चन्दन

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amrutam अमृतमपत्रिका, ग्वालियर [१]

चन्दन चित्त की चंचलता स्थिर रखने में अत्यन्त हितकारी है।

चन्दन की माला गले में पहिनने से मानसिक क्लेश ओर तनाव दूर होता है।

आयुर्वेद दवाओं में चन्दन का उपयोग दिमागी रोगों को ठीक करने में उपयोगी है। अमृतम ब्रेन की गोल्ड माल्ट ओर टेबलेट चन्दन से निर्मित ओषधि है।

स्कंदपुराण के अनुसार चन्दन घिसने से दुर्भाग्य दूर होता है।

गर्मी में चन्दन का एक ग्राम पाउडर, मिश्री मिलाकर दूध से लेवें, तो नकसीर में आराम मिलता है।

चन्दन का तिलक या त्रिपुण्ड माथे/मस्तिष्क पर लगाकर साधना करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है। चन्दन के बारे में शास्त्रमत जानकारी-

!!चन्दनम् - चन्द्रति आल्हादयतीति, 'चदि आहादे'!!(जो मन एवं शरीर को आल्हाद प्रदान करता है।)

चन्दन के अनेक नाम हैं…

हि०-चंदन, सफेद चंदन वं०- म०-चंदन क० श्रीगन्धमर गु०-सुखड़ ता०-चंदन मरं ते०-गंधपु चेक्का | फा०-सदले सफेद। अ०-संदले अव्यज अं०-Sandalwood (सॅन्डलवुड)। o-Santalum album Linn (सॅन्टॅलम् अॅल्बम्) Fam. Santalaceae (सॅन्टॅलेसी) । शुद्ध चन्दन के वृक्ष मैसूर, कुर्ग, कोयम्बटूर एवं मद्रास के दक्षिणी भागों में १२०० मी. की ऊंचाई तक उत्पन्न होता है तथा इसकी उपज भी की जाती है। करीब ६००० वर्ग मील का क्षेत्र इससे व्याप्त है जिसमें से ८५% भाग मैसूर एवं कुर्ग में है। कहीं-कहीं वाटिकाओं में भी रोपण करते हैं। इसका वृक्ष-सदाहरित, २५ मी. तक ऊँचा एवं अर्धपराश्रयी स्वरूप का होता है क्योंकि यह दूसरे आस-पास के घास, झाड़ी, क्षुप एवं वृक्षों से कुछ अंशों में पोषक द्रव्यों का शोषण करता है। उद्भेद के कुछ महीने पश्चात् ही इसके मूल आसपास के पेड़-पौधों के मूल में घुस जाते हैं तथा उनसे खाद्य द्रव्यों का शोषण करते हैं। छोटे पौधों को बहुत सावधानी के साथ इतर पोषित (Host) वृक्षों के साथ पुन: रोपण किया जाता है। यदि सावधानी के साथ रोपण न किया जाय और पास-पास रोपण किया जाय तो स्पाइक (Spike) नामक रोग से ये बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। चन्दन की छाल कालापन ये युक्त भूरे रंग की, अन्तर छाल-लाल, लकड़ी-तेल युक्त दृढ़ और सार भाग-पीलापन युक्त भूरे रंग का तथा सुगन्धित होता है पत्ते-विपरीत ऊपर नीचे के ९० कोण पर, ५-७.५ से.मी. लम्बे, अंडाकार लट्वाकार एवं उपपत्र रहित होते हैं। फूल-छोटे, निर्गन्ध, जामुनी रंग के तथा गुच्छों में आते हैं। फल-मांसल, गोल एवं कृष्णाभ बैंगनी रंग के होते हैं इसका केवल काष्ठसार ही सुगंधित होता है। कठिन, पहाड़ी तथा लाल भूमि में उत्पन्न वृक्षों में तैल अधिक होता है। उपजाऊ भूमि में तैल की मात्रा कम होती है। इसके वृक्षों को यद्यपि अन्य स्थानों में रोपित करने का प्रयत्न किया गया तथापि उसमें बहुत कम सफलता मिली। चन्दन के वृक्ष १८-२० वर्षों में परिपक्व होते हैं तब इसमें काष्ठसार सतह से २ से.मी. अंदर तक विकसित हो जाता है। इस अवस्था में वृक्षों को काटते हैं। बाहर की छाल एवं बाहरी रसकाष्ठ (Sapwood-सॅपवुड) तथा डालियाँ जो गंधहीन होती है उन्हें फेंक दिया जाता है। अंदर के काष्ठसार (Heart wood-हार्टवुड) को करीब १ मी. लम्बे टुकड़ों में फाटकर बंद गोदामों में सूखने के लिये रख दिया जाता है। ऐसा समझा जाता है कि इससे इसको सुगन्ध और अच्छी हो जाती है। वृक्ष का तिहाई भाग करीव काष्ठसार होता है। काष्ठसार के टुकड़ों तथा बुरादे से आसवन (Distillation-डिस्टिलेशन) के द्वारा तैल निकालते हैं। इसको उदनशीलता कम होने के कारण एवं इसका काष्ठ अधिक सङ्घन होने के कारण तैल बहुत धीरे-धीरे निकलता है तथा इसमें व्यय भी अधिक होता है।

