क्लासिक

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क्लासिक मूलत: प्राचीन यूनान और रोम के लेखकों और उनकी कृतियों, किंतु अब, किसी भी देश और युग के कालजित्‌ कीर्तिलब्ध, सर्वमान्य या प्रतिष्ठित लेखकों और उनकी कृतियों के लिये प्रयुक्त शब्द। वर्तमान अर्थ में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ईसा की दूसरी सदी में रोमन लेखक औलस गेलियस ने किया। उसके अनुसार लेखक दो कोटि के होते हैं।

1. क्लासिकल स्क्रिप्तोर अर्थात्‌ वह जिनकी रचना प्रथम कोटि की या कीर्तिमानस्थापक होती है और

2. प्राजीतारियस स्क्रिप्तोर अर्थात्‌ वह जिसकी रचना सर्वहारा की शैली में होने के कारण साधारण कोटि की या कालसापेक्ष होती है।

रोम के छठे राजा सेर्वियस तूलियस ने अपने संवैधानिक सुधारों में संपत्ति के अधिकार पर रोम के नागरिकों के पाँच वर्ग बनाए थे। रोमन समाज के इस वर्गीय विभाजन में सबसे वैभवसंपन्न नागरिक ‘क्लासिक’ (सर्वोच्च या अभिजात) और सबसे निराश्रित और संपत्तिहीन नागरिक ‘प्रालीतारी’ (सर्वहारा) कहे गए थे। लेखकों की उपर्युक्त दो कोटियों का नामकरण इसी सामाजिक विभाजन के अनुकरण के आधार पर हुआ। आधुनिक युग में संगीत, चित्र, पूर्ति, चलचित्र आदि कलाओं के प्रतिष्ठित मेधावियों और उनकी रचनाओं के लिये भी कलासिक शब्द का व्यवहार किया जाने लगा है। क्लासिक शब्द की अर्थसीमा को और भी विस्तृत कर अब जीवन के किसी क्षेत्र में भी विश्रुत या स्थायी कीर्तिमान स्थापित करने वाले व्यक्ति, उसकी दक्षता, शैली या उपलब्धि, अनन्य या विख्यात क्रीड़ाप्रतियोगिताओं इत्यादि को भी क्लासिक कहा जाता है। यथा-क्रिकेट में डब्ल्यू. जी. ग्रेस और रणजी और हाकी में ध्यानचंद को क्लािसिक कहा जाता है। इसी प्रकार विश्वविख्यात घुड़दौड़ प्रतियोगिता डर्बी, नौकादौड़ प्रतियोगिता हेनली रीगैटा, टेनिस प्रतियोगिता ‘विबलडन’ इत्यादि को, उनके व्यावसायिक या अव्यावसायिक रूप को ध्यान में रखे बिना, ‘क्लासिक’ की संज्ञा दी जाती है। टी. एस. ईलियट ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘ह्‌वाट इज़ ए क्लासिक’ में ए गाइड टु द ‘क्लासिक्स’ नामक पुस्तक का उल्लेख किया है, जिसका उद्देश्य पाठकों को प्रतियोगिता के पूर्व ही डर्बी में प्रथम आने वाले घोड़े के विषय में सही अनुमान करने की क्षमता प्रदान करना था। इस प्रकार क्लासिक शब्द के विभिन्न संदर्भो में विभिन्न अर्थ हैं।

जहाँ तक क्लासिक शब्द के साहित्यिक प्रयोग का प्रश्न है, पश्चिम की देन होते हुए भी, इसका प्रचलन अब संसार की सभी भाषाओं और साहित्यों में है। किसी भी प्राचीन भाषा या साहित्य को उससे प्रभावित या विकसित किसी आधुनिक भाषा या साहित्य के संदर्भ में ‘क्लासिक’ कहा जाता है। इस प्रकार संस्कृत को अधिकांश भारतीय भाषाओं या साहित्यों के संदर्भ में या प्राचीन चीनी भाषा और उसके साहित्य को आधुनिक चीनी भाषा और साहित्य के संदर्भ में ‘क्लासिक’ कहा जाता है। दूसरी ओर प्रत्येक भाषा के साहित्य का कालविभाजन कुछ विशेष साहित्यिक मूल्यों के आधार पर ‘क्लासिक’ तथा अन्य शब्दों में व्यक्त किया जाता है। इस प्रकार स्वयं संस्कृत और प्राचीन चीनी साहित्य के भीतर ‘क्लासिक’ काल माने जाते हैं। साथ ही संस्कृत के सापेक्ष हिंदी अ ‘क्लासिक’ भाषा और साहित्य है, किंतु हिंदु में भी अपना ‘क्लासिक काल’ है।

