ग़ुलाम क़ादिर

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गुलाम कादिर (ग़ुलाम क़ादिर, Ghulam Qadir) [मृत्यु-1789 ई०] रुहेलखंड (नजीबाबाद) का शासक था जो अपने दानवी अत्याचारों के लिए कुख्यात है।

गुलाम कादिर ने अपनी अविवेकपूर्ण महत्त्वाकांक्षा तथा युवावस्था के आवेग में न केवल अपने दादा द्वारा अर्जित तथा संगठित राज्य गँवाया, वरन् मराठों से वैर मोल लेकर तथा दिल्ली के तत्कालीन सम्राट शाह आलम एवं उनके परिवार पर भीषण अमानवीय अत्याचार करने के कारण स्वयं तो दुर्दशाग्रस्त मृत्यु को प्राप्त हुआ ही, इतिहास में भी एक कलंकित अत्याचारी के रूप में अंकित रह गया।

आरंभिक जीवन

गुलाम कादिर नजीब खान (नज़ीबुद्दौला) का पोता तथा जाबिता खान (Zabita Khan) का बेटा था। पठान वंश का होने से एक पठान के स्वाभाविक गुण तो उसमें थे, परंतु दया, लज्जा या सत्यप्रियता जैसे गुणों का उसमें सर्वथा अभाव था। अपने दादा की षड्यंत्रकारिणी प्रतिभा तो उसे उत्तराधिकार में मिली थी, परंतु उसकी बुद्धि या दूरदर्शिता बिल्कुल नहीं मिली थी। अपने पिता की रियासत पर अधिकार प्राप्त करते ही उसने अपने बड़े परिवार के अनेक व्यक्तियों को मृत्युदंड दे दिया। मदिरा की लत होने के कारण वह अपने कार्यों में असावधान रहने लगा। उसकी महत्त्वाकांक्षा शासक बनकर अपने दादा (नजीब खान) का अनुकरण करने की थी।[१]

गुलाम कादिर आरंभिक समय में 1761 से 1770 ई० तक अहमदशाह अब्दाली की सेवा में रहा तथा इसके बाद भारत आ गया।[२]

दिल्ली पर कब्जा

जिस समय महादजी शिंदे राजपूतों के साथ लालसोट के युद्ध में संकटग्रस्त स्थिति में आ गये थे, और 30 जुलाई 1787 को उनके लगभग 8 हजार सैनिक विद्रोह करके शत्रुओं से मिल गये थे, उस समय मराठों के अनेक शत्रुओं ने महादजी की दूरदर्शिता को न समझ पाने के कारण विद्रोह कर दिया था। लगभग एक वर्ष तक महादजी की स्थिति चिंतनीय रही। इसी बीच गुलाम कादिर ने मराठा सेना को दोआब के दुर्गों से खदेड़ कर उस समस्त प्रदेश पर अधिकार कर लिया, जो उससे हाल में छीन लिया गया था, और वह महादजी के अधिकार को चुनौती देने के लिए सीधा दिल्ली आ गया।

5 सितंबर 1787 को दिल्ली में असहाय सम्राट शाह आलम के सामने उपस्थित होकर उन्हें दंड देने की धमकी देकर गुलाम कादिर ने उनसे वे समस्त पद तथा शक्तियाँ ले लीं, जिन पर महादजी शिंदे का अधिकार था। इस्माइल बेग तथा गुलाम कादिर ने परस्पर सहयोग पूर्वक दिल्ली तथा समीपवर्ती प्रदेश पर अपना शासन स्थापित कर लिया। सम्राट शाह आलम गुलाम कादिर से इस हद तक भयभीत हो गये थे कि वे महाद जी द्वारा अंबुजी इंगले के माध्यम से दूरस्थ मराठा शिविर में आ जाने के प्रस्ताव को भी स्वीकार न कर पाये।[३]