चन्दन के मूल से भी तैल निकाला जाता है जो काष्ठ की अपेक्षा अधिक मात्रा में एवं अधिक अच्छा होता है। औसतन १ टन (२८ मन) काष्ठ से १०५-११० पौण्ड तैल निकलता है। अधिकांश वृक्षों पर राज्य का अधिकार है तथा बंगलौर एवं मैसूर में इसके तैल निकालने के कारखाने है। इन राज्य को अमेरिका आदि देशों में इसके निर्यात से बहुत आमदनी होती है। अन्य देशों में कुछ ऐसे वृक्ष पाये गये हैं जिनसे भारतीय चन्दन तैल सदृश तैल प्राप्त होता है लेकिन वह उतना अच्छा नहीं होता पूर्वी जावा से चन्दन के ही पृथक्ष से निकाला हुआ मॅकेन्सर सॅन्डलवुड ऑइल (Macassar sandalwood oil) आता है लेकिन उसमें भारतीय तैल जैसी सुगंध नहीं होती। पेस्ट इन्डियन सॅन्डलवुडू ऑइल (West Indian sandalwood oil) चंदन के वृक्ष से नहीं निकालते वरन् फ्यूरॉनस् अॅक्यूमिनेटस् (Fusonus acuminatus) से निकालते हैं तथा इंस्ट अफ्रिकन सॅन्डलवुद ऑइल (East African sandalwood oil), ॲसिरिस् टेनुइफोलिया (Osyris Temifolia) से निकालते हैं। वेस्ट ऑस्ट्रेलियन् सॅन्डलवुड ऑइल (West Australian sandalwood oil) यह फ्यूसनस् स्पाइकॅटस् (Fusanus spicatus) से निकालते हैं जो कुछ परिवर्तन करने के पात भारतीय तैल जैसा बन जाता है एवं व्यापार में भारतीय तैल को प्रतिद्वन्द्रिता कर सकता है। चन्दन के भेद-प्राचीन निघण्टुकारों में चन्दन के कई पेद लिखे है . नि. में चन्दन (श्वेतचन्दन), रक्तचन्दन, कुन्नन्दन, कालीयक और बर्बरीक ये पाँच प्रकार के चन्दन के भेद लिखे है। य. नि. में बेह और सुनकांड नामक (श्वेत) चन्दन के दो भेद एवं रक्त चन्दन, पतंग (कुचन्दन), कालीगक, बर्बरक के तथा हरिचन्दन ये सब मिलाकर ७ प्रकार लिखे हैं। भावकाश में चन्दन, रक्तचन्दन, कालीयक (पीतचन्दन) एवं कुचन्दन (पांग) ये ४ भेद लिखे हैं. नि. ने हरिचन्दन का स्वतन्त्र उल्लेख न करके रक्तचन्दन के पर्याय में हरिचन्दन लिखा है तथा भावप्रकाशकार ने कालीयक (पीतचन्दन) के पर्याय में हरिचन्दन को लिखा है। आचार्य प्रि.न. शर्माजी लौंग के काष्ठसार को हरिचन्दन मानते हैं (द्रगु-५, ३०३)। श्वेत. नि. श्वेतचन्दन के दो भेद किये है। आई अवस्था में वृक्ष को काटने पर प्राप्त चन्दन को बेट्ट संज्ञा दी है। अपने आप वृक्ष के सूख जाने पर काटे हुए चन्दन को सुक्कड़ कहा है। कुछ लोगों का मत है कि मलय पर्वत के पास के बेट्ट नामक पर्वत से प्राप्त चन्दन 'बेट्टचन्दन' है। इसी प्रकार 'र' नामक चन्दन का जो भेद लिखा है वह भी श्वेत ही होता है तथा यह बबर नामक पहाड़ पर उत्पन्न होता है। प. नि. इसे निर्गन्ध एवं रा. नि. सुगन्धयुक्त मानते हैं। श्वेतचन्दन के जो अन्य पर्याय भद्रश्री, सैतपर्ण एवं गोशीर्ष आदि दिये गये हैं ये मलय पर्वत, तिलपर्ण तथा गोशीर्ष पर्वत पर पाये जाने वाले चन्दनों के नाम हैं, ऐसा मानते हैं। "चन्दन के प्रयोग के सम्बन्ध में लिखा है- 'उक्ते चन्दनशब्दे तु गृह्यते रक्तचन्दनम् । चूर्णस्नेहासवा लेहाः साध्याः यवलबन्दनैः । कषायलेपयोः प्रायो युज्यते रक्तचन्दनम् ।।' योग में सामान्य चन्द्रन शब्द से रक्तचन्दन का ग्रहण करना चाहिये। चूर्ण, तैल, घृतादि, आसव-अरिष्टादि एवं लेह में चन्दन श्वेत चन्दन का ग्रहण करना चाहिये तथा कषाय स्वरस आदि एवं लेप के लिये रक्तचन्दन का करना चाहिये। चरक के कई गणों में चन्दन का उल्लेख एवं सुश्रुत के कई गणों में चन्दन तथा कुचन्दन का प्रयोग आया है। सालसारादि गण में कालीदक का भी उल्लेख है। इल्हण ने सालसाग्रदिगण एवं पटोलादिगण में कुचन्दन का अर्थ रक्त चन्दन किया है। जब कुचन्दन से रक्त चन्दन एवं चन्दन से भी रक्त चन्दन लिया जायेगा तो दो अलग-अलग लिखने का क्या अभिप्राय है? सु. सू. अ. ३८ में प्रियंग्वादिगण में कुचन्दन का अर्थ रक्त चन्दन न करके मलयादि चन्दन किया है तथा चन्दन का अर्थ रक्त चन्दन किया है। गुडूच्यादिगण में चन्दन से रक्तचन्दन लिया है। इस प्रकार चढ़ने रक्तचन्दनम्' यह उचित नहीं मालूम पड़ता तथा चूर्णादि में श्वेत एवं कषायादि में रक्तचन्दन का प्रयोग भी ऋषि सम्मत नहीं मालूम पड़ता। जिस प्रकार का प्रयोग हो वैसा अर्थ लेना चाहिये। सुगन्ध आदि के लिये श्वेत चन्दन एवं रक्तपित्तादि में रक्त चन्दन का प्रयोग उचित है।

