कोलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त
लारेन्स कोलबर्ग (1927 – 1987) के नैतिक विकास के छः चरण हैं जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। इन छः चरणों में से प्रत्येक चरण नैतिक दुविधाएँ सुलझाने में अपने पूर्व चरण से अधिक परिपूर्ण कोलबर्ग ने नैतिक विकाश के सिद्धान्त को अबस्था का सिद्धान्त भी कहा है। पियाजे की तरह कोलबर्ग ने भी पाया कि नैतिक विकास कुछ चरणों (स्टेप्स) में होता है। कोलबर्ग ने पाया कि ये चरण सार्वभौमिक होते हैं। बच्चों के साथ बीस साल तक एक विशेष प्रकार के साक्षात्कार का प्रयोग करने के बाद कोलबर्ग इन निर्णयों पर पहुंचे।
इन साक्षात्कारों में बच्चों को कुछ ऐसी कहानियां सुनाई गईं जिनमें कहानियों के पात्रों के सामने कई नैतिक उलझने थीं। उसमें से सबसे लोकप्रिय दुविधा यह है-
- यूरोप में एक महिला मौत के कगार पर थी। डाक्टरों ने कहा कि एक दवाई है जिससे शायद उसकी जान बच जाए। वो एक तरह का रेडियम था जिसकी खोज उस शहर के एक फार्मासिस्ट ने उस दौरान ही की थी। दवाई बनाने का खर्चा बहुत था और दवाई वाला दवाई बनाने के खर्च से दस गुना ज्यादा पैसे मांग रहा था। उस औरत का इलाज करने के लिए उसका पति हाइनज उन सबके पास गया जिन्हें वह जानता था। फिर भी उसे केवल कुछ पैसे ही उधार मिले जो कि दवाई के दाम से आधे ही थे। उसने दवाई वाले से कहा कि उसकी पत्नी मरने वाली है, वो उस दवाई को सस्ते में दे दे। वह उसके बाकी पैसे बाद में देगा। फिर भी दवाई वाले ने मना कर दिया। दवाई वाले ने कहा कि मैंने यह दवाई खोजी है, मैं इसे बेच कर पैसा कमाऊंगा। तब हाइनज ने मजबूर होकर उसकी दुकान तोड़ कर वो दवाई अपनी पत्नी के लिए चुरा ली।
यह कहानी उन ग्यारह कहानियों में से एक है, जो कोलबर्ग ने नैतिक विकास को जानने के लिए इस्तेमाल की थीं। यह कहानी पढ़ने के बाद जिन बच्चों से साक्षात्कार लिया गया उन्हें नैतिक दुविधा पर बनाए गए कुछ प्रश्नों के उत्तर देने होते थे।
- क्या हाइनज को वो दवाई चुरा लेनी चाहिए थी?
- क्या चोरी करना सही है या गलत है! क्यों?
- क्या यह एक पति का कर्त्तव्य है कि वो अपनी पत्नी के लिए दवाई चोरी करके लाए?
- क्या दवाई बनाने वाले को हक है कि वो दवाई के इतने पैसे मांगे?
- क्या ऐसा कोई कानून नहीं है जिससे दवाई की कीमत पर अंकुश लगाया जा सके, क्यों और क्यों नहीं?
कोलबर्ग के द्वारा दी गई अवस्थाएं
साक्षात्कार द्वारा दिए गए उत्तरों के आधार पर कोलबर्ग ने नैतिक चिंतन की तीन अवस्थाएं बताई हैं, जिन्हें पुनः दो-दो चरणों में विभाजित किया गया है।
रूढ़ि-पूर्व अवस्था में चिंतन
यह नैतिक चिन्तन का सबसे निचला चरण है। इस चरण में क्या सही और गलत है, पर बाहर से मिलने वाली सजा और उपहार का प्रभाव पड़ता है।
चरण 1 : बाहरी सत्ता पर आधारित
नैतिकता इस रूढ़ि पूर्व अवस्था का पहला चरण है। यहां नैतिक सोच, सजा से बंधी होती है। जैसे बच्चे यह मानते हैं कि उन्हें बड़ों की बातें माननी चाहिए नहीं तो बड़े उन्हें दण्डित करेंगे।
चरण 2 : व्यक्ति केन्द्रित, एक दूसरे का हित साधने पर आधारित नैतिक चिंतन - यह रूढ़ि पूर्व अवस्था का दूसरा चरण है। यहां बच्चा सोचता है कि अपने हितों के अनुसार कार्य करने में कुछ गलत नहीं है, पर हमें साथ में दूसरों को भी उनके हितों के अनुरूप काम करने का मौका देना चाहिए। अतः इस स्तर की नैतिक सोच यह कहती है कि वही बात सही है जिसमें बराबरी का लेन-देन हो रहा हो। अगर हम दूसरे की कोई इच्छा पूरी कर दें तो वे भी हमारी इच्छा पूरी कर देंगे।
