गौर
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गौर | |
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गौर का एक छोटा झुंड ब्रोंक्स चिड़ियाघर में | |
Scientific classification | |
Binomial name | |
Bos gaurus स्मिथ, 1827
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गौर (Bos gaurus, पहले Bibos gauris) दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया मे पाया जाने वाला एक बड़ा, काले लोम से ढका गोजातीय पशु है। आज इसकी सबसे बड़ी आबादी भारत में पाई जाती हैं। गौर जंगली मवेशियों मे से सबसे बड़ा होता है। पालतू गौर 'गायल' या 'मिथुन' कहलाता है। भारत के भिन्न भिन्न भागों में इसका भिन्न भिन्न स्थानीय नाम है, जैसे गौरी गाय, बोदा, गवली इत्यादि।
यह बोविडी कुल (Bavidae Family) के शफ गण (Order Ungulate) का एक जंगली स्तनपोषी शाकाहारी पशु है। गवल भारत प्रायद्वीप, असम, बर्मा, मलाया प्रायद्वीप तथा स्याम के पहाड़ी वनों में पाया जाता है। इसका सर्वोत्तम विकास दक्षिण भारतीय पहाड़ियों तथा असम में होता है। किसी समय यह प्राणी श्रीलंका में भी प्राप्य था, किंतु अब वहां से, संभवत: किसी पशुरोग के ही कारण लुप्त हो गया है।
यूरोपीय शिकारी गौर को 'बाइसन' (Bison / एक प्रकार का जंगली भैंसा) कहते हैं, परंतु भारतीय गवल को बाइसन कहना ठीक प्रतीत नहीं होता। वस्तुत: यूरोप तथा उत्तरी अमरीका के बाइसन भारतीय गवल से भिन्न होते हैं। पाश्चात्य बाइसनों की सीगें छोटी और रूक्ष दाढ़ियाँ हाती हैं।
परिचय
गबल का सिर बड़ा, शरीर मांसल तथा गठीला और भुजाएँ पुष्ट होती हैं। यह आकृति से ही ओजस्वी और बलवान् प्रतीत होता है। कुछ नरों की कंधे तक की ऊँचाई 6 फुट तक होती है, पर इसकी सामान्य औसत ऊँचाई 5 फुट से लेकर 5 फुट 10 इंच तक होती है। मादा पाँच फुट से ज्यादा ऊँची नहीं होती। लंबाई में नर लगभग नौ फुट के और मादा सातफुट तक की होती हैं, इसकी सींगें अंग्रेजी के अक्षर सी (C) की आकृति की और लंबाई में 27 से 30 इंच तक की होती हैं। नर तथा मादा दोनों को सींगें होती हैं, किंतु मादा की सींगें अपेक्षाकृत छोटी निर्बल, बेलनाकार और नुकीली होती हैं। गवल के स्कंध पर मांसल पुट्ठा होता है, जो पीठ की ओर क्रमश: ढालुआ होता हुआ एकाएक समाप्त हो जाता है। दुम ठेहुने तक लंबी होती है।
गवल का रंग बचपन से वृद्धावस्था तक एक समान नहीं रहता, बल्कि बदलता रहता है। नवजात शिशु का रंग हल्का सुनहला पीला होता है। अल्प काल के उपरांत यह रंग हल्का पीला हो जाता है। पुन: कुछ कालोपरांत यह भूरा हो जाता है। वयस्क नर या मादा का रंग काफी जैसा, अर्थात् ललाई लिए भूरा होता है। प्रौढ़ावस्था में यह रंग बदल कर काजल जैसा काला तथा शरीर निर्लोम हो जाता है। कपाल का रंग खाकी तथा पीलापन लिए और आँखों का रंग भूरा होता है। कुछ का रंग हलका होता है और प्रतिबिंब के कारण नीला प्रतित होता है। पैरों का रंग घुटने के कुछ ऊपर से लेकर नीचे खुर तक श्वेत होता है।
गवल पहाड़ी पशु है। यह मुख्यत: विस्तृत जंगलों में ही रहता है। कतिपय ऋतुओं में गवल चारागाह की टोह में निम्न सतह पर भी उतर आता है। गवल के चरने का समय प्रात: 9 बजे या कुछ उपरांत तक और पुन: मध्याह्नोत्तर होता है। यदि मौसम शीतल और आकाश मेघाच्छन्न रहा तो दोपहर में भी यह चरता रहता है। ग्रीष्म ऋतु में दोपहर को यह वन के किसी शांत एवं छायादार स्थान में विश्राम करता है। इसका मुख्य आहार घास पात तथा बाँस के नरम कल्ले हैं। पेड़ों की पत्तियों और कोमल छाल से भी इसे रुचि है।