चन्दन के रासायनिक संगठन- इसके काष्ठसार में २.५-६% तक एक उड़नशील तैल, राल एवं दैनिक एसिड आदि पदार्थ पाये जाते हैं। चन्दन का तेल हलके पीले रंग का, गाड़ा, चिपचिपा, स्वाद में कड़वा एवं किंचित् तीता तथा तीव्र विशिष्ट गन्धवाला होता है। यह २० से. उष्णता पर ५ भाग मद्यसार (७०%) में घुल जाता है। इसका विशिष्ट गुरुत्व ०.९७३-०.९८५ होता है। इस तैल में ९०% तक अॅल्फा-सॅण्टेलॉल एवं मोटा

सॅण्टेलॉल (a-santalol and B-santalol, Cis H O) नामक दो साभाजिक (Isomeric आइसोमेरिक्) सेस्क्विटपॆन् अॅल्कोहोल्स (Sesquiterpene alcohols) पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त इस तैल में अल्डिहाइड्स (Aldehydes) एवं कीटोन (Ketone) द्रव्य पाये जाते हैं। इस तैल में देवदार का तेल (Cidarwood oil) १०% तक एवं रेडी का तेल आदि अन्य तैलों की मिलावट की जाती है जिनकी पहचान इसके भौतिक परिवर्तन से की जा सकती है। गुण और प्रयोग-श्वेत चन्दन- कड़वा, शीतल, रूक्ष, दाहशामक, पिपासाहर, ग्राही, हृदयसंरक्षक, विषघ्न, वर्ण्य, कण्डन, वृष्य, आह्लादकारक, रक्तप्रसादक, मूत्रल, दुर्गन्धहर एवं अंगमर्द-शामक है। इसका उपयोग ज्वर, रक्तपित्त, पैत्तिक विकार, तृषा, दाह, वमन, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, रक्तमेह, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, उष्णवात (सोजाक), रक्तातिसार तथा अनेक चर्मरोगों में किया जाता है। (१) पित्तज्वर, तीनज्वर एवं जीर्णज्वर में चंदन के प्रयोग से दाह एवं तृषा की शांति होती है तथा स्वेद उत्पन्न होकर ज्वर भी कम होता है। ज्वर के कारण हृदय पर जो विषैला परिणाम होता है, वह भी इसके देने से नहीं होता है। (२) नारियल के जल में चन्दन घिसकर २० मि.ली. की मात्रा में पिलाने से प्यास कम होती है। (३) चन्दन को चावल को धोवन में घिसकर मिश्री एवं मधु मिलाकर पिलाने से रक्तातिसार, दाह, तृष्णा एवं प्रमेह आदि में लाभ होता है। इसी प्रकार मूत्रदाह, मूत्राघात, रक्तमेह एवं सोजाक में चन्दन को चावल की घोवन में घिसकर मिश्री मिलाकर पिलाते हैं। (४) आंवले के रस के साथ चन्दन देने से वमन बंद होता है। (५) दुर्गंध युक्त श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर एवं प्रमेह आदि में चंदन का क्वाद उपयोगी है।