रूढ़िगत चिन्तन 10 से 13 वर्ष
यह कोलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांतों की दूसरी अवस्था है। इस अवस्था में लोग एक पूर्व आधारित सोच से चीजों को देखते हैं। जैसे देखा गया है कि अक्सर बच्चों का व्यवहार उनके मां-बाप या किसी बड़े व्यक्ति द्वारा बनाए गए नियमों पर आधारित होता है।
चरण 3 : अच्छे आपसी व्यवहार व सम्बन्धों पर आधारित नैतिक चिन्तन - यह कोलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांतों की तीसरी अवस्था है। इस स्थिति में लोग विश्वास, दूसरों का ख्याल रखना, दूसरों के निष्पक्ष व्यवहार को अपने नैतिक व्यवहार का आधार मानते हैं। बच्चे और युवा अपने माता-पिता द्वारा निर्धारित किये गए नैतिक व्यवहार के मापदण्डों को अपनाते है जो उन्हें उनके माता-पिता की नजर में एक "अच्छा लड़का या अच्छी लड़की"‘ बनाते हैं।
चरण 4 : सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने पर आधारित नैतिक चिन्तन - यह कोलबर्ग के सिद्धांतों की चौथी अवस्था है। इस स्थिति में लोगों के नैतिक विकास की अवस्था सामाजिक आदेश, कानून, न्याय और कर्त्तव्यों पर आधारित होती है जैसे किशोर सोचते हैं कि समाज अच्छे से चले इसके लिए कानून के द्वारा बनाए गए दायरे के अन्दर ही रहना चाहिए।
रूढ़ि से ऊपर उठकर नैतिक चिन्तन
यह कोलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांतों की तीसरी अवस्था है। इस स्थिति में वैकल्पिक रास्ते खोजे जाते हैं और फिर अपना एक व्यक्तिगत नैतिक व्यवहार का रास्ता ढूंढा जाता है
चरण 5 : सामाजिक अनुबन्ध, उपयोगिता और व्यक्तिगत अधिकारों पर आधारित नैतिक चिन्तन - यह कोलबर्ग के सिद्धांत की पांचवी अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति यह सोचने लगता है कि कुछ मूल्य, सिद्धांत और अधिकार कानून से भी ऊपर हो सकते हैं। व्यक्ति वास्तविक सामाजिक व्यवस्थाओं का मूल्यांकन इस दृष्टि से करने लगता है कि वे किस हद तक मूल अधिकारों व मूल्यों का संरक्षण करते है।
चरण 6 : सार्वभौमिक नीति सम्मत सिद्धांतों पर आधारित नैतिक चिन्तन - यह कोलबर्ग के नैतिक सिद्धान्तों की सबसे ऊंची और छठी अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति सार्वभौमिक मानवाधिकार पर आधारित नैतिक मापदण्ड बनाता है। जब भी कोई व्यक्ति अंतरात्मा की आवाज के द्वंद के बीच फंसा होता है तो वह व्यक्ति यह तर्क करता है कि अंतरात्मा की आवाज के साथ चलना चाहिए, चाहे वो निर्णय जोखिम से भरा ही क्यों न हो। इसीलिए उसे कुछ भी करने से पहले अपनी भावनाओं के अलावा औरों की जिन्दगी के बारे में भी सोचना चाहिए था।
कोलबर्ग मानते हैं कि यह अवस्थाएं एक क्रम में चलते हैं और उम्र से जुड़े हुए हैं। 9 साल की उम्र से पहले बच्चे पहले स्तर पर काम करते है। अधिकतर किशोर तीसरी अवस्था में सोचते पाए जाते हैं पर उनमें दूसरी अवस्था और चौथी अवस्था के सोच विचार के कुछ लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं। प्रारंभिक वयस्कता में पहुॅचने पर कुछ थोड़े से लोग ही रूढ़िपूर्णता से ऊपर उठकर नैतिक तर्क देते है।
लेकिन वे कौन से सबूत हैं जो इस तरीके के विकास को प्रमाणित करते हैं? 20 साल के लम्बे अध्ययन के परिणामों के अनुसार उम्र के साथ अवस्था 1 और 2 का उपयोग घटा है और अवस्था 4 जो 10 साल की उम्र के बच्चों के नैतिक तर्क में बिलकुल भी नहीं आती, वह 36 साल की उम्र के 62 प्रतिशत लोगों की नैतिक सोच में दिखाई दी। पांचवी अवस्था 20 से 22 साल की उम्र तक बिल्कुल भी नहीं आती और वह कभी भी 10 प्रतिशत से ज्यादा में नहीं दिखाई देती।
