गोविंदा तृतीय
गोविंदा तृतीय (793-814 ई.), एक प्रसिद्ध राष्ट्रकुट शासक थे जिन्होंने अपने कीर्तिवान पिता ध्रुव धरवर्षा के बाद सत्ता संभाली. सैन्य दृष्टि से वे अपने राजवंश के सर्वाधिक सफल राजा थे जिन्होंने दक्षिण में केप कोमोरिन से लेकर उत्तर में कन्नौज और पूर्व में बनारस से लेकर पश्चिम में भरूच तक अपनी सफलता के झंडे गाड़े. उन्हें प्रभुतावर्षा, जगतुन्गा, अनुपम, कृतिनारायण, पृथ्वीवल्लभ, श्रीवल्लभ, विमलादित्य, अतिशयधवल तथा त्रिभुवनधवल उपाधियों से सम्मानित किया गया। 804 के सोमेश्वर शिलालेख से ज्ञात होता है कि गामुन्दाब्बे उनकी पटरानी थीं।
प्रारंभिक मतभेद
हालांकि गोविंदा तृतीय सम्राट अवश्य बने, लेकिन कुछ आंतरिक पारिवारिक मतभेदों का सामना करने के बाद ही वे इस पद तक पहुंचे थे। उनके बड़े भाई कम्बरस (जिन्हें स्तंभ के नाम से भी जाना जाता था) भी सिंहासन पाने की आस लगाये बैठे थे, इसलिए बारह सरदारों के एक गठबंधन के साथ उन्होंने युद्ध का एलान कर दिया; यह सबकुछ नवसरी रिकॉर्ड में दर्ज है।[१] संजन और सीसवयी जैसे अन्य रिकॉर्डों में गोविंदा तृतीय के लिए उनके भाई इन्द्र के समर्थन तथा कम्बरस की संयुक्त सेनाओं के खिलाफ विजय का उल्लेख किया गया है।[२] तलकड के गंगा राजवंश के शिवमारा द्वितीय कम्बरस के साथ मिल गए थे लेकिन पराजय के पश्चात उन्हें दूसरी बार कारावास भेज दिया गया जबकि कम्बरस को माफ करते हुए गंगावाड़ी से शासन करने की अनुमति दे दी गयी।
कन्नौज पर कब्जा
गोविंदा तृतीय ने 800 ई. में बिदार जिले के मयूरखंडी स्थित अपनी राजधानी से अपने उत्तरी अभियान का संचालन किया। उन्होंने गुर्जर प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय, पाल राजवंश के धर्मपाल तथा कन्नौज के तत्कालीन कठपुतली शासक चक्रयुद्ध को सफलतापूर्वक पराजित किया। ऐसा कहा जाता है कि नागभट्ट द्वितीय युद्ध क्षेत्र से भाग गया था। गोविंदा तृतीय के संजन शिलालेखों में उल्लिखित है कि गोविंदा तृतीय के घोड़े ने हिमालय की धाराओं से निकलने वाले बर्फीले पानी को पिया और उनके युद्ध हाथियों ने गंगा के पवित्र जल को चखा.[२] मगध और बंगा के शासकों ने भी उनके समक्ष घुटने टेक दिए. 813 के एक शिलालेख के अनुसार गोविंदा तृतीय ने लता (दक्षिणी और मध्य गुजरात) पर विजय प्राप्त की और अपने भाई इंद्र को उस क्षेत्र का शासक बनाया. और यह प्रभावी रूप से राष्ट्रकुट साम्राज्य की एक शाखा बन गयी।[३] बहरहाल, एक अन्य राय के अनुसार गोविंदा तृतीय के पास उत्तर में विंध्य तथा मालवा और दक्षिण में कांची के बीच के क्षेत्रों का नियंत्रण था, जबकि उनके साम्राज्य का केन्द्र बिंदु नर्मदा से लेकर तुंगभद्रा नदियों तक विस्तारित था।[३]
दक्षिणी विजय अभियान
राष्ट्रकुट के प्रति शत्रुता का भाव रखने वाले पूर्वी चालुक्यों को पुनः गोविंदा तृतीय के क्रोध का सामना करना पड़ा; गोविंदा तृतीय ने चालुक्य विजयादित्य द्वितीय को पराजित किया और भीम साल्की को वहां के शासक के रूप में स्थापित कर दिया. उन्होंने कौशल नरेश को भी पराजित किया और आंध्र के कुछ हिस्सों पर कब्जा किया, तथा कांची में 803 ई. में पल्लव दांतीवर्मन पर विजय प्राप्त की. उन्होंने बिना कोई युद्ध लड़े ही सीलोन के राजा को भी अपने अधीन कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि सीलोन के राजा ने उन्हें दो मूर्तियां भेजी थीं, उनका अधिपत्य स्वीकारने के प्रतीक के रूप में एक स्वयं की और दूसरी अपने मंत्री की.[४]
राष्ट्रकुट साम्राज्य सैन्य सफलता के इन स्तरों तथा कीर्ति के चरमोत्कर्ष तक इससे पहले कभी नहीं पहुंचा था।[५] गोविंदा तृतीय का निधन 814 ई. में हुआ। उनके भाई इंद्र ने इस अवधि के दौरान गुजरात (लता) राज्य की स्थापना की. उनके पश्चात उनके पुत्र अमोघवर्ष प्रथम ने सत्ता संभाली.