गौड़ावटी गढ़

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गौड़ावटी गढ़ - सरवाड, फताहगढ़

वर्तमान में जिस स्थान पर किला बना हुआ है, उस स्थान के बारे में यह प्रचलित है कि यहाँ एक बकरी ने अपने बच्चों की पूरी रात सियार से टक्कर लेकर रक्षा की, जिस पर राजा बछराज गौड़ ने इसे वीरभूमि मान कर इसी स्थान पर किले का निर्माण कराया। पूर्व काल में यह किला वृहदाकार नहीं था, लेकिन गौड शासकों के पश्चात किशनगढ़ के राठौड़ वंशीय राजाओं ने इसे भव्य रूप प्रदान किया।

केकड़ी से कछ ही दरी पर स्थित सरवाड, फतेहगढ़ रियासती काल में प्रमुख ठिकाने थे। मध्यकाल से पूर्व सरवाड का क्षेत्र गहन वन प्रदेश के रूप में था। मध्यकाल में आक्रमणकारियों से बचाव के लिए कस्बे के चारों ओर परकोटा बनाया गया, जिसमें जगह-जगह पर सैनिक चौकियाँ स्थापित की गयी। एक किंवदन्ती के अनुसार वर्तमान सरवाड़ को कालू मीर नामक व्यक्ति ने बसाया, इसीलिए आज भी लोग कालू मीर की सरवाड के नाम से जानते हैं। सरवाड़ के वर्तमान स्वरूप की बसावट का श्रेय गौड़ शासकों को जाता है, जो 800 साल पूर्व बंगाल से अजमेर आये थे। इतिहास से प्राप्त जानकारी के अनुसार संवत् 1205 में राजा बछराज गौड़ अपने भाई बावन गौड़ एवं अन्य भाइयों के साथ सरवाड़ क्षेत्र में आये और उन्होंने वर्तमान समय में सरवाड़, देवलिया एवं जूनियां में किलों का निर्माण करवाया और सरवाड़ को मुख्य केंद्र के रूप में चुना।

वर्तमान में जिस स्थान पर किला बना हुआ है, उस स्थान के बारे में यह प्रचलित है कि यहाँ एक बकरी ने अपने बच्चों की पूरी रात सियार से टक्कर लेकर रक्षा की, जिस पर राजा बछराज गौड़ ने इसे वीरभूमि मान कर इसी स्थान पर किले का निर्माण कराया। पूर्व काल में यह किला वृहदाकार नही था, लेकिन गौड़ शासकों के पश्चात किशनगढ़ के राठौड़ वंशीय राजाओं ने इसे भव्य रूप प्रदान किया।

सरवाड़ का किला - सरवाड़ का किला लगभग 51 बीघा भूमि पर फैला हुआ हैऔर उत्तर भारत के गिने-चुने किलों में इसका नाम दर्ज है। अपने निर्माण के समय यह अवश्य ही बड़ा आकर्षक एवं अभेद किला रहा होगा। यह किशनगढ़ रियासत की मराठा आक्रमणकारियों से रक्षा चौकी माना जाता था। किले की सुरक्षार्थ दोहरी चार दीवारी बनायी गयी है। जहाँ किले के चारों तरफ दो-दो नहरें बनी हुई हैं। सात- सात विशालकाय दरवाजों, हाकिम और नाजिर के महलों, विशाल तहखानों, तोपगाड़ियों, प्रत्येक बुर्ज परजंगी तोपों, अस्तबलों और भारी मात्रा में युद्ध सामग्री से युक्त यह किला पूर्णतया सामरिक दृष्टि से बनाया गया था। आगरे के किले की तर्ज पर यहाँ भी सम्पूर्ण किले में हजारों की संख्या में तीरकश एवं खंदक बने हुए है। इस किले को वर्तमान स्वरूप तक लाने का श्रेय किशनगढ़ के संस्थापक कृष्णसिंह के उत्तराधिकारी महाराज पृथ्वीराज सिंह की है, जिन्होंने किले के भीतर महलों सहित अन्य आवश्यक निर्माण कार्य कराए। किशनगढ़ रियासत में विलीन होने से पूर्व सरवाड़ गौड़ शासकों के अधीन होने के कारण गौड़ागटी कहलाती थी। रियासतकाल में सरवाड़ कस्बा परकोटे के भीतर सिमटा हुआ थातीन मुख्य दरवाजे और एक खिड़की होने के कारण इसे परिहास में साढ़े तीन मुँह की सरवाड़ भी कहते हैंउत्तर में विजयद्वार है जो फतहगढ़ दरवाजा भी कहलाता हैयह द्वार मुख्य प्रवेश द्वार है। दक्षिण में सांपला दरवाजा, पश्चिम में खीरियाँ दरवाजा जिसे अजमेरी गेट के नाम से भी जाना जाता है। उत्तर-पश्चिम में एक खिड़की जिसे कुम्हारों की खिड़की के नाम से पहचान मिली है।