जब महादजी अपनी रक्षा-योजनाओं में व्यस्त थे तभी पठानों ने गुलाम कादिर के नेतृत्व में राजपूतों के सहयोग से पानीपत से पहले का अपना पुराना खेल पुनः आरंभ कर दिया था। उन्होंने उत्तर भारत से मराठों को खदेड़ने के लिए काबुल के शाह को निमंत्रित किया। इस समय अहमदशाह अब्दाली का पुत्र तैमूर शाह अफगानों का शासक था। लेकिन महादजी की दूरगामी योजनाओं के तहत सिखों से मैत्री स्थापित कर लिये जाने से तैमूर शाह सिक्खों के विद्रोह का खतरा उठा कर सिन्धु पार करने को तैयार न हुआ।

1788 के प्रथम तीन महीनों में अपने अविरल प्रयत्न से महादजी ने अपनी स्थिति में सुधार आरंभ कर दिया था। उनके सहयोगी राणे खाँ ने इस्माइल बेग को हराया तथा तीन सेनानायकों ने गुलाम कादिर का पीछा करते हुए दोआब में प्रवेश किया था। 22 अप्रैल को चकसन के समीप भयानक परंतु और अनिर्णायक युद्ध हुआ। गुलाम कादिर भाग गया ताकि अपनी रियासत की रक्षा कर सकें।[४]

1 जुलाई 1788 को इस्माइल बेग अपनी समस्त मुगलिया सेना सहित दिल्ली के समीप यमुना के दूसरे तट पर स्थित शाहदरा में गुलाम कादिर के साथ हो गया। वहाँ राजकोष तथा सम्राट की भूमियों पर अधिकार करने का निश्चय हुआ। जीते जाने वाले समस्त धन में से दो भाग गुलाम कादिर का और एक भाग इस्माइल बेग का किये जाने का निश्चय हुआ।

गुलाम कादिर ने अपनी सेना सहित 14 जुलाई को 'बरारी घाट' पर नदी पार किया[५] और 18 जुलाई को नगर पर अधिकार कर लिया। मुहम्मदशाह की दो वृद्धा बेगमों -- मलिका जमानी तथा साहिबा महल नें उसके दुष्कृत्यों में उसका साथ दिया। इन दोनों बेगमों ने शाह आलम को राज्य से हटाने तथा अपने पौत्र बेदार बख्त को गद्दी पर बैठाने के लिए गुलाम कादिर को 12 लाख नकद रुपए दे दिये।[६]

लालकिले में दानवी अत्याचार

24 जुलाई को शाह आलम गुलाम कादिर की समस्त मांगों को स्वीकार करने के लिए विवश किये गये। सम्राट ने वचन का पालन करने के लिए अपने पुत्र सुलेमान शिकोह को शरीर-बंधक के रूप में रख दिया। 30 जुलाई को गुलाम कादिर और इस्माइल बेग ने लाल किला तथा राजभवन पर अधिकार करके शाह आलम को एक छोटी सी मस्जिद में बंद कर दिया तथा राजकोष एवं हाथ लगने वाली मूल्यवान वस्तुओं को लूटना आरंभ कर दिया। उसके बाद से 68 दिनों तक यह कांड होता रहा जब तक कि उन्हें राजभवन से निकाल नहीं दिया गया। 31 जुलाई 1788 को गुलाम कादिर ने शाह आलम को पदच्युत करके पूर्व सम्राट अहमदशाह के पुत्र बेदार बख्त को 'नासिरुद्दीन मुहम्मद जहाँ शाह' की उपाधि देकर गद्दी पर बैठा दिया।[७] इस प्रकार उसने मलिका जमानी से की गयी प्रतिज्ञा का पालन कर दिया। इसके बाद गुलाम कादिर ने राजवंश का सब प्रकार से अपमान किया तथा भीषण कष्ट दिये। अंत में 10 अगस्त को उसने शाह आलम की आँखें भी फोड़ दीं।[६] नन्हे-नन्हे बच्चों तथा असहाय स्त्रियों को कई-कई दिनों तक अन्न-जल तक नहीं दिया गया और इस प्रकार उनको भूखा मार दिया गया। राजकुमारों को बेंत से पीटा गया। राजकुमारियों के साथ बलात्कार किया गया और नौकरों को तब तक पीटा गया जब तक कि वे मर न गये। गुप्त धन का पता लगाने के लिए राजभवन का सारा क्षेत्र तथा नगर में धनी लोगों के सभी भवन खोद डाले गये। 9 सप्ताह तक सुंदर राजधानी में नरक का दृश्य बना रहा। रुहेलों की काम-पिपासा को तृप्त करने के लिए अल्पवयस्क सुंदरियों का भी बलिदान हो गया। दासियों को यातनाएँ दी गयीं और हिजड़ों को मार डाला गया क्योंकि उन्होंने गुप्तधन नहीं बताया था। जो मर गये उनको गाड़ा तक नहीं गया। इस प्रकार मुख्यतः 21 व्यक्तियों की मृत्यु हुई बताई जाती है मलिका जमानी तथा साहिबा महल के सहयोग को भूलकर और अधिक धन का पता न बताने के कारण उनके भवन भी खोद डाले गये तथा जनसाधारण के सामने उनका नग्न प्रदर्शन किया गया।[८]

