गुप्ति
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जैन दर्शन के अनुसार काय, वचन और मन के कर्म का ही नाम योग (आत्मा के प्रदेशों का हलन चलन) है तथा योग ही कर्मों के आने (आस्रव) में कारण है। आस्रव होने से बंध (संसार) होता है। बंधनमुक्त (मोक्ष) होने के लिये आस्रव का रूकना (संवर) आवश्यक है। संवर का प्रथम चरण गुप्ति है जो काय-वाक्-मन के कर्म का भली भाँति नियंत्रण करने से ही संभव है। अर्थात् स्वेच्छा से कायादि की रुझान को इंद्रियों के विषयसुख, कामनादि से मोड़ देना ही गुप्ति है। इसके द्वारा अनंतज्ञान-दर्शन-सुख, वीर्य के पुंजभूत आत्मा की रक्षा होती है।
भोगादि पापवृत्तियाँ रुक जाती हैं तथा ध्यानादि पुण्यप्रवृतियाँ होने लगती हैं। कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति के भेद से गुप्ति के तीन भेद हैं। (तत्वार्थसूत्र, अध्याय 9, सूत्र 2 तथा 4)।