यहाँ ‘क्लासिक’ शब्द और उसके मूल्यों की विवेचना उन्हीं संदर्भो में की गई है जिनमें उनका विकास हुआ।

प्राचीन ग्रीक और रोमन साहित्य

प्राचीन ग्रीस और रोम का साहित्य कालविस्तार, वस्तु और विधाओं की विविधता, शिल्पगत समृद्धि और यूरोपीय साहित्य और संस्कृति की मुख्य प्रेरणात्मक शक्ति की दृष्टि से असाधरण महत्त्व का है। उसका प्रसार होमर (ल. ९०० ई. पू.) से लेकर जुस्तिनियन (५२७ ई.) तक माना जाता है। १४ सदियों के इस लंबे साहित्यिक इतिहास के तीन कालविभाग किए जाते हैं:

(१) क्लासिकल- होमर से लेकर सम्राट सिकंदर की मृत्यु तक, (ल. ९०० ई. पू.-३२३ ई. पू.),

(२) हेलेनिक (३२३ ई. पू.-१०० ई.),

(३) हेलेनिकोत्तर या ग्रेको-रोमन (१०० ई.-५२९ ई.)।

क्लासिकल काल

इसे अंशत: वीरगाथाकाल कहना अनुचित न होगा, महाकाव्य, गीतिकाव्य, नाटक और गद्य-सभी में नवीन किंतु श्रेष्ठ कृतित्व का काल है। अंधकवि होमर वीरगाथाकाल के साथ साथ यूरोप का आदि कवि भी हैं। उसकी प्रसिद्ध रचनाओं, ‘ईलियद’ और ‘ओदेसी’, में यूनान के कवियों की लंबी मौखिक परंपरा और उसकी व्यक्तिगत प्रतिभा का संगम है। ग्रीक वीरछंद हेक्सामीअर में रचित युद्ध और पराक्रम की ये कथाएँ इतनी लोकप्रिय हुई कि इनके गायकों की ‘होमरीदाई’ (होमर के पुत्र) नामक श्रेणी बन गई। इन्हें होमर के लगभग ३०० वर्ष वाद छठी सदी ई. पू. में लिपिबद्ध किया गया। इसी वीरछंद का प्रयोग आठवीं सदी ई. पू. में हेसिआद ने अपनी नीतिपरक और दार्शनिक कविताओं में किया। बाद में हेसिआद की परंपरा में ही ज़ेजोफेनिज, पारमेनीदीज, एंपिदोक्लीज़ आदि दार्शनिक कवि हुए।

सातवीं सदी ई. पू. में ग्रीक लिरिक या गीतिकाव्य का जन्म हुआ। ‘लीरे’ नामक तंत्री वाद्ययंत्र के स्वर पर गाए जानेवाले इनगीतों का प्रारंभ राजनीतिक विष्यवस्तु से हुआ लेकिन बाद में उन्होंने प्रधानत: प्रयाणनिवेदन या मरसिया (ऐलेजी) का रूप ग्रहण किया। इनकी रचना आइएंबिक छंदों में होती थी। व्यक्तिगत गायन के लिये रचित इन गीतों के क्षेत्र में सबसे प्रसिद्ध नाम आल्कीयस और कवयित्री सैफ़ो के हैं। इन व्यक्तिगत गीतों के अतिरिक्त सामूहिक (कोरस) गीतों का भी उदय हुआ। इनका चरमोत्कर्ष छठी-पाँचवी सदी ई. पू. में पिंदार की रचनाओं में हुआ।