उपर्युक्त घटनाओं के सन्दर्भ में फिरदौस अनवर ने स्वीकार किया है कि : साँचा:quote

डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने गुलाम कादिर के उक्त अत्याचारों के सन्दर्भ में लिखा है कि : साँचा:quote

गुलाम कादिर के अत्याचार में मंसूर अली नाजिर ने उसे सलाह तथा साथ दिया था। लेकिन धन की हवस में गुलाम कादिर ने उसे भी नहीं छोड़ा तथा उससे सात लाख रूपय वसूलने चाहे। उसके इंकार करने पर 23 सितंबर को उसकी जमकर पिटाई की गयी। इस प्रकार रुहेलों ने अकूत धन लूटा।[८]

इस्माइल बेग से अनबन

गुलाम कादिर को दिल्ली पर अधिकार करने में तथा धन हस्तगत करने में तो इस्माइल बेग ने साथ दिया था, परंतु वह सम्राट तथा उनके परिवार से अत्याचार के व्यवहार के सर्वथा खिलाफ था। आपस में मतभेद होने पर गुलाम कादिर ने सारा धन अकेले हथिया लिया। इसलिए सितंबर के अंत में जब महादजी अपनी सत्ता पुनः प्राप्त करने लगे तो इस्माइल बेग परिस्थितिवश महादजी के साथ हो गया और दिल्ली से गुलाम कादिर को बाहर निकालने में उसने प्रबल प्रयत्न भी किया।[८]

पराजय, पलायन तथा मृत्युदण्ड

लाल किले के अंदर राजमहल में जो वीभत्स दृश्य उपस्थित किये जा रहे थे, उनकी कुछ समय तक कोई सूचना बाहर के लोगों को नहीं मिल पायी। सितंबर में महादजी को कुछ अस्पष्ट समाचार प्राप्त हुए तो उन्होंने सहायता के लिए तुरंत एक अभियान संगठित किया। उन्होंने एक बड़ी शक्ति के साथ राणे खाँ को भेजा। शीघ्र ही जीवबा दादा ने भी कूच किया। मराठों ने 28 सितंबर को पुरानी दिल्ली तथा 2 अक्टूबर को मुख्य नगर पर अधिकार कर लिया। इस्माइल बेग तथा बेगम समरू ने राणे खाँ का साथ दिया और किले पर तोपों की मार आरंभ कर दी। पराजय के डर से गुलाम कादिर लूट का माल यमुनापार भेजने लगा ताकि वह उसके धौसगढ़ स्थित घर में सुरक्षित रखा जा सके। 10 अक्टूबर को रुहेले सिपाहियों की लापरवाही से किले के बारूद खाने में विस्फोट हो गया। इसके बाद शेष सिपाहियों तथा लूट के माल को लेकर गुलाम कादिर ने लालकिले को खाली कर दिया। अगले दिन 11 अक्टूबर को राने खाँ, हिम्मत बहादुर गोसाईं तथा रानाजी शिंदे ने गढ़ में प्रवेश किया। उन्होंने भूखे निवासियों को भोजन दिया तथा महल में रहने वालों के लिए यथाशक्ति शांति तथा सुविधा पहुँचाने का प्रयत्न किया। 16 अक्टूबर को राणे खाँ ने का अंधे सम्राट के सम्मुख उपस्थित होकर उनको राजगद्दी पर बिठा दिया और उनके नाम से पुनः खुतबा पढ़वाया[९]