(६) ग्रीष्मऋतु में शीतल, आहाददायक पेय के रूप में चन्दन पानक (शरबत) का उपयोग किया जाता है। इससे आमाशयगत उष्णता कम होती है। हृदय, यकृत तथा आमाशय को बल प्राप्त होता है एवं दाह, तृष्णा शांत होती है।

(७) त्वक् शोथ, विसर्प, फोड़े-फुन्सी, कण्डू, अत्यधिक स्वेद एवं अन्हौरी आदि में चंदन एवं कपूर, गुलाबजल में घिसकर लगाते हैं। ज्वर में शरीर में पीड़ा हो तब इसको लगाने से लाभ होता है। शिरःशूल में लगाने से शिरःशूल दूर होता है।

चन्दन का तैल- यह उत्तम मूत्रजनन, मूत्रमार्ग के लिये प्रतिदूषक, वृक्कोत्तेजक, त्वग्दोषहर, कृमिघ्न, कफनि:सारक एवं स्नेहन है। इससे वृक्क को कोई नुकसान नहीं होता। इसका उत्सर्ग मूत्रजननेन्द्रिय संस्थान तथा फुफ्फुसों द्वारा होता है और उत्सर्ग के समय इनके खावों की वृद्धि होती है तथा जीवाणुनाशन भी होता है। सेवन के पश्चात् गले में खुश्की एवं प्यास तथा अधिक मात्रा में शूलवत् वेदना एवं कटिप्रदेश में भारीपन मालूम होता है।

इसका प्रयोग सोजाक, बस्तिशोथ, गयोनीमुखशोध, जीर्णकास, विषम ज्वर एवं खुजली (पामा) में तथा सुगन्ध के लिये किया जाता है।

(१) नये अथवा पुराने सोजाक में इसको १५-२० बूंद दिन में ३ बार देने से बहुत लाभ होता है। यदि जलन अधिक हो तो ५-१० बूँद हर घंटे पर दें। कोपाइबा (Copaiba) की तरह इससे

मूत्रादि में दुर्गन्ध नहीं आती। इसे पूयलाव बंद होने के २ हफ्ते बाद तक देना चाहिये जिससे फिर से न हो। इसमें इलायची एवं वंशलोचन के साथ सोठ या अजवायन के फांट के साथ भी इसका प्रयोग किया जाता है।

(२) जीर्ण पस्तिशोध (Cystitis), गवनीमुख शोच (Pyelitis), बस्ति के राजयक्ष्मा उपसर्ग से यदि बार-बार पेशाब होती हो एवं मूत्रकृच्छ्र में इसको बताशे में डालकर दूध के साथ देते हैं। यह क्षारीय मूत्र में ही प्रतिदूषक का कार्य करता है इसलिये साथ में क्षारीय औषधों का प्रयोग आवश्यक है।

(३) दुर्गन्धित कफयुक्त कास में २-३ बूंद बताशे पर डालकर देते हैं।

(४) खुजली (प्रामा-Scabies) में इसको लगाने से लाभ होता है। कर्णशूल, दंतशूल एवं शोध आदि पर तथा अनेक चर्मरोगों में इसका स्थानिक उपयोग किया जाता है। नाक पर की फुन्सियों पर दुगुने सरसों के तेल में मिलाकर इसे लगाते हैं।