धार्मिक कृत्यों के अवसर पर साधारण जन द्वारा गाए जानेवाले ‘कोरस’ गीतों से पाँचवीं सदी ई. पू. में प्राचीन यूनानी साहित्य में नाटकों का अत्यंत महत्वपूर्ण विकास हुआ। त्राजेदी (दु:खांत नाटक) के क्षेत्र में ईस्किलस, सोफ़ोक्लीज़ और यूरीपीदीज़ और कामेदी (सुखांत नाटक) के क्षेत्र में अरिस्तोफ़नीज के नाम विख्यात हैं।

गद्य का विकास साहित्य की अन्य विधाओं के बाद, प्राय: चौथी सदी ई. पू. में हुआ। तीन मुख्य दिशाएँ थीं : वक्तृता, जिसमें सबसे प्रसिद्ध नाम दिमास्थेनीज़ का है, इतिहास जिसमें सबसे प्रसिद्ध नाम हेरीदोतस, यूकिदीदीज़ (यूसिडाइडीज़) और ज़ेनोफ़ोन के हैं।

हेलेनिक काल

इस काल के साहित्य में मौलिक प्रयोगों के स्थान पर अनुकरण और विद्वत्ता की प्रवृति अधिक है। इस काल की कविताएँ प्राय: प्रेमविषयक, लघु और परिमार्जित हैं। अपोलोनियस रोदियस ने प्राचीन वीरकाव्य की परंपरा को जीवित रखने और लोकप्रिय बनाने का असफल प्रयत्न किया। कालीमाखस के नेतृत्व में स्फुट प्रेमविषयक कविताओं का प्रचलन अधिक हुआ। अन्य कवियों में एरातस और निकांदर उल्लेखनीय हैं।

यह नाटक का ह्रासकाल था। दु:खांत नाटक के क्षेत्र में इस काल का सबसे प्रसिद्ध लेखक ली क्फ्ऱोन है।

इस काल की कविता में विकास की एक नई दिशा के रूप में थियोक्रितस, बियोन और मौस्कस के पशुचारण, शोकगीतों, ग्वालगीतों का महत्वपूर्ण स्थान है।

वस्तुत: यह कान गद्य में अधिक समृध है। गणित, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, आलोचना, व्याकरण, भाषाशास्त्र आदि के संबंध में रचनाएँ प्रस्तुत हुई। इस काल के इतिहासकारों में पोलीबियस, स्त्रावो और प्लूतार्क विशेष प्रसिद्ध हैं।

हेलेनिकोत्तर काल

रोम द्वारा यूनान पर विजय के बाद का, अर्थात्‌ ग्रेको-रोमन साहित्य गद्य में इतिहास और आलोचना शास्त्र की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण है। रोम के ईसाई धर्म में दीक्षित होने के बाद प्रकृतिपूजक ग्रीस के साहित्य और संस्कृति को बहुत चोट पहुंची। फिर इस युग में प्लूतार्क और लूसियन जैसे इतिहासकार और दियोनीसियस तथा लाजिनस जैसे आलोचनाशात्री हुए।

प्राचीन रोमन या लातीनी साहित्य प्रसार और समृद्धि दोनों ही दृष्टियों से प्राचीन ग्रीक साहित्य से घटकर है। इसके भी तीन विभाजन किए जाते हैं :

  • (१) रिपब्लिक या गणतंत्र युग (२५०-२७ ई. पू.),
  • (२) आगस्तस युग (२७ ई. पू.- १४ ई.),
  • (३) साम्राज्य युग (१४ ई.-५२४ ई.)।

1. रिपब्लिक युग में प्रहसन, नाटक गद्य कविता के क्षेत्र में विशेष कार्य हुआ। प्रहसन में माक्कियस प्लातस, स्तातियस और तेरेंस या तेरेंतियस आफ़ेर, गद्य में वारे और प्रसिद्ध वक्ता तथा राजनीतिज्ञ सिसरो और कविता में लुक्रिशियस तथा कातुलस इस युग के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं।

इन सभी लेखकों की विष्यवस्तु रोम के जीवन से संबद्ध थी, लेकिन इनकी रचनाओं के रूप पर प्राचीन ग्रीक साहित्य का गहरा असर है।