गुलाम कादिर को पकड़ने का प्रबल प्रयत्न किया गया; हालाँकि दिल्ली तथा आसपास की व्यवस्था सँभालने के कारण इसमें कुछ समय लगा। दोआब से भागता हुआ गुलाम कादिर 4 नवंबर को मेरठ पहुँचा तथा वहाँ के गढ़ में शरण लेकर साहसपूर्वक 6 सप्ताह तक मराठा आक्रमण का प्रतिरोध किया। अंत में 17 दिसंबर को उसे भागना पड़ा तथा शामली के 3 मील दक्षिण-पश्चिम बमनौली में एक ब्राह्मण के घर अपने कुछ अनुचरों सहित वह छिप गया।[९] गुलाम कादिर के दो साथी मंसूर अली खान नाजिर तथा उसके अंग रक्षक सेना का कमांडर मनिहार सिंह मेरठ में पकड़ लिये गये। गुलाम कादिर को पकड़ने में राणे खाँ का साथ विशेष रूप से अलीबहादुर दे रहा था। अलीबहादुर को उस ब्राह्मण से गुलाम कादिर का पता मिल गया और उसने 19 दिसंबर को उसे पकड़ लिया तथा अन्य बंदियों के साथ 31 दिसंबर 1788 को उस समय मथुरा में स्थित महादजी के शिविर में पहुँचा दिया। दो महीने तक महादजी प्रयत्न करते रहे कि बंदियों से बलपूर्वक यथासंभव धन तथा जानकारी प्राप्त कर लें। महादजी के द्वारा दंड देने में किसी प्रकार की नरमी की संभावना को दूर करते हुए सम्राट शाह आलम ने गुलाम कादिर की भी आँखें निकलवा दीं। 4 मार्च 1789 को उसे प्राणदंड दे दिया गया[१०] और उसकी लाश को जनसाधारण के समक्ष प्रदर्शित करने के लिए दिल्ली भेज दिया गया।[११] कहा जाता है कि वहाँ उसकी सिरकटी लाश को एक पेड़ से लटका दिया गया था।[१२]

गुलाम कादिर की अविवेकपूर्ण निजी मान्यता के बारे में सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि: साँचा:quote

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. मराठों का नवीन इतिहास, भाग-3, गोविन्द सखाराम सरदेसाई, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा; द्वितीय संशोधित संस्करण 1972, पृष्ठ-164.
  2. भारतीय इतिहास कोश, डाॅ० एस० एल० नागोरी एवं जीतेश नागोरी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, जयपुर तथा नयी दिल्ली, संस्करण-2005 पृ०-102.
  3. मराठों का नवीन इतिहास, भाग-3, गोविंद सखाराम सरदेसाई, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा; द्वितीय संशोधित संस्करण 1972, पृष्ठ-157.
  4. मराठों का नवीन इतिहास, भाग-3, पूर्ववत्, पृ०-162.
  5. Fall of the Mughal Empire, volume-III, Sir Jadunath Sarkar; S.N SARKAR, Calcutta, 1938, p.441.
  6. मराठों का नवीन इतिहास, भाग-3, पूर्ववत्, पृ०-165.
  7. Fall of the Mughal Empire, volume-III, ibid, p.452.
  8. मराठों का नवीन इतिहास, भाग-3, पूर्ववत्, पृ०-166.
  9. मराठों का नवीन इतिहास, भाग-3, पूर्ववत्, पृ०-167.
  10. मराठों का नवीन इतिहास, भाग-3, पूर्ववत्, पृ०-168.
  11. Fall of the Mughal Empire, volume-III, ibid, p.469.
  12. Fall of the Mughal Empire, volume-III, ibid, p.470.