गाहिरा गुरु
सन्त गाहिरा गुरु (१९०५ - २१ नवम्बर १९९६) एक सन्त एवं समाजसुधारक थे जिन्होने छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के आसपास के वनवासी क्षेत्रों में के बीच कार्य किया। सन १९४३ में उन्होने "सनातन धर्म सन्त समाज" की स्थापना की। इनका मूल नाम रामेश्वर था। वे उत्तरी छत्तीसगढ़ में सामाजिक चेतना के अग्रदूत थे उन्होंने उत्तरी छत्तीसगढ़ के अविभाजित सरगुजा, जशपुर, कोरिया, रायगढ़ सहित पड़ोसी राज्य झारखण्ड, उत्तरप्रदेश से लगे क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के साथ अन्य समाज में सामाजिक चेतना और जागरूकता लाने में अहम योगदान दिया।
गाहिरा गुरु का जन्म सन् १९०५ में श्रावण मास की अमावस्या को रात्रि बारह बजे रायगढ़ जिले के लैलूंगा नामक स्थान से लगभग करीब १५ किलोमीटर दूर उड़ीसा से लगे ग्राम "गहिरा" सघन वनाच्छादित दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र मे हुआ था। इनके पिता बुदकी कंवर और माता सुमित्रा थे।
वे जंगल में दूर एकांत में बैठकर चिंतन-मनन करते थे। उन्होंने लोगों को प्रतिदिन नहाने, घर में तुलसी लगाने, उसे पानी देने, श्वेत वस्त्र पहनने, गांजा, मासांहार एवं शराब छोड़ने, गोसेवा एवं खेती, रात में सामूहिक नृत्य के साथ रामचरितमानस की चौपाई गाने हेतु प्रेरित किया। प्रारम्भ में अनेक कठिनाई आयीं; पर धीरे-धीरे लोग बात मानकर उन्हें ‘गाहिरा गुरुजी’ कहने लगे। वे प्रायः यह सूत्र वाक्य बोलते थे –
" चोरी दारी हत्या मिथ्या त्यागें, सत्य अहिंसा दया क्षमा धारें।
अब उनके अनुयायियों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। उनके द्वारा गांव में स्थापित ‘धान मेला’ से ग्रामीणों को आवश्यकता पड़ने पर पैसा, अन्न तथा बीज मिलने लगा। इससे बाहरी सहायता के बिना सबकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। उन्होंने ‘सनातन संत समाज’ बनाकर लाखों लोगों को जोड़ा।
शिक्षा के प्रसार हेतु उन्होंने कई विद्यालय एवं छात्रावास खोले। इनमें संस्कृत शिक्षा की विशेष व्यवस्था रहती थी। समाज को संगठित करने के लिए दशहरा, रामनवमी और शिवरात्रि के पर्व सामूहिक रूप से मनाये जाने लगे। लोग परस्पर मिलते समय ‘शरण’ कहकर अभिवादन करते थे।
उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से श्री बालासाहब देशपांडे ने ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ नामक संस्था बनाई थी। इसे जशपुर के राजा श्री विजयभूषण सिंह जूदेव का भी समर्थन था। इन सबके प्रति गहिरा गुरु के मन में बहुत प्रेम एवं आदर था। भीमसेन चोपड़ा तथा मोरूभाई केतकर से उनकी अति घनिष्ठता थी। वे प्रायः इनसे परामर्श करते रहते थे। इनके कारण उस क्षेत्र में चल रहे ईसाइयों के धर्मान्तरण के षड्यन्त्र विफल होने लगे।
गहिरा गुरु ने अपने कार्य के कुछ प्रमुख केन्द्र बनाये। इनमें से गहिरा ग्राम, सामरबार, कैलाश गुफा तथा श्रीकोट एक तीर्थ के रूप में विकसित हो गये। विद्वान एवं संन्यासी वहां आने लगे। एक बार स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर उन्हें शासन के विशेष विमान से दिल्ली लाकर हृदय की शल्य क्रिया की गयी। ठीक होकर वे फिर घूमने लगे; पर अब पहले जैसी बात नहीं रही।
कुछ समय बाद गहिरा गुरु प्रवास बंद कर अपने जन्म स्थान गहिरा ग्राम में ही रहने लगे। 92 वर्ष की आयु में 21 नवम्बर, 1996 (देवोत्थान एकादशी) के पावन दिन उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। उनके बड़े पुत्र श्री बभ्रुवाहन सिंह अब अपने पिता के कार्यों की देखरेख कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने उनकी स्मृति में सरगुजा विश्वविद्यालय का नाम "सन्त गाहिरा गुरु विश्वविद्यालय" कर दिया है।