इसीलिए नैतिक अवस्थाएं जैसा कि कोलबर्ग ने शुरूआत में सोचा था, उससे थोड़ी देर में आती है और छठी अवस्था में चिन्तन करना तो बहुत ऊंची अवस्थाओं में आता है, जो कि बहुत विलक्षण है। हालांकि अवस्था 6 कोहलबर्ग की नैतिक निर्णायक अंक प्रणाली से हटा दी गई है, लेकिन यह अभी भी सैद्धांतिक रूप से कोलबर्ग की नैतिक विकास की संकल्पना के लिए जरूरी मानी जाती है।
कोलबर्ग की अवस्थाओं पर प्रभाव
ऐसे कौन से कारक है जो कोलबर्ग की अवस्थाओं से गुजरने पर असर डालते है? हालांकि हर अवस्था में नैतिक तर्क इस बात पर आधारित होता है कि कुछ स्तर का संज्ञानात्मक विकास होगा। कोलबर्ग यह बहस करते हैं कि बच्चों का संज्ञानात्मक विकास उनके नैतिक चिंतन के विकास को सुनिश्चित नहीं करता है, बल्कि बच्चों की नैतिक तार्किकता यह दिखाती है कि उन्हें नैतिक सवालों और नैतिक द्वंद्व को हल करने के कैसे अनुभव मिले हैं। कोलबर्ग मानते थे कि बच्चों की आपस में बातचीत ऐसे सामाजिक उद्दीपनों में से अहम् चीज है जो बच्चों की अपनी नैतिक सोच को बदलने की चुनौती प्रदान कर सकती है। जबकि वयस्क नियम और कायदे बच्चों पर थोपते हैं, बच्चों में आपसी लेन-देन उनको दूसरे व्यक्ति का दृष्टिकोण देखने और जनतांत्रिक ढंग से नियम बनाने का अवसर प्रदान करता हैं। कोलबर्ग कहते हैं कि बच्चों में दूसरों का दृष्टिकोण लेने की क्षमता उनके नैतिक तर्क में प्रगति लाती है।
कोलबर्ग के नैतिकता के सिद्धांतों की आलोचना निम्नलिखित बिन्दुओं पर की गई हैः-
नैतिक सोच और नैतिक व्यवहार
कोलबर्ग के आलोचकों के अनुसार कोलबर्ग के नैतिक सिद्धांतों का सारा ध्यान नैतिक सोच तक सीमित है और उनमें नैतिक व्यवहार के बारे में ज्यादा बात नहीं की गई है। उनका कहना है कि नैतिक व्यवहार पर बात करना उतना ही जरूरी है जितना नैतिक सोच पर बात करना क्योंकि कई बार लोग दिखाते हैं कि उनकी सोच काफी नैतिक है परंतु उनका व्यवहार उसके विपरीत होता है। जरूरी नहीं है कि सोच का दावा करने वाले लोग नैतिक व्यवहार भी करें। इसीलिए नैतिक सोच और नैतिक व्यवहार दोनों का अध्ययन करना जरूरी हो जाता है। जैसे नेता कई नैतिक दावे करते हैं परन्तु उनका व्यवहार कई बार अनैतिक व उनके दावे के विपरीत होता है। इसके अलावा नैतिकता की समझ होते हुए भी लोग अनैतिक कार्य करते हैं। जैसे चोरों को पता है कि चोरी करना गलत काम है परन्तु इसके बावजूद वह चोरी करते हैं। दूसरी ओर बैन्दूरा का कहना है कि काफी लोग अपने अनैतिक व्यवहार को नैतिक उद्देश्यों से अपनी और समाज की नजरों में सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं जैसे जेहाद ( श्रपींक ) के नाम पर किए जाने वाले हमले और गर्भपात विरोधी कार्यकर्ता जो बच्चे गिराकर गर्भपात करने वाले अस्पताल नष्ट करते हैं और डॉक्टरों का खून करते है।
नैतिक तर्कां का मूल्यांकन
आलोचकों का मानना है कि कोलबर्ग के सिद्धांतों में नैतिकता के मूल्यांकन पर खास ध्यान देना चाहिए। उनका मानना है कि जो कहानी कोलबर्ग नैतिक तर्कों का मूल्यांकन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं उनके आधार पर मूल्यांकन करना काफी मुश्किल होता है। इसके अलावा कोलबर्ग जो दुविधाएं प्रस्तुत करते हैं, वे भी नैतिक तर्कों का मूल्यांकन करने के लिए असली जिन्दगी में आने वाली दुविधाओं से काफी अलग हैं।
