना
- कभी-कभी बदबूदार बुलबुले के साथ पतला दस्त
- घोघ फूल जाना
- उठने में कठिनाई होना
- उत्पादन क्षमता का ह्रास होना
- ससमय उचित इलाज न होने पर पशु की मृत्यु भी हो सकती है
उपचार
- शुरू से ही सतर्कता बरतने पर पशु आसानी से ठीक हो जाते हैं।
- पशु चिकित्सक के परामर्श से रोग ग्रस्त पशु की चिकित्सा करावें।
- कृमिनाशक दवा, विशेषकर ऑफ सीक्लोजानाइड (1 ग्राम प्रति 100 किलो ग्राम पशु वजन के लिए) का प्रयोग करना चाहिए।
- दवा सुबह भूखे/खाली पेट में खिलायी/पिलायी जानी चाहिए।
- इस दवा का व्यवहार पशुओं के गर्भावस्था के दौरान भी बिना किसी विपरीत प्रभाव के किया जा सकता है।
- साल में दो बार प्रत्येक बार में 15 दिनों के अन्तर पर दो खुराक दवा का प्रयोग करना चाहिए।
- पशु संसाधन विभाग की ओर से राज्य के पशु-चिकित्सालयों में इस दवा की निःशुल्क व्यवस्था की जाती है।
- बाढ़ प्रभावित तथा जल जमाव वाले क्षेत्रों के पशुपालकों को इस रोग से अधिक सतर्क रहने की जरूरत है।