2. आगस्तस काल लातीनी साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता है। इसके साथ लातीनी कविता के सबसे महान कवि वर्जिल का नाम जुड़ा हुआ है। गड़ेरिया जीवन संबंधी दस कविताओं, एक्लोग्ज़ और ग्रीक योद्धा इस के जीवन पर आधारित महाकाव्य, ज्योर्जिक्स के लिये प्रसिद्ध है। उसके साहित्य में ग्रीक और रोमन सांस्कृतिक परंपराओं, रोमन साम्राज्य के तत्कालीन गौरव और एक महान यूरोपीय सभ्यता के उदय के स्वप्न की अत्यंत प्रौढ़, परिमार्जित और समन्वित अभिव्यक्ति है। उसके दृष्टिकोण की सार्वभैम व्यापकता और उदारता और उसकी कविता में ग्रीक और लातीनी कविता की रूपगत शालीनता और सौंदर्य के चरमोत्कर्ष का उल्लेख करते हुए टी. एस. ईलियट ने कहा है : ‘हमारा कलासिक, समसत यूरोप का क्लासिक, वर्जिल है’।

इस युग के दो अन्य विख्यात कवियों में होरेस और ओविद हैं। पहला अपनी व्यंग्य और कटाक्षपूर्ण रचनाओं और कसीदों (ओडों) के लिये और दूसरा प्रणयकविताओं और मरसियों के लिये प्रसिद्ध है।

लिवियस या लिवी इस यु ग का प्रसिद्ध इतिहासकार है। उसने रोम का इतिहास लिखा।

3. साम्राज्यकाल के दो उपविभाजन किए जाते हैं:

  • (अ) रजत काल (१४ ई.-११७ ई.),
  • (ब) ईसाई काल (११७ ई.-५२४ ई.)।

रजतकान के प्रसिद्ध साहित्यकारों में सेनेका ने ग्रीक परंपरा में त्राजेदी, ल्यूकन ने महाकाव्य, फ्लाकस और जुवेनाल व्यंग्य और कटाक्ष, प्लिनी ने इतिहास, क्विंतिलियन ने साहित्यालाचन और इतिहास तथा तासितस ने जीवनचरित, इतिहास, साहित्यिक आलोचना इत्यादि की रचना से लातीनी साहित्य को समृद्ध किया। विद्वानों के मतानुसार वास्तव में रजतयुग के साथ लातीनी साहित्य के क्लासिकल युग की अंत हो जाता है, क्योंकि इसके बादवाले लातीनी साहित्य में भाषा और भाव की शालीनता का उत्तरोत्तर क्षय होता गया।

दूसरी सदी के बाद लातीनी साहित्य पर ईसाई धर्म की प्रभुता स्थापित हो गई। इस साहित्य में प्राचीन ग्रीक और लातीनी मूर्ति और प्रकृतिपूजक परंपरा और ईसाई धर्म की मान्यताओं के बीच तीव्र द्वंद्व की अभिवयक्ति हुई। इस युग के उल्लेखनीय साहित्यकारों में तरतूलियन, मिनूसियस फ़लिक्स, लाक्तांतियस, संत जेरोम, संत आगुस्तिन, बोएथियम, कासियादोरस, संत बेनेदिक्त, ग्रेगरी महान्‌, संत इसीदार आदि हैं।

ईसा की छठी सदी से लेकर पूरे मध्य युग तक लातीनी साहित्य की रचना होती रही। चर्च का सारा कार्य लातीनी में होता ही था, इसके अतिरिक्त लौकिक साहित्य, दर्शन और शिक्षा के क्षेत्र में भी इस भाषा का प्रमुख स्थान था। इस लंबे काल के रचनाकारों में कुछ प्रसिद्ध नाम ये हैं: कोलंबानस (५४३-६१५), बीड (६७३-७३५), अल्कुइन (७३५-८०४), संत बर्नार्ड (१०९०-११५३), संत तोमस अक्विनस (१२२४-७४), दांते (१२६५-१३२१)। इस युग में लातीनी की महत्वपूर्ण भूमिका का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इसके साहित्यकार ने केवल इटली या रोम के थे, बल्कि आयलैंड, इंग्लैंड और पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों के भी थे।