सरवाड़ किले की मूल संरचनाएँ मेहराबदार है। मुख्य किले के प्रवेशद्वार पर सुरक्षा प्रहरियों के लिए सुन्दर मेहराबदार बरामदा बना है। मुख्य किले की दीवारों एवं बुर्जा को बाद के काल में ऊँचा किया गया है। इस दौरान किले के मेहराबदार कंगूरों की दीवार एवं तीन बुर्जा के ऊपरी हिस्से को सपाट किया गया है। तीन बुर्ज सुरक्षा प्रहरियों के लिए एवं चौथा बुर्ज महलनुमा रियाईशी महल बना है। महल के झरोखे सुन्दर एवं कलात्मक हैं। इन झरोखों के ऊपर अर्द्ध गुम्बद एवं नीचे अर्द्ध गुलदस्तेनुमा कलात्मक सुन्दर आकृतियाँ बनायी गयी हैं। किले के दरवाजे में प्रवेश एवं निकास सीधी रेखा में नहीं है। बल्कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से घुमावदार रखा गया है। मुख्य दरवाजों पर दोहरी सुरक्षा प्रणाली के अनुसार दरवाजे लगे हुए हैं। इस किले के भीतर शीश महल, महल के झरोखें, झरोखे के छज्जे एवं कलात्मक नक्काशी कार्य दर्शनीय हैं। इतिहास में प्रमाण मिलते है कि सरवाड़ को कोई भी शासक कभी भी जीत नहीं पाया और यह कस्बा सदैव अजेय रहा।

फतहगढ़ - फतहगढ़ की भूमि पर पूर्व में रेंणा जाति के राजा राज्य करते थे। इनके पतन के बाद गौड़ वंश के राजाओं ने अपना आधिपत्य स्थापित किया। फतहगढ़ का प्राचीन नाम विजयदुर्ग (विजयपुर) था और यहाँ पर गौड़ वंश के राजा विजयसिंह जी राज्य करते थे। इनके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि- 'श्रीनगर, सरवाड, अरुगढ़, फतहगढ़ थान, गढ़ राजगढ़ गूंजते गौड़ा रा गुणगान।

रियासत काल में फतहगढ़ किशनगढ़ राज्य के अधीन था। सरवाड़ से फतहगढ़ उत्तर की ओर 8-9 किमी. के लगभग अवस्थित है। फतहगढ़ करीब 800 वर्ष पूर्व बसा था। यहाँ तीन प्रमुख राजवंशों का शासन रहा था- रेणा, गौड़ और राठौड़ जिसके प्रमाण इतिहास में मिलते हैं। फतहगढ़ के राजाओं का डिंगल भाषा के दोहे में जो वर्णन मिलता है -

फता फतहगढ़ आवियों, राजकुंवर राठौड़। रेणा से धरती गई, गया धरा सुं गौड़।।

फतहगढ़ का किला इंग्लैण्ड की शैली तथा राजस्थानी वास्तुकला व शिल्पकला की जीती-जागती इमारत हैयह किला फतहगढ़ की पूर्व दिशा में स्थित है। यह किला एक पहाड़ी पर बना हुआ है जो दोहरी सुरक्षा में निर्मित है। किले के दरवाजे में प्रवेश व निकास सीधी रेखा में नही हैबल्कि घुमावदार स्थित में है जो सुरक्षा के मध्य नजर से बनायी गयी है। मुख्य दरवाजों पर दोहरी सुरक्षा प्रणाली के अनुसार दरवाजे लगे हुए हैं। किले के उत्तर दिशा में किशनगढ़ दरवाजा (धानमा दरवाजा), दक्षिण में सरवाड़ी दरवाजा, पश्चिम में खिड़की दरवाजा, पूर्व में भीलों का शेरा (छोटा रास्ता) आज भी हैं। दरवाजे दो मंजिला हैवर्तमान में केवल धानमा द्वार बचा है, बाकी अवशेष हैं।

प्रथम द्वार के दोनों ओर एक-एक बुर्ज है तथा इन बुर्जा के समानान्तर दो बुर्ज पीछे की तरफ हैं। बाह्य चार दीवारी के बुर्ज के झरोखे में ऊपर अर्द्धगुम्बद एवं कलात्मक सुन्दर शिल्पाकृतियाँ बनी है। किले की चार दीवारी के भीतर महल निर्मित है। जो इस महल के बुर्ज पर ब्रिटिशकाल में निर्माण कराया गया। इसीलिए महल का रिहायशी भाग ब्रिटिशकालीन स्थापत्यकला शैली में निर्मित है। महल के इस भाग के खिड़की एवं दरवाजों का ऊपरी भाग गोलाकार है। महल के बरामदों में चौकोर स्तम्भों पर हिन्दू स्थापत्य शैली के बिम्ब बने हैं। मुख्य चार दीवारी के अन्दर एक भाग के बरामदे मेहराबदार शैली में निर्मित हैं, स्तम्भ गुलदस्तेनुमा है जो पान-पत्तों के कंगूरों से युक्त सुसज्जित है, जिसमें मुस्लिम स्थापत्यकला का पुट नजर आता है। किले में जल प्रबन्धन के लिए बावड़ी मुख्य स्रोत रही होगी। 17 वीं शताब्दी में महाराजा फतहसिंह द्वारा निर्मित यह प्राचीन किला सुदृढ़ प्राचीरों, बुर्जा, विशाल दरवाजों एवं सुरक्षा साधनों से युक्त है।

यह प्राचीन इमारतें आज भी अपनी आन-बान-शान एवं गौरव की गाथा बयाँ करते हुए खड़े हैं