कातंत्र व्याकरण
कातंत्र व्याकरण आचार्य सर्ववर्मन के द्वारा रचित यह संस्कृत का व्याकरण है। सर्ववर्मन, सातवाहन राजा के मन्त्री थे।
कातंत्र व्याकरण को पाणिनीय व्याकरण के समान वेदाङ्ग नहीं माना गया है। इस व्याकरण ग्रन्थ में वेदविचार का कोई विषय भी प्राप्त नहीं होता है। अतः यह लौकिक संस्कृत के साधारण ज्ञान मात्र के लिए ही उपयोगी है।
यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है।
- (१) सन्धिप्रकरण - इस प्रकरण में सन्धि के साथ-साथ संज्ञापाद एवं निपातपाद भी समाविष्ट है। इसमें कुल 6 पाद हैं। सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में मात्र पाँच ही पाद है, उसमें निपातपाद नहीं है।
- (२) नामकरणप्रकरण - इसमें षड्लिङ्ग की तरह नाम - लिङ्ग - प्रातिपदिक के रुपों का ज्ञान कराया गया है। साथ में कारक, समास, तद्धित इत्यादि शब्दों की सिद्धि का विवेचन भी किया गया है। इसी प्रकरण में स्तरीपरत्यय का भी विवेचन किया गया है। इसमें कुल सात पाद है।
- (३) आख्यातप्रकरण - इसमें धातुरुपों का विवेचन किया गया है। इसमें कुल आठ पाद है।
- (४) कृत्प्रकरण - इसमें कृत् प्रत्ययों का विवेचन किया गया है। इनमें कुल 6 पाद हैं।
अथ! शर्व वर्मा का *कातंत्र- व्याकरण* (सिद्धोवर्णो पाटी)
1) ऊँ नमः सिद्धम्। सिद्धो वर्ण समान्माय। ।1।
समाम्नाय -निघंटु है! लोक-प्रचलित रूप - (सिद्धो वर्णो समैमनाया।)
2) तत्र चतुर्दषायौ स्वरा। । 2। -
( अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ लृ लृ ृ ऋ )
लोक-प्रचलित रूप - ( जय जय चतुरकदसा । )
3) दश समाना। । 3 ।
( अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ, ये दस समान हैं)
लोक-प्रचलित रूप - ( दहु सवेरा। दसे समाना।)
4) तेषु दवौ द्वावन्यौन्यस्य सवर्णो 4।
( दो दो एक दूसरे के सवर्ण हैं, जैसे अ, आ का सवर्ण, इ, ई का)
लोक-प्रचलित रूप - ( तकाउ दुधवा वरणा वरणो, वरणा नसीस वरणा)
5) पूर्वो ह्रस्वः परो दीर्घाः । 5।
( पूर्व वर्ण ह्रस्व तथा बाद का वर्ण दीर्घ है।)
लोक-प्रचलित रूप -
( पुरवो रसवा, पारो दुरषा ।)
6) स्वरो वर्ण वर्गो नामी। । 6।
लोक-प्रचलित रूप - (सारो वरणा, )
7) एकारादिनाम् सांध्याक्षराणि।
।7! ( अ + इ = ए )
लोक-प्रचलित रूप- ( इकरादेणी सिंध कराणी।)
8) कादिनि व्यंजनानि। ।8।
( क आदि व्यंजन हैं।)
लोक-प्रचलित रूप- (कादीणी विणजैनामी)
9 ) ते वर्गो पंचः पंचः। ।9। ( पाँच-पाँच वर्णों के 5 वर्ग हैं )
लोक-प्रचलित रूप-
(ते वर्गो पंचो पंचिया)
10 ) वर्णानाम् प्रथम द्वितीय,श ष स श्च अघोषा।10।
( वर्णों में प्रथम और द्वितीय तथा शषस अघोष हैं)
11) घोषवंतो अन्य। 11 ।
( शेष अन्य *गघ,जझ,डढ,दध* घोष वर्ण हैं।
लोक-प्रचलित रूप -(10,11,12 गोषागोष पथोरणी।)
12 ) अनुनासिका ङ ञ ण न म । 12 ।
(ङ ञ ण न म इत्यादि अनुनासिक हैं।) लोक-प्रचलित रूप -
( निनाणै रा नषाँ।)
13 ) अन्तस्थ य र ल व । 13 ।
( य र ल व अंतस्थ वर्ण हैं।)
लोक-प्रचलित रूप - (अंतसथ यरलव।) नोट- यही काफी मिलता-जुलता है!
14)| उष्माणं श ष स ह ।
( श ष स ह उष्म वर्ण हैं।)
लोक-प्रचलित रूप-
( संकोसह हंसिया उस्मल )
15 ) अः इति विसर्गनियम्।
(अः विसर्ग है।) ( नोट - इसके बाद के लोक-प्रचलित अपभ्रंश रूप उपलब्ध ही नहीं)
16) क इति जिव्हामूलीय।
( क वर्ग जीभ के मूल यानि कंठ से बोला जाता है।)
17) ष इति मूर्धन्यम्। ( ष मूर्धा से बोला जाता है, मूर्धन्य है।)
18 ) अं इति अनुस्वार। ( अं अनुस्वार है।)
19 ) पूर्वाषयोरथोपलब्धो पदमश। ( यह पद प्रयास के बावजूद अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ )
20 ) व्यंजन स्वरं पद वर्णन्यूत।
21) अनतिक्रमयत विश्लेषयेत्।
22 ) लोको यथा ग्रहणसिद्धि।
इति सादर!