चन्दन के बीज-पेसरी के रूप में गर्भपात के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। मात्रा-चूर्ण २४ प्रा. तैल ५-१५ बूँद ।

अथ पीतचन्दनम् । (कलम्बक इति लोके) । तस्य नामानि गुणा

कालीयकंतु कालीये पीताभं हरिचन्दनम् ॥१४॥ हरिप्रियं कालसारं तथा कालानुसार्यकम्। कालीयकं रक्तगुणं विशेषाद् व्यङ्गनाशनम् ॥१५॥ पीत चन्दन अर्थात् जिसे लोक में 'कलम्बक' कहते हैं उसके नाम तथा गुण-कालीयक, कालीय, पीताभ, हरिचन्दन, हरिप्रिय, कालसार तथा कालानुसायक ये सात पीले चन्दन के संस्कृत नाम है। पीलाचन्दन-गुणों में रक्तचन्दन के समान ही होता है किन्तु विशेषता यह है कि यह विशेष रूप से व्यङ्ग (मुख की शॉई) को भी दूर करने वाला होता है। [२४-१५] ७. पीतचन्दन

हि०-पीतचन्दन, मौला चन्दन, कलंबक बं०-पिवले चन्दन फा०-संदल अबियज । नवीन औद्धिदी विशों के अनुसार पाँत चन्दन का स्वतन्त्र कोई वृक्ष नहीं पाया जाता। ध. नि. एवं भावप्रकाश में उत्तम श्वेत चन्दन के विषय में लिखा है कि 'कषे पीतम्' अर्थात् घिसने पर जो पीतवर्ण का हो वह उत्तम श्वेत चन्दन होता है। इसी प्रकार ध. नि. में 'मलयोत्थम् पीतकाष्ठम् चतुर्थं हरिचन्दनम्', लिखा है जिससे ज्ञात होता है कि पीतचन्दन मलयपर्वत पर ही होता है। श्वेत चन्दन का उत्पत्ति स्थान भी मलय पर्वत दिया हुआ है। इस प्रकार उत्पत्ति स्थान एवं घिसने पर पीतवर्ण, दोनों चन्दनों के एक ही है, केवल ऊपर से देखने में पीत चन्दन कुछ अधिक पीला तथा श्वेत चन्दन पीताभ श्वेत होता है। इसलिये यदि उत्तम पीतवर्ण के काष्ठसार को पीतचन्दन एवं कुछ श्वेत वर्ण के काष्ठसार को श्वेत चन्दन मान लिया जाय तो पीत चन्दन की संगति लग सकती है। दूसरा द्रव्य जिसकी तरफ ध्यान जाता है वह है कलंबा (Calumba)। यह अफ्रीका में होने वाली एक लता जेटिओह्लाइझा पामेटा (Jateorhiza palmala Miers; Fam. Menispermaceae) के पीतवर्ण के मूल के टुकड़े हैं जिनका आधुनिक चिकित्सा में तिक्त पौष्टिक एवं दीपन द्रव्य के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह भारत में भी लगाई हुई मिलती है एवं इसका भारतीय प्रतिनिधि है 'झाड की हलदी' (हरि. वर्ग में श्लोक सं. २०४-२०५ देखें) जिसको दक्षिण में दारुहरिद्रा के स्थान पर व्यवहार करते हैं। इस भारतीय द्रव्य को सौलोन कलंबा या नकली कलंबा भी कहा जाता है। दारुहरिद्रा के पर्यायों में भी 'कालीयक' आता है। इन बातों से ऐसा आभास होता है कि संभवतः 'झाड़ की हलदी' (नकली कलंबा) या कलंबा पीतचन्दन हो कालानुसारी से दक्षिण (कोडकल) में मेथिका का ग्रहण किया जाता है। मेथिका नाम बृहत्रयी में नहीं है।

अथ रक्तचन्दनम्। तस्य नामानि गुणाचाह रक्तचन्दनमाख्यातं रक्ताङ्गं क्षुद्रचन्दनम्। तिलपर्ण रक्तसार तत्प्रवालफलं स्मृतम् ॥१६॥

रक्तं शीतं गुरु स्यादुच्छर्दितृष्णाऽस्त्रपित्तहत् । तिक्तं नेत्रहितं वृष्यं ज्वरव्रणविषापहम् ॥१७॥ लाल चन्दन के नाम तथा गुण-रक्तचंदन, रक्तशुद्रचंदन, तिलपर्ण, रक्तसार और प्रवालफल ये सब लाल चंदन के संस्कृत नाम है। लाल चन्दन- शीतवीर्य, गुरु, स्वादु तथा तिक्त रस युक्त तथा वमन, प्यास और रक्तपित्त को दूर करने वाला होता है। यह नेत्रों के लिये हितकर, वृष्य और ज्वर, व्रण तथा विष को दूर करने वाला होता है। [१६-१७]

