गयासुद्दीन बलबन

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गयासुद्दीन बलबन इसका वास्तविक नाम बहाउदीबहाउद्दीन था।(1249– 1286) दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक शासक था। उसने सन् 1265 से 1287 तक राज्य किया।वो न्याय प्रिय शासक था। [१]

गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। उसकी जन्मतिथि का पता नहीं। उसका पिता उच्च श्रेणी का सरदार था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। सुलतान अल्तमश ने उस पर दया करके उसे मोल ले लिया। स्वामिभक्ति और सेवाभाव के फलस्वरूप वह निरंतर उन्नति करता गया, यहाँ तक कि सुलतान ने उसे चेहलगन के दल में सम्मिलित कर लिया। रज़िया के राज्यकाल में उसकी नियुक्ति अमीरे शिकार के पद पर हुई। बहराम ने उसको रेवाड़ी तथा हांसी के क्षेत्र प्रदान किए , अमीर-ए-आखुर का पद दिया ।1245 ई. में मंगोलों से लोहा लेकर अपने सामरिक गुण का प्रमाण दिया। आगामी वर्ष जब नासिरुद्दीन महमूद सिंहासनारूढ़ हुआ तो उसने बलबन को मुख्य मंत्री( अमीर ए हाजिब) पद पर आसीन किया। 47 वर्ष तक उसने इस उत्तरदायित्व को निबाहा। इस अवधि में उसके समक्ष जटिल समस्याएँ प्रस्तुत हुईं तथा एक अवसर पर उसे अपमानित भी होना पड़ा, परंतु उसने न तो साहस ही छोड़ा और न दृढ़ संकल्प। वह निरंतर उन्नति की दिशा में ही अग्रसर रहा। उसने आंतरिक विद्रोहों का दमन किया और बाह्य आक्रमणों को असफल। सं. 1246 में दुआबे के हिंदू जमींदारों की निर्गमता से हत्या कर दी । तत्पश्चात् कालिंजर व कड़ा के प्रदेशों पर अधिकार जमाया। प्रसन्न होकर सं. 1249 ई. में सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया और उसको नायब सुल्तान की उपाधि प्रदान की। सं. 1252 ई. में उसने ग्वालियर, चंदेरी और मालवा पर अभियान किए। प्रतिद्वंद्वियों की ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक वर्ष तक वह पदच्युत रहा परंतु शासन व्यवस्था को बिगड़ती देखकर सुल्तान ने विवश होकर उसे बहाल कर दिया। दुबारा कार्यभार सँभालने के पश्चात् उसने उद्दंड अमीरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। सं. 1255 ई. में सुल्तान के सौतेले पिता कत्लुग खाँ के विद्रोह को दबाया। सं. 1257 ई. में मंगोलों के आक्रमण को रोका। सं. 1259 ई. में क्षेत्र के बागियों का नाश किया। 1260 ई. से लेकर 1266 ई. तक की उसकी कृतियों का इतिहास प्राप्त नहीं। उसने 47 वर्ष तक राज्य किया। सुल्तान के रूप में उसने जिस बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता तथा नैतिकता का परिचय दिया, इतिहासकारों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। शासनपद्धति को उसने नवीन साँचे में ढाला और उसको मूलत: लौकिक बनाने का प्रयास किया। वह मुसलमान विद्वानों का आदर तो करता था लेकिन राजकीय कार्यों में उनको हस्तक्षेप नहीं करने देता था। उसका न्याय पक्षपात रहित और उसका दंड अत्यंत कठोर था, इसी कारण उसकी शासन नीति को लोह रक्त की नीति कहकर संबोधित किया जाता है। वास्तव में इस समय ऐसी ही व्यवस्था की आवश्यकता थी।

मंगोलों के आक्रमणों की रोकथाम करने के उद्देश्य से सीमांत क्षेत्र में सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया और इन दुर्गों में साहसी योद्धाओं को नियुक्त किया। उसने मेवात, दोआब और कटेहर के विद्रोहियों को आतंकित किया। जब तुगरिल ने बंगाल में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी तब सुल्तान ने स्वय वहाँ पहुँचकर निर्दयता से इस विद्रोह का दमन किया। साम्राज्य विस्तार करने की उसकी नीति न थी, इसके विपरीत उसका अडिग विश्वास साम्राज्य के संगठन में था। इस उद्देश्य की पूर्ति के हेतु के उसने उमराव वर्ग को अपने नियंत्रण में रखा एवं सुलतान के पद और प्रतिष्ठा को बनाया। उसका कहना था कि "सुल्तान का हृदय दैवी अनुकंपा की एक विशेष निधि है, इस कारण उसका अस्तित्व अद्वितीय है।" उसने सिजदा एवं पाबोस की पद्धति को चलाया। उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उसको देखते ही लाग संज्ञाहीन हो जाते थे। उसका भय व्यापक था। उसने सेना का भी सुधार किया, दुर्बल और वृद्ध सेनानायकों को हटाकर उनकी जगह वीर एवं साहसी जवानों को नियुक्त किया। वह तुर्क जाति के एकाधिकार का प्रतिपालक था, अत: उच्च पदों से अतुर्क लोगों को उसने हटा दिया। कीर्ति और यश प्राप्त कर वह सं. 1287 ई. के मध्य परलोक सिधारा। बलबन के दरबारी फारशी कवी आमिर खुसरो और आमिर हसन थे नाशिरुद्दीन महमूद ने बलबन को उलुग खान कि उपाधि दी बलबन ने फारशी त्यौहार नवरोज प्रारम्भ करबाया सिजदा और पेबोस एक प्रकार कि सम्मान करने कि पद्धति थी जिसमे सुल्तान को लेट कर सम्मान देते थे और सुल्तान का ताज और पैर पर चुमते थे बलबन दिली कि मंगोलों के आक्रमण से रक्षा करने में सफल रहा बलबन ने प्रारंभ में ही तुर्कान-ए-चहलगानी(40 गुलामों का दल) का नाश किया जिसे इल्तुत्मिस ने बनाया था

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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