पुनर्जागरण (रेनेसाँ ; १४५०-१५५०)

पुनर्जागरण यूरोप में ग्रीक और रोमन साहित्य, कला और दर्शन के प्रति नई सजगता और अभिरूचि का काल है। रैनेसाँ का उदय अधिकतर विद्वान्‌ १४५३ ई. के बाद से मानते हैं, जब तुर्को ने कुस्तुनतुनिया पर विजय प्राप्तकर ग्रीकरोमन सभ्यता को पश्चिम की ओर इटली में शनण लेने के लिये विवश किया। कुछ इसका प्रारंभ १४४० ई. में मुद्रण के आविष्कार से मानते हैं। इससे भी पूर्व १०वीं और १२वीं सदियों में नवस्फुरण के संकेत मिलते हैं। १५वीं सदी के पहले और उसके पूर्वार्ध में ही इस जागरण की पूर्वपीठिका इटली के अनेक नगरों में, जिनमें रोम और फ्लोरेंस प्रधान थे, तैयार हो चुकी थी। इसका नेतृत्व करनेवालों में दांते, पेत्रार्क : (१३०४-७४), बोक्काचो (१३१३-७५), कोजीमो मेदिची (१३८९-१४६४) इत्यादि प्रमुख थे। किंतु १५वीं सदी के मध्य से यह प्रक्रिया इतनी वेगवती और व्यापक हो गई कि यहां से मध्य युगीन यूरोप का आधुनिकता में संक्रमण माना जाता है। इस संक्रमण के साथ ग्रीक और रोमन साहित्य, संस्कृति और कला के उदार लौकिक एवं मानवतावादी दृष्टिकोण ने मध्ययुगीन यूरोप की संकुचित तथा रूढ़ धर्मिकता और परलोकपरायण्ता एवं उनके सहयोगी व्यक्ति-स्वातंत्रय-विरोधी सामंती अंकुशों को नि:सत्व कर दिया। पुनर्जागरण ने आदिपाप और हीनता के सिद्धांत के स्थान पर मानव काया की पवित्रता और व्यक्ति के विकास की अमित संभावनाओं में आस्था की प्रतिष्ठा की। यह प्रवृति इतनी प्रबल थी कि स्वयं चर्च को इसके साथ समझौता करना पड़ा। फ्रेंच विद्वान जसराँ के अनुसार लौकिकता और मानवतावाद की इस असंदिग्ध विजय का प्रतीक कांसे की बनी औरत की वह नंगी मूर्ति थी जो पुनर्जागरण के बाद स्वयं एक पोप की समाधि पर स्थापित की गई।

पुनर्जागरण ने मानवतावाद के साथ साथ प्राचीन ग्रीक और रोमन साहित्यिक परंपरा को भी पुनरुज्जीवित किया, जिसके फलस्वरूप इतालवी साहित्य को काव्य, ताटक, आख्यायिका, इतिहास आदि की वस्तु और रचना के आदर्श विधान प्राप्त हुए। प्राचीन ग्रीक और लातीनी साहित्यकारों की रचनाओं से प्रेरणा ग्रहण करने के अतिरिक्त १६वीं सदी के इतालवी साहित्यकारों ने अरस्तु और होरेस की पोएतिक्स और आर्स पोएतिका नामक रचनाओं को काव्य के लक्षण ग्रंथ के रूप में स्वीकृत किया। पुनर्जागरण ने ही फ्लोरेंस में लोरेंत्सों मेदिची के नेतृत्व में नवअफ़लातूनवाद को भी जन्म दिया, जिसका गहरा असर इटली और यूरोप के अन्य देशों की प्रेमसंबंधी कविताओं पर पड़ा।