८. लालचन्दन

हि०-लाल चंदन, रक्तचंदन। बं०- म०-रक्तचंदन गु० - रतांजली । ते०- रक्तचंदनम् । ता०- शेन् चंदनम्। पं० मा० साल चंदन। मला० रक्तचंदनम्। फा०-संदले सुर्ख। अ०-संदले अहमर। अं० Red Sanders Wood (रेड‌ सॅण्डर्स वुड); Red Sandal Wood (रेड सॅण्डल वुड)। ले० Pterocarpus santalinus Linn. f. (प्टेरोकार्पस् सॅन्टॅलिनस्) Fam. Leguminosae (लेग्युमिनोसी); Syn. Fabaceae यह दक्षिण भारत में विशेष कर कुडापा, उत्तर आरकोट, कर्नूल के दक्षिण भाग एवं चिंगलपुट में ३०० मी. की ऊँचाई तक पाया जाता है। यह दक्षिण भारत तथा फिलीपाइन द्वीपों में नैसर्गिक रूप में उत्पन्न होता है।

इसका वृक्ष-८ मी. तक ऊँचा होता है। छाल-कालापन युक्त भूरे रंग की, लकड़ी-दृढ़ तथा काष्ठसार अत्यंत कठिन एवं कालापन युक्त लाल रंग का होता है पत्ते-संयुत्ता, प्रायः पत्रक तीन, ३-७.५ से.मी. लम्बे गोलाई युक्त अंडाकार एवं कुण्ठिताम होते हैं। पत्तों के अधोपृष्ठ हल्के वर्ण के एवं मृदु रोमश होते हैं। फूल-अल्प, पीताभ श्वेत एवं सर्वतकाण्डज गुच्छों में है। फलियाँ फरीष ३ से.मी. व्यास की, टेडी, आधार की तरफ कम चौड़ी एवं छोटे से डंठल से युक्त होती हैं।

