काव्य नाटक
काव्य-नाट्य, नाटक और काव्य की एक मिली-जुली विधा है। इसमें काव्य और नाटक दोनों के तत्वों का समन्वय रहता है। हिंदी में इस विधा को गीति-काव्य, काव्य-नाटक, दृश्य-काव्य आदि कई नामों से पुकारा जाता है। आज काव्य भी छन्द मुक्त होकर नाटक के समीप आ गया है। डॉ॰ दशरथ ओझा इसे ‘गीति-नाट्य’ ‘गीति-रूपक’, ‘काव्य-रूपक, संगीत रूपक’, ‘गीति-नाटक के पर्याय के रूप में प्रयुक्त करते हैं। सर्वाधिक उपयुक्त नाटक काव्य नाटक है। डी. एस. इलियट, वैष्ठ एच. क्लार्क, जे. इसाक. जी. फ्रीडले, सी. इसल. एच. सी. बार्कर आदि ने काव्य-नाटक विधा को ‘‘Poetic Drama’’ कहा है। भारत-भूषण का ‘अग्रिलीक’ प्रकाश दीक्षित का ‘टयु’ धर्मवीर भारती का ‘अंधा-युग’ काव्य-नाटक ही है।
काव्य नाटक की विशेषताएँ
काव्य-नाटक में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं।
1. काव्य-नाटक में काव्य-तत्त्व और नाटक-तत्त्व का समन्वय होता है।
2. अनुभूतियों का नाटकीय प्रकाशन होता है।
3. बहिर्जगत को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता।
4. विषय-वस्तु काव्यात्मक एवं नाटकीय होती है।
5. रूप विधान पूर्णरूप से काव्यात्मक एवं नाटकीय होता है।
6. काव्यात्मक विषय-वस्तु अभिनय होती है।
7. कथानक में नाटकीयता और घटनाओं का संघर्ष अनिवार्य होता है।
काव्य-नाटक के तत्त्व =
‘हिंदी साहित्य कोश' के अनुसार काव्य-नाटक के निम्नलिखित तत्त्व हैं—
1. प्रस्तावना
2. कथा
3. संवाद
4. गीत
5. नर्तन
पाश्चात्य साहित्य शास्त्रियों के अनुसार काव्य-नाटक के निम्नलिखित तत्त्व हैं- 1. अन्तर्जीवन 2. बहिर्जीवन 3. विषय-वस्तु योजना 4. वैयक्तिकता 5. पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाएँ 6. आधुनिक जीवन 7. भावमय पात्र योजना (चरित्र-चित्रण) 8. कथोपकथन 9. भाषा शैली—छन्द योजना मुक्त छंद, बिम्ब-विधान, प्रतीक विधान।
काव्य-नाटक परिचय की देन है प्रो॰ चैण्डर ने काव्य-नाटक की परिभाषा निम्न प्रकार दी है-
‘‘वह न तो हर तरफ से बन्द नाटक है और न ही नाटकीय कविता यह एक ऐसा नाटक होता है जो विषय-वस्तु और स्वरूप विधान दोनों में ही पूर्णरूप से काव्यात्मक एवं नाटकीय होता है। दूसरे शब्दों में कविता के लिए पूर्णतया आयोजित सौन्दर्य और विचारात्मकता से युक्त पद्य में एक अभिनय नाटक होता है। सच्चा काव्य-नाटक केवल छन्दोवद्धता से ही भरा-पुरा नहीं होता, बल्कि इसमें पद्य नाटककार की वस्तु व्यंजना के लिए अनिवार्य एवं अपरिहार्य अंग बनकर आता है।
उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि काव्य-नाटक काव्यात्मक और रूपकत्व का संगम होता है। इसमें काव्य-जीवन के राग-तत्त्व बड़ी स्पष्टता से उभरकर आते हैं। नाटक तत्त्व इसका ब्राह्म-स्वरूप निर्मित करता है। नाटक-तत्त्व कथानक का निर्माण करता है घटनाएँ देता है, संघर्ष देता है, पात्रों की सृष्टि करता है और काव्य तत्त्व इमसें अनुभूतियों का दान देता है। उपर्युक्त विश्लेषण के अनुसार काव्य-नाटक के तत्त्व निम्नलिखित हैं--
1. अन्तर्जीवन-काव्य-नाटक की विषय-वस्तु मनुष्य के तीव्र मनोभाव अथवा भावात्मक सत्य पर केंद्रित रहती है। काव्य-नाटक का केन्द्रीय तत्त्व मानव का अन्तर्जीवन है। काव्य-नाटक सामान्य तथा बहिर्जीवन की उपेक्षा कर सीधे मानव-जीवन की गहराइयों तक पहुँचने की चेष्टा करता है।
-एयर कृमकों
2.बहिर्जीवन-काव्य-नाटक में बहिर्जीवन का वर्णन गौण ही रहता है। इसमें अन्तर्जीवन के अंकन के द्वारा ही बहिर्जीवन की व्यंजना होती है। ‘अन्तर्जीवन के काव्यात्मक प्रतिपादन के द्वारा ही बहिर्जीवन की सशक्त अभिव्यंजना होती है।