इटली की सीमाओं को लाँघकर क्लासिकल नवजागृति १५वीं १६वीं सदी में ्फ्रांस में और १६वीं सदी में स्पेन, जर्मनी और इंग्लैंड में पहूंची। इस नवजाग्रति ने रोमन कैथोलिक चर्च के अंतर्गत यूरोप की एकसूत्रता भंगकर इन देशों की निजी प्रतिभा को उन्मुक्त किया। इसलिये इनमें से हर देश ने इस नई चेतना को अपने अपने साँचों में ढाला। धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, विज्ञान, शिक्षा, सभी पर इस जागृति की छाप पड़ी। इस आंदोलन के संदेश को इटली के अग्रणियों ने यूरोप के देशों में पहुंचाया और उसे ग्रहण करने के लिये यूरोप के देशों के अग्रणी इटली पहुँचे। इटली के लियोनार्दो दा विंसी और अलामन्नी ्फ्रांस और कास्तिग्लिओने स्पेन पहुंचे। पश्चिमी यूरोप से महान्‌ धार्मिक नेता लूथर (१४८३-१५४६) और मेधावी मानवतावादी इरैस्मस (१४४६-६७-१५३६) इटली पहुंचे। ्फ्रांस के प्लेइया (Pleiad) के कवियों, जर्मनी के धर्मसुधार आंदोलन (रिफ़र्मेशन), स्पेन की लिरिक काव्यधारा, इंग्लैंड के एलिज़ाबेथयुगीन साहित्य की मूल प्रेरणा यही नवजागृति थी।

इस नवजागृति की विशेषता यह थी कि उसने जहाँ एक ओर अपने प्राचीन क्लासिकल आदर्श उपस्थित किए, वहां दूसरी ओर व्यक्ति की चेतना को मुक्तकर उसे प्रयोग और सृजन की नई दिशाओं में जाने का साहस भी दिया।

१७वीं और १८वीं सदियों में इन्हीं आदर्शो के रूढ़ि बन जाने के बाद इस रचनात्मक स्फूर्ति का भी लाप हो गया। प्राचीन क्लासिकों के प्रवाह को रीति के कुंड में बांध कर एक नए वाद ने जन्म लिया, जिसे नियोक्लासिसिज्म कहा जाता है। अक्सर ‘क्लासिसिज्म’ और ‘नियो-क्लासिसिज्म’ पर्याय के रूप में प्रयुक्त होते हैं, किंतु पुराने क्लासिकों के आदर्श और वाद में बंध जाने के बाद क्लासिसिज्म या नियो-क्लासिसिज्म के आदर्शो के भेद को समझना आवश्यक है।

क्लासिसिज्म या नियो-क्लासिसिज्म (रीतिवाद)

यूरोप मेंनियो क्लासिसिज्म को प्रतिष्ठित करने में मुख्य भूमिका १७वीं सदी के फ्रेंच साहित्यकारों और आलोचकों की थी, जिन्होंने १६वीं सदी के इतालवी आलोचकों द्वारा अरस्तु, होरेस आदि प्राचीन ग्रीक और रोमन साहित्यचिंतकों के सिद्धांतों पर किए गए मतैक्यहीन विचारविमर्श को कठोर व्यवस्थित और प्राय: निर्जीव रीति का रूप दे दिया। ्फ्रेंच आलोचनाशास्त्री प्राचीन ग्रीक और रोमन चिंतकों के पास सीधे न पहुंचकर अपनी रुचि के इतालवी आलोचनाशास्त्रियों के माध्यम से पहुँचे, जिसके फलस्वरूप उन्होंने काफी स्वच्छंदता के साथ प्राचीन क्लासिको, विशेषत: अरस्तू के सिद्धांतों पर अपनी रीति-अरीति आरोपित कर दी।

आलोचना में इस रीतिवाद का प्रथम महत्वपूर्ण प्रचारक मैलर्ब (१५५५-१६२८) हुआ। १६३० से १६६० के बीच इस रीतिवाद का प्रसार और भी हुआ। यह कार्य शाप्लें (१५९४-१६७४), ब्वायलो (१६३६-१७११), रापैं, ले बोस्सू इत्यादि के द्वारा संपन्न हुआ और इसमें उन्हें लुई के दरबार के संरक्षण में संस्थापित ्फ्रेंच अकादमी, देकार्त के बुद्धिवाद और कैथोलिक चर्च से प्रेरणा और समर्थन प्राप्त हुआ।

