चित्र
चित्र(कला)
चित्र कला की एक भारतीय शैली है, जिसमें पेंटिंग, स्केच और किसी भी कला का चित्रण शामिल है। चित्र शब्द का सबसे पहला उल्लेख हिंदू धर्म के कुछ प्राचीन संस्कृत ग्रंथों और बौद्ध धर्म के पाली ग्रंथों में मिलता है।
नामपद्धति
‘चित्र’ एक संस्कृत शब्द है, जो ऋग्वेद के स्तोत्रों (1.71.1 और 6.65.2) में उल्लिखित है। ऋग्वेद और अन्य ग्रंथों, जैसे वाजसनेयी संहिता, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और तांड्या ब्राह्मण में चित्र का अर्थ है "उत्कृष्ट, स्पष्ट, उज्ज्वल, रंगीन, कुछ भी- जो चमकीले रंग का है और आंख पर प्रभाव डालता है, शानदार ढंग से अलंकृत, आश्चर्यजनक अद्भुत "। महाभारत और हरिवंश में, इसका अर्थ है- "चित्र, स्केच, फैलाव", और वहाँ इसे कला की एक शैली के रूप में दर्शाया गया है। सामान्यतया चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद के कई ग्रंथ चित्र शब्द का उपयोग पेन्टिंग के अर्थ में और चित्रकार शब्द का उपयोग पेन्टर के रूप में करते हैं। उदाहरणार्थ संस्कृत व्याकरणविद् पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी के पद 3.2.21 में इसी अर्थ में चित्रकार शब्द पर प्रकाश डाला है। चित्रों को प्रदर्शित करने के लिए हॉल और सार्वजनिक स्थानों को चित्रशाला कहा जाता था और इनका सावप्रथम ज्ञात उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है।
कश्यप शिल्प जैसे कुछ क्षेत्रीय ग्रंथ चित्रकला का उल्लेख अन्य शब्दों के माध्यम से करते हैं। उदाहरणार्थ आभास (जिसका शाब्दिक अर्थ "सादृश्य, चमकता हुआ" है) का उपयोग कश्यप-शिल्प में चित्रकला की एक विस्तृत श्रेणी के रूप में किया गया है, जिसके तीन प्रकारों में से एक चित्र है। [5] कश्यप-शिल्प के खंड 4.4 में छंद में कहा गया है कि तीन प्रकार के चित्र हैं –(i) वे जो अचल हैं (दीवारें, फर्श, टेराकोटा, प्लास्टर),(ii) जंगम, और (iii)वे जो चल-अचल (पत्थर, लकड़ी, रत्न) दोनों हैं। कश्यप-शिल्प के अनुसार इन तीनों में से प्रत्येक के तीन वर्ग हैं - अर्धचित्र, चित्र और चित्र-आभास।