इसके काष्ठसार का औषध में व्यवहार किया जाता है। यह गहरे काले से लाल रंग का, अत्यंत कठोर, वजन में भारी एवं रेशेदार होता है यह लम्बाई में आसानी से टूट जाता है। इसके सफाई से कटे हुये अनुप्रस्य विच्छेद में (Transverse section) वार्षिक चक्र (Annual rings) नहीं होते किन्तु गहरे रंग की धन काष्ठतंतुओं (Wood fibres) की स्पर्श समतलीय (Tangential) पट्टियाँ (Bands) होती हैं जो कम चौड़ी, हलके रंग की काष्ठ संतुभित्तिक (Wood parenchyma) की करीब-करीम संतत पट्टियों से एकांतरित रहती है। इन पट्टियों के अन्दर के किनारों पर महावाहिनियाँ (Vessels) दूर-दर पर विन्यस्त रहती हैं। इन पट्टियों को समकोण में काटती हुई अत्यंत महीन, हलके रंग की मज्जक किरणें (Medullary rays) होती है जो १० गुना बड़ा करके ही देखी जा सकती है। इसका बुरादा बाजार में मिलता है। इससे मधसार का रंग गहरा लाल हो जाता है लेकिन जल में बहुत कम इसका है भाग पुलता है। इसमें गन्ध नहीं होती तथा स्वाद कुछ कसैला होता है। विशेष—यद्यपि इसे रक्तचंदन कहा गया है तथापि इसमें चंदन के समान सुगंध नहीं होती। रा. नि. में एक सुगंधियुक्त लालचंदन का उल्लेख 'हरिचंदन' नाम से किया है लेकिन यह भी लिखा है कि यह दिव्य होता है एवं दुर्लभ होता है। कुछ लोगों ने रक्तचंदन से पतंग का महरा किया है क्योंकि वह भी रक्तचंदन से मिलता-जुलता होता है लेकिन यह इस वृक्ष से अलग फूल है जिसका आगे वर्णन दिया गया है। 'निषण्टुआदर्श' में कुचंदन का से. नाम अनेन्देश नना लिन. (Adenanthera pavonina Linn.) बं०-रक्तकंबल; बम्ब-थोरलीगुक, बाल, हि०-बड़ी गुमची, रक्तचंदन लिखकर 'वनौषधि दर्पण' से उद्धृत् उसकी टौका में लिखा है कि कुचंदन यह रा. नि. का पतंग है जिसका रक्तचंदन के स्थान पर प्रयोग किया जाता है। लेकिन पतंग का वृक्ष अलग होता है जिसे सिझल्पिनिआ सम्पन कहते हैं। यही धुनची को रक्तचंदन अथवा पतंग मानना उचित नहीं इस प्रकार रक्तचंदन एवं पतंग के अलग अलग वृक्ष पाये जाते हैं केवल रा. नि. का सुगंध युक्त लालचंदन (हरिचंदन) अभी तक नहीं प्राप्त हो सका है। संभव है वनस्पतियों का व्यापक अनुसंधान होने पर इस विषय का अंतिम निर्णय किया जा सके ।। रासायनिक संगठन- इसमें सॅन्टलिन् (सॅन्टलिक एसिड) [ Santalin (santalic acid)] नामक एक रक्षक द्रव्य तथा डेस्ऑक्सि सॅण्टलिन नामक एक अन्य पदार्थ पाया जाता है। सॅन्टॉल से सार में रक्त के समान लाल रंग, इंदर में पीला, अमोनिया एवं दाहक क्षार में मीललोहित रंग आता है। यह जल में नहीं घुलता। इसके अतिरिक्त लालचन्दन में स्टेरोकार्पिन (Pterocarpin), होमो-प्टेरोकार्पिम (Homo-pterocarpin) एवं सॅन्दाल ये तीन रंगहीन रवेदार पदार्थ पाये जाते हैं। इसमें मद्यसार में घुलनशील पदार्थ २% से कम एवं राख २% से अधिक न होनी चाहिये। इसके मद्यसारीय घोल से इसके रंग को खनिज अम्लों (Mineral acids) के द्वारा निस्सादित (Precipitated) किया जा सकता है। गुण और प्रयोग रक्तचन्दन शीतल, बल्य, सौम्य एवं ग्राही है। इसका बाह्य लेप शीतल, सोवन एवं व्रणरोपक है। इसका प्रयोग पैत्तिक विकार, रक्तदोष, रक्तार्श, रक्तपित्त, अतिसार, संग्रहणी एवं शिरःशूल, रो तथा त्वचा के रोगों में किया जाता है। रंजक द्रव्य के रूप में इसका अधिक उपयोग किया जाता है। (१) शोथ, फोड़े, व्रण, अम्हीरी तथा शिरःशूल में इसको शीतल प्रलेप के रूप में जल में घिसकर लगाते हैं। पलकों की सूजन पर इसे लगाने से सूजन दूर होती है। (२) आही होने के कारण अन्य औषधों के साथ इसका क्याद अतिसार एवं संग्रहणी आदि में प्रयोग किया जाता है।

(३) रक्तार्श में इसे दूध में पीसकर पिलाते हैं एवं जल में घिसकर लेप भी करते हैं।

(४) इसके मद्यसारीय पोल से खनिज अम्लों के द्वारा इसके रंजक द्रव्य को निस्सादित कर लिया

जाता है जिसका उपयोग रंजन के लिये करते हैं। कंपाउण्ड टिक्चर ऑफ लहेण्डर में इसी का रंग होता है।मात्रा- १-१ प्रा. बड़ी गुमची

Adenanthera pavonina Linn; Fam. Leguminosa Syn. Facaceae (अॅडेनेन्थेरा पँतोनिना लेग्यूमिनोसी)–इसका वृक्ष पूर्वी हिमालय तथा पश्चिमी पेनिन्सुला में पाया जाता है। इसके बीजों का बाह्य प्रयोग फोड़े तथा सूजन आदि पर किया जाता है तथा छाल का उपयोग आमवात एवं रक्तष्ठीवन में किया जाता है।

अथ पतङ्गम् (बकम्) । तस्य नामानि गुणाश्चाह

पतरक्तसार सुरक्षनं तथा पट्टरञ्जकमाख्यातं पत्तूरह कुचन्दनम् ॥१८॥ पतमधुरं शीतं पित्तश्लेष्मप्रणाखनुत् हरिचन्दनवद्वेद्यं विशेषाद्दाहनाशनम् ॥१९॥ पतन के नाम तथा गुणा-पतन, रक्तसार, सुरज रखन, पट्टरडक, पत्तूर और कुचन्दन ये सब पतन के संस्कृत नाम हैं। पतङ्ग-मधुररस युक्त, शीतवीर्य एवं पित्त-कफ, व्रण और रक्तदोष को दूर करने वाला होता है। यद्यपि पतन का गुण पीले चन्दन के समान ही होता है तथापि इसे विशेष करके दाहनाशक समझना चाहिये। [१८-१९] साँचा:taxobox