नियो-क्लासिकल आलोचनाशास्त्र का ध्यान कविता, जिसमें महाकाव्य और दु:खांत तथा सुखांत रूपक भी शामिल थे, की ओर हो गया। उसके कुछ साधारण सिद्धांत थे, जैसे, कविता का लक्ष्य मनोरंजन से अधिक नैतिक शिक्षा है; काव्यशास्त्र या रीति का ज्ञान प्रतिभा से अधिक आवश्यक है; रीति का अर्थ कलासिकों का अनुकरण है: काव्य की वस्तु में ‘सत्य’ सर्वोपरि है और सत्य का अर्थ है मानव द्वारा अनुभूत सार्वभौम सत्य; और कल्पना के उद्वेग के स्थान पर बौद्धिक संयम और संतुलन होना चाहिए; अभिव्यक्ति में स्पष्टता और लाघव होना चाहिए; रचनाविधान में व्यवस्था, अनुपान और संतुलन का सम्यक्‌ निर्वाह होना चाहिए। संक्षेप में, इन साधारण नियमों की तीन धुरियाँ थी, बुद्धि, नीर-क्षीर-विवेक और कलात्मक अभिरूचि।

जहाँ तक काव्यरूपों का प्रश्न था, नियो-क्लासिकल आलोचना शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक रूप के विषय, लक्ष्य, प्रभाव और शैलियाँ प्राचीनों ने निश्चित कर दी थी। इसी आधार पर उन्होंने महाकाव्य और सुखांत नाटकों के रचनाविधान को रीतिबद्ध किया। उन्होंने दु:खांत में प्रहसन और प्रहसन में दु:खांत के तत्वों के सम्मिश्रण की निंदा की और काल, देश एवं घटना के संधित्रय को रूपक के रचनाविधान का केंद्रीय सिद्धांत माना।

नियो-क्लासिकल सिद्धांतों का गहरा असर तत्कालीन यूरोपीय साहित्य पर पड़ा क्योंकि १४वें लुई का ्फ्रांस यूरोप का सांस्कृतिक केंद्र था। १८वीं सदी का अंग्रेजी साहित्य नियो-क्लासिकल आदर्शो का प्रतिबिंब है।

स्पष्ट है कि प्राचीन ग्रीक और लातीनी क्लासिकों और रेनेसाँ के उनके अनुयायियों को नियो-क्लासिकल साहित्यकारों से एक नहीं किया जा सकता। एक ओर अन्वेषण या परंपरानुमोदित अन्वेषण है, दूसरी ओर इस अन्वेषण की उपलब्धि को रूढ़ि में बदल देने का प्रयत्न। टी. एस. ईलियट ने वर्जिल पर लिखे गए अपने लेख ‘ह्वाटइज़ क्लासिक’ में क्लासिसिज्म़ की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया है वे संक्षिप्त रूप में इस प्रकार हैं : चिंतन और लोकव्यवहार की प्रौढ़ता की अभिव्यक्ति, इतिहास, परंपरा और सामाजिक नियति का बोध, भाषा या शैली में साधारणीकरण, दृष्टिकोण की उदार और व्यापक ग्रहणशीलता, सार्वभौमिकता। प्राचीन क्लासिकों ने अपना कार्य साहित्य, सामाजिक जीवन और चिंतन की महान्‌ परंपराओं के संदर्भ से संपन्न किया। नियो-क्लासिकल साहित्यकारों में भी यह बोध था, किंतु उनके सामने ये महान्‌ संदर्भ नहीं थे। नियो-क्लासिसिज्म ऐसे युग की उपज है जब समाज किसी विकास के दौर से गुजर कर जड़ता की स्थिति में आ जाता है, जब वह बंद गली के छोर पर पहुँचकर रुक जाता हैं। ऐसे समय साहित्य में वस्तु का स्थान गौण और रूप का स्थान प्रधान हो जाता है। यह रूपाशक्ति साहित्य में रूढ़ि या रीतिवाद की अत्यंत उर्वर भूमि है। यह आश्यर्च की बात नहीं कि पश्चिमी यूरोप के सांस्कृतिक संकट के इस युग में अंग्रेजी और अन्य साहित्य में निया-क्लासिसिज्म का पुनरूद्धार हुआ। आधुनिक अंग्रेजी कविता के प्रसिद्ध प्रवर्तक और सिद्धांतकार एजरा पाउंड टी. ई. हुल्श और टी. एस. ईलियट ने रेनेसाँ की मानवतावादी परंपरा के आधार पर विकसित रोमंटिक साहित्यधारा की तुलना में १८वीं सदी की नियो-क्लासिकल अंग्रेजी कविता को अधिक महत्त्व दिया है। हुल्श के अनुसार ‘मनुष्य असाधारण रूप से स्थित और सीमित जीवधारी है, जिसकी प्रकृति सर्वथा अपरिवर्तनीय है। केवल परंपरा और संगठन के द्वारा ही उसके हाथों किसी अच्छी चीज का निर्माण हो सकता है’। ‘मनुष्य अनंत संभावनाओं का स्रोत है’। -इस रोमंटिक आस्था को मानसिक व्याधि और इसलिये त्याज्य बतलाते हुए उसका कहना है : ‘मेरी भविष्यवाणी है कि शुष्क, कठोर, क्लासिकल कविता का युग आ रहा है’। जिसमें कल्पना से अधिक महत्त्व चित्रकौशल (फ़ैंसी) का होगा। इस प्रकार रोमांटिसिज्म और क्लासिसिज्म का संघर्ष केवल साहित्यिक संघर्ष ही नहीं बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति प्रगति और रूढ़ि के दृष्टिकोणें का संघर्ष भी है।