संस्कृति और नैतिक तर्क
कोलबर्ग के अनुसार उसकी नैतिक तर्कों की अवस्थाएं सार्वभौमिक है परंतु कुछ आलोचकों के अनुसार उसके सिद्धांत सांस्कृतिक रूप से पक्षपाती है। परंतु कोलबर्ग और उनके आलोचक दोनोंं ही कुछ हद तक ठीक हैं। 27 संस्कृतियों में किए गए 45 अध्ययनों में कोलबर्ग के सिद्धांतों की पहली चार अवस्थाएं सार्वभौमिक पाई गईं। परंतु पांचवी और छठवीं अवस्थाएं सारी संस्कृतियों में नहीं पाई गई हैं तथा यह भी पाया गया कि कोलबर्ग की मूल्यांकन व्यवस्था में अन्य संस्कृतियों में पाए जाने वाले उच्च नैतिक तर्कं समाहित नहीं है तथा नैतिक चिन्तन, जितना कोलबर्ग ने सोचा था उससे ज्यादा संस्कृति विशेष पर निर्भर करता है। भारत में हर जीव की पवित्रता और जीव संसार की एकता का नैतिक चिन्तन, इजराइल में समुदाय की समता और सामूहिक सुख के चिन्तन पर आधारित नैतिकता और न्यूगिनी में सामूहिक नैतिक दायित्व की सोच जैसे विचारों को कोलबर्ग के नैतिक तर्कों की अवस्थाओं में उच्च स्थान पर नहीं रखा जाएगा क्योंकि उनमें अन्य विचारों की तुलना में न्याय के विचार को ज्यादा तवज्जो दी गई है। बावजूद इसके कि कोलबर्ग के सिद्धांत काफी सारी संस्कृतियों के लिए ठीक बैठते हैं परंतु वह कुछ संस्कृतियों की नैतिक अवधारणाओं को नहीं शामिल करते।
परिवार और नैतिक विकास
कोलबर्ग का मानना है कि पारिवारिक प्रक्रियाएं बच्चों के नैतिक विकास के लिए कुछ खास जरूरी नहीं है। उनका कहना है कि बच्चों और माता-पिता के बीच का संबंध बच्चों को एक दूसरे की राय लेने के बहुत कम अवसर देते हैं। बल्कि बच्चों को नैतिक विकास के ज्यादा अवसर अपने दोस्तों के साथ मिलते हैं। विकासवादी व्यक्तियों का मानना है कि दोस्तों के साथ सक्रिय अनुशासन यानि तर्क को इस्तेमाल करना और बच्चों का ध्यान उनके द्वारा किए गए कार्यो के नतीजे पर ले जाने से भी उनका नैतिक विकास होता है। इसके अलावा माता-पिता के खुद के नैतिक मूल्य भी बच्चों के नैतिक विकास में सहायता करते हैं।
जेंडर और देखभाल का दृष्टिकोण
कैरोल गिलिगन की आलोचना के अनुसार कोलबर्ग के सिद्धांत लिंग भेद पर आधारित है। गिलिगन का कहना है कि कोहलबर्ग के सिद्धांत पुरूष रिवाजों पर आधारित हैं जो कि सिद्धांतों को आपसी संबंधों से ऊपर रखते हैं। वे मानते है कि व्यक्ति अपने नैतिक निर्णय स्वतंत्र रूप से लेते हैं। कोलबर्ग के दृष्टिकोण में नैतिकता न्याय पर आधारित है परंतु गिलिगन का मानना है कि कोलबर्ग ने अपने नैतिक सिद्धांतों में देखभाल के दृष्टिकोण को शामिल नहीं किया है। उन्होंने आपसी संबंध, एक दूसरों की चिंता की भावना, एक दूसरे की जुड़ाव की भावना को अपनी नैतिकता में कोई स्थान नहीं दिया है। गिलिगन के अनुसार ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कोलबर्ग खुद पुरूष हैं और उनके सिद्धांत पुरूषों पर किए गए शोध व उनके जवाबों पर आधारित है। जबकि गिलिगन ने जब 6 से 18 साल की लड़कियों के जवाबों का अध्ययन किया तो उन्होंने देखा कि लड़कियां मनुष्य के आपसी संबंधों के आधार पर नैतिक दुविधा का निर्णय लेती थी। परंतु कुछ अध्ययन ने नैतिक निर्णय में लिंग भेद के होने पर शंका जताई है। उनके अनुसार नैतिक निर्णय में यह भेद बहुत कम होते हैं और पुरूष और महिला दोनों आपसी संबंधों वाली दुविधाओं को देखभाल के दृष्टिकोण से हल करते हैं और सामाजिक दुविधाओं को न्यायिक दृष्टिकोण से हल करते हैं