चन्दन का वृक्ष (हैदराबाद)

भारतीय चंदन (Santalum album) का संसार में सर्वोच्च स्थान है। इसका आर्थिक महत्व भी है। यह पेड़ मुख्यत: कर्नाटक के जंगलों में मिलता है तथा भारत के अन्य भागों में भी कहीं-कहीं पाया जाता है। भारत के 600 से लेकर 900 मीटर तक कुछ ऊँचे स्थल और मलयद्वीप इसके मूल स्थान हैं।

इस पेड़ की ऊँचाई 18 से लेकर 20 मीटर तक होती है। यह परोपजीवी पेड़, सैंटेलेसी कुल का सैंटेलम ऐल्बम लिन्न (Santalum album linn.) है। वृक्ष की आयुवृद्धि के साथ ही साथ उसके तनों और जड़ों की लकड़ी में सौगंधिक तेल का अंश भी बढ़ने लगता है। इसकी पूर्ण परिपक्वता में 8 से लेकर 12वर्ष तक का समय लगता है। इसके लिये ढालवाँ जमीन, जल सोखनेवाली उपजाऊ चिकली मिट्टी तथा 500 से लेकर 625 मिमी. तक वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है।

चन्दन की एक डाली पर लगीं पत्तियाँ

तने की नरम लकड़ी तथा जड़ को जड़, कुंदा, बुरादा, तथा छिलका और छीलन में विभक्त करके बेचा जाता है। इसकी लकड़ी का उपयोग मूर्तिकला, तथा साजसज्जा के सामान बनाने में और अन्य उत्पादनों का अगरबत्ती, हवन सामग्री, तथा सौगंधिक तेज के निर्माण में होता है। आसवन द्वारा सुगंधित तेल निकाला जाता है। प्रत्येक वर्ष लगभग 3,000 मीट्रिक टन चंदन की लकड़ी से तेल निकाला जाता है। एक मीट्रिक टन लकड़ी से 47 से लेकर 50 किलोग्राम तक चंदन का तेल प्राप्त होता है। रसायनज्ञ इस तेल के सुगंधित तत्व को सांश्लेषिक रीति से प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं।

चंदन के प्रसारण में पक्षी भी सहायक हैं। बीजों के द्वारा रोपकर भी इसे उगाया जा रहा है। सैंडल स्पाइक (Sandle spike) नामक रहस्यपूर्ण और संक्रामक वानस्पतिक रोग इस वृक्ष का शत्रु है। इससे संक्रमित होने पर पत्तियाँ ऐंठकर छोटी हो जाती हैं और वृक्ष विकृत हो जाता है। इस रोग की रोकथाम के सभी प्रयत्न विफल हुए हैं।

चंदन के स्थान पर उपयोग में आनेवाले निम्नलिखित वृक्षों की लकड़ियाँ भी हैं :

  • (१) आस्ट्रेलिया में सैंटेलेसिई (Santalaceae) कुल का
  • (क) यूकार्या स्पिकैटा (आर.बी-आर.) स्प्रैग. एवं सम्म.उ सैंटेलम स्पिकैटम् (आर.बी-आर.) ए. डी-सी. (Eucarya Spicata (R.Br.) Sprag. et Summ, Syn. Santalum Spicatum (R.Br.) A.Dc.),
  • (ख) सैंटेलम लैंसियोलैटम आर. बी-आर. (Santalum lanceolatum (R.Br.)) तथा
  • (ग) मायोपोरेसी (Myoporaceae) कुल के एरिमोफिला मिचेल्ली बैंथ. (Eremophila mitchelli Benth.) नामक वृक्ष;
  • (२) पूर्वी अफ्रीका तथा मैडेगास्कर के निकटवर्ती द्वीपों में सैंटेलेसी कुल का ओसाइरिस टेनुइफोलिया एंग्ल. (Osyris tenuifolia Engl.); तथा
  • (३) हैटी और जमैका में रूटेसिई (Rutaceae) कुल का एमाइरिस बालसमीफेरा एल. (Amyris balsmifera L.), जिसे अंग्रेजी में वेस्ट इंडियन सैंडलवुड भी कहते हैं।

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