भारतीय क्लासिक साहित्य

‘क्लासिक’ की रूढ़ परिभाषा के अंतर्गत यूनानी और रोमन साहित्य और उनके परिप्रेक्ष्य में यूरोपीय साहित्य की ही चर्चा ऊपर की गई है। उपर्युक्त साहित्य के संदर्भ में ह्यूम ने यह प्रश्न उठाया कि होमर आज से हजार-दो हजार साल पूर्व रोम और एथेंस पढ़े जाते थे और आज भी वे लंदन और पेरिस में पढ़े जाते हैं। अनेक विभिन्नताओं और परिवर्तनों के होते हुए भी आज तक उनका महत्त्व बना हुआ है इसका क्या कारण है? इस प्रश्न के उत्तर में यह अनुभव किया गया कि जो साहित्य काल की कसौटी पर खरा उतरे वही ‘क्लासिक' है। अतएव अब यह समझा जाने लगा है कि क्लासिक साहित्य वह है जिसमें जीवन के उन तत्वों का समावेश निश्चित रूप से हो जिनकी उपयोगिता और सार्थकता प्रत्येक युग और देश के लिये अपरिहार्य है।

भारतीय साहित्य को ‘क्लासिक’ की इसी परिभाषा की दृष्टि से देखा जा सकता है। इस दृष्टि से देखने पर रामायण और महाभारत तो क्लासिक की कोटि में आते ही हैं। संस्कृत के अनेक काव्यों और महाकाव्यों की गणना उसके अंतर्गत की जा सकती है। कालिदास का समग्र साहित्य अपने आप में क्लासिक है किंतु ‘रघुवंश’ और ‘अभिज्ञान शाकुतंल’ सर्वोपरि हैं।

हिंदी का साहित्यिक इतिहास अभी कुछ ही सौ बरसों का है। इस बीच जिस प्रकार का साहित्य रचा गया उसने अधिकांशत: संस्कृत के साहित्यशास्त्र के उन्हीं केंद्र बिंदुओं को अपनाया जिन्हें रस, ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति और अलंकार कहते हैं। इस काल के लेखकों के प्रेरणास्रोत थे संस्कृत के ह्रासोन्मुख साहित्यिक आचार्य। अत: उस काल में ऐसा बहुत नहीं है जिसे क्लासिक कहा जाय। अकेले तुलसीदास के रामचरितमानस को इस कोटि में रखा जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यों सूर और जायसी की रचनाओं का क्लासिक माना है। निओ-क्लासिक के रूप में प्रेमचंद के गोदान और जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ की गणना की जा सकती है।