साधारणत: गवल परिवार में आठ या इस सदस्य होते हैं। ये सदस्य एक गरोह में रहा करते हैं। मैथुन ऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में सभी आयु के नर तथा मादा मिल जुलकर हेलमेल के साथ रहते हैं। वयस्क हो जाने पर नर समूह से निकलकर अकेले, अथवा अन्य नरों के साथ, आहार की खोज में निकल पड़ता है। साधारणतया ये परित्यक्त गवल गिरोह से अधिक दूर नहीं जाते। मैथुन ऋतु में समस्त नर पुन: समूह में आकर मिल जाते हैं।
मैथुन ऋतु में वयस्क नर गवलों का पारस्परिक सद्भाव और सहिष्णुता मिट जाती है और मादा पर आधिपत्य स्थापना के लिए स्पर्धा एवं द्वंद्वयुद्ध होने लगता है। इस स्पर्धा में जो नर विजयी होता है वह समूह के समस्त वयस्क मादा गवलों का एकमात्र स्वामी हो जाता है। वह अन्य वयस्क नरों को गिरोह से मार भगाता है और अपनी प्रेयसियों के साथ किसी क्षेत्रविशेष में चरने के लिये उपनिवेश सा बना लेता है। मैथुन ऋतु की समाप्ति पर नर गवल अपनी पत्नियों का परित्याग कर अकेला जीवनयापन करने लगता है। नर का एकाकी अथवा अन्य नरों के साथ जीवनयापन आगामी मैथुन ऋतु तक चलता रहता है। मैथुन ऋतु के आगमन पर वह मादा आधिपत्य प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये पुन: उन्मत्त हो जाता है और समूह में आ मिलता है। मैथुन करते समय नर एक प्रकार की सीटी अथवा बाँसुरी जैसी विचित्र ध्वनि करता है, जो इस जानवर के डीलडौल को देखते हुए बहुत हास्यास्पद मालूम होती है। मैथुन शक्ति क्षीण हो जाने पर वृद्ध नर सर्वदा के लिये एकाकी जीवन व्यतीत करने लगता है।
मादा गवल किसी एकांत स्थान में बच्चा जनती है। 9-10 महीनों पर यह एक या दो बच्चे जनती है। नवजात शिशु उत्पन्न होने के कुछ ही क्षण के उपरांत उछलने कूदने लगता है। साधारणतया प्रसूता गवल शिशु के समीप ही रहती है और शिशु के बड़े हो जाने पर समूह में सम्मिलित हो जाती है। किंतु किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका होने पर वह शिशु को त्यागकर समूह में मिल जाती है। मैथुन ऋतु के अतिरिक्त नर मादा से पृथक् ही रहता है और संतान पालन तथा समूह का नेतृत्व मादा ही करती है।
मध्य प्रदेश में गवल का मैथुनकाल दिसंबर, जनवरी होता है और संतानोत्पत्ति वर्षाऋतु के उपरांत सितंबर में होती है। कर्नाटक में भी गवलों का यही ऋतुकाल है, यद्यपि दिसंबर मास तक संतानोत्पत्ति होती रहती है।
गवल निपुण आरोही होता है और खड़ी पहाड़ियों पर भी अत्यंत सरलतापूर्वक तथा शीघ्रता से चढ़ जाता है। हाथी तथा गवल समानभोजी तथा विश्रामप्रेमी होते हैं, अत: साथ ही साथ चरते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। हाथी लंबे बाँसों को खींचकर झुका देता है और गवल उनकी पत्तियों तथा टहनियों को सुगमतापूर्वक प्राप्त कर लेता है। हाथी जैसे मित्र तथा बाघ जैसे शत्रु के अतिरिक्त गवल का अन्य वन्य पशुओं से कोई लगाव नहीं होता। ग्रीष्म ऋतु में तथा मानसून के उपरांत मक्खियाँ इन्हें बहुत सताती है, अतएव मक्खियों से बचने के लिए गवल मैदानों में चले आते हैं।
अन्य वन्य पशुओं की अपेक्षा इसकी दृष्टि तथा श्रवणशक्ति कमजोर होती है। यह स्वभावतया शर्मीला और भीरू होता है, किंतु कभी कभी मनुष्य पर आक्रमण भी कर बैठता है। यदि नर एकाकी हुआ तो वह बिना किसी प्रकार की उत्तेजना के भी अकारण आक्रमण कर बैठता है। न तो वह खेतों में प्रवेश करता है और कृषि को ही हानि पहँुचाता है। पालतू, रोगी पशुओं द्वारा चरी हुई घास खाने से इनमें भी खुर तथा मुँह के रोगों का संक्रमण हो जाता है। गवल अनेक प्रकार की बोलियों द्वारा अपने समूह के अन्य सदस्यों को अपना मंतव्य प्रकट करते है।
संदर्भ ग्रंथ
- फ्रैंक फीन : स्टर्नदेल्स मैमेलिया ऑव इंडिया (2);
- एस. एच. प्रैटर : द बुक ऑव इंडियन ऐनिमल्स।