-क्रीट्स
विषय वस्तु—विषय वस्तु के गठन में नाटकीय कौतूहल प्रारम्भ से लेकर अन्त तक बना रहता है। कथानक में वर्णात्मकता के स्थान पर भाव व्यंजना का महत्त्व रहता है। भावान्वित पूर्णरूप से बनी रहती है।
4. वैयक्तिकता—काव्य-नाटक में वैयक्तिक भावात्मक स्थितियों का निरूपण रहता है। अतिशय वैयक्तिकता भी नहीं होनी चाहिए। व्यक्तिगत भावना के निरूपण के साथ में वास्तविकताओं की भी अभिव्यक्ति होनी चाहिए।
5. पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाएँ—काव्य-नाटक में कथावस्तु पौराणिक तथा ऐतिहासिक गौरव-गाथाओं के क्षेत्र से ली जाती है। रोनाल्ड पोकॉक के अनुसार काव्य-नाटक की सशक्त शैली में निम्नलिखित तीन प्रमुख विशेषताएँ मानी हैं—
1. पुराण की कथा केन्द्र हैं;
2. चरित्रों में सशक्त मनोवैज्ञानिक वास्तविकता हो; तथा
3. कलात्मक मानसिक चित्र प्रस्तुत किये गये हों।
6. आधुनिक जीवन---आधुनिक काव्य-नाटकों में पौराणिक अथवा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में समसामयिक समस्याओं को प्रस्तुत किया जाता है। धर्मवीर भारती, भारत-भूषण अग्रवाल आदि ने पौराणिक कथाओं के आधुनिक जीवन को अपने काव्य-नाटकों में सफलता से अंकित किया है।
7. चरित्र-निर्माण—काव्य-नाटक में पात्रों के मानसिक संघर्ष के चित्रण को विशेष महत्त्व दिया जाता है। काव्य-नाटक में पात्रों की संख्या कम होती है। पात्र प्रतीक मात्र न होकर सजीव व्यक्तित्व वाले होते हैं। काव्य-नाटक में पात्रोंकी सृष्टि भावमय होती है। वह भावमय सृष्टि इस प्रकार करता है कि पात्र वास्तविक जीवन की अभिव्यक्ति में समर्थ होते हैं। ‘अग्निलीक’ में सीता और ‘मृत्यु’ हमारे सामने वास्तविक मनुष्य के ही रूप में आते हैं।
8. कथोपकथन—काव्य-नाटक में संवाद छन्दात्मक पदों या मुक्त-छन्द कविता में होते हैं। संवाद पात्रों की मानसिक उथल-पुथल एवं अनुभूतियों को उभारते हैं। कथोपथनों में पद्य-योजना पात्रों की प्रकृति और चरित्रगत विशेषताओं को स्पष्ट करती है। काव्य-नाटक में अभिव्यक्ति संवादों ही के माध्यम से होती है।
9. भाषा-शैली—काव्य-नाटक की भाषा शैली में छन्द-विधान, बिम्ब-विधान, प्रतीक विधान और चित्रोमय भाषा-विधान आवश्यक है। काव्य-नाटक में मुक्त छन्द का प्रयोग होता है। धर्मवीर भारती, भारत-भूषण अग्रवाल सिद्धार्थ कुमार प्रकाश दीक्षित आदि ने अपने काव्य नाटकों में मुक्त छन्द ही का प्रयोग किया है। काव्य-नाटक में काव्य-चित्रों, प्रतीकों एवं रूपकों की सहायता से सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति होती है। माला प्रवाह, छन्दमयता और लय-पूर्णता के कारण बिम्ब अथवा चित्र अधिक तीव्र और स्पष्ट हो जाता है।
हिंदी में काव्य-नाटक का विकास
1. पहला काव्य-नाटक भारतेन्दु की ‘चन्द्रावली’ नाटिका।
2. इसके पश्चात् प्रसाद जी का ‘करुणालय’।
3. मैथिली शरण गुप्त के ‘अनघ’ ‘तिलोत्तमा’, ‘चन्द्रहास’
4. सियारामशरण गुप्त-उन्मुक्त और कृष्णाकुमारी
5. हरिकृष्ण प्रेमी-स्वर्ण-विहान
6. भगवती चरण वर्मा-तारा
7. उदयशंकर-मत्स्यगंधा, विश्वामित्र
8. छायावादी युग-के काव्य नाटक
9. दिनकर जी का ‘मगध महिमा’
10. अन्य अनेक काव्य नाटक
11. धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’
12. सिद्धार्थ कुमार के काव्य-नाटक
13. आरतीप्रसाद सिंह आदि के काव्य-नाटक
14. अंधायुग सर्वश्रेष्ठ काव्य-नाटक