कविराज श्यामलदास

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महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदास (5 जुलाई 1836 -- ३ जून १८९४) भारत के इतिहासकार थे। आप राजस्थान की संस्कृति और इतिहास के आरम्भिक लेखकों में गिने जाते हैं[१]। वे महाराणा सज्जन सिंह (1874-84) के विश्वासपात्र थे। आपके शिष्य, गौरीशंकर हीराचंद ओझा भी सुप्रसिद्ध इतिहासकार तथा लेखक थे।

1879 ई में महाराणा सज्जनसिंह ने इनको 'कविराज' की उपाधि से विभूषित किया गया। कविराज को रॉयल एशियाटिक सोसायटी लंदन का फेलो चुना गया। ब्रिटिश सरकार ने कविराज को 'महामहोपाध्याय' की उपाधि प्रदान की तथा 'कैसर-ए-हिन्द' के सम्मान से सम्मानित किया[२]

जीवन परिचय

श्यामलदास का जन्म आषाढ़ कृष्ण ७ विक्रम संवत १८९३ को राजस्थान के ढोकलिया ग्राम में हुआ जो वर्तमान में भीलवाड़ा जिले के शाहपुरा तहसील में पड़ता है। इनके तीन भाई और दो बहिनें थीं।

इनका अध्ययन घर पर ही हुआ। नौ वर्ष की आयु से ही श्यामलदास ने सारस्वत व अमरकोष का अध्ययन करते हुए काव्य, तर्कशास्त्र, गणित, ज्योतिष, विज्ञान, खगोल शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र एवं महाकाव्यों का अध्ययन किया। परम्परा से प्राप्त प्रतिभा तो इनमें भरपूर थी। फारसी और संस्कृत में उनका विशेष अध्ययन हुआ। इनका प्रथम विवाह साकरड़ा ग्राम के भादा कलू जी की बेटी के साथ हुआ। इनसे एक पुत्री का जन्म हुआ। दूसरा विवाह मेवाड़ के भड़क्या ग्राम के गाड़ण ईश्वरदास जी की बेटी के साथ हुआ। इनसे सन्तानें तो कई हुई पर उसमें से दो पुत्रियां ही जीवित रहीं। (क्रांतिकारी केसरी सिंह बारहट - पृष्ठ 235)।

विक्रम संवत 1927 के वैशाख में उनके पिता का देहावसान हो गया। उस समय श्यामलदास की आयु ३४ वर्ष की थी। पिता के देहावसान के पश्चात् श्यामलदास गांव से उदयपुर आ गये और पिताजी के दायित्व का निर्वहन करने लगे। इसी वर्ष के आषाढ़ में महाराणा शम्भुसिंह जी मातमपूर्सी के लिए श्यामलदास जी उनकी हवेली पर पधारे। तब से महाराणा की सेवा में रहने लगे। राणाजी का स्वर्गवास वि.स. 1931 में हो गया। श्यामलदास इससे बड़े निराश हुए। शम्भुसिंह की मृत्यु के बाद सज्जन सिंह गद्दी पर बैठे।

सज्जनसिंह जी अल्पवयस्क होते हुए भी विलक्षण बुद्धि वाले थे, अतः वे श्यामलदास जी के व्यक्तित्व पर मुग्ध थे। गद्दी पर बैठते ही राणा ने श्यामलदास को उसी प्रेम से अपनाया। महाराणा सज्जनसिंह का राजत्व काल बहुत लम्बा नहीं रहा पर उनके उस काल को मेवाड़ का यशस्वी राजत्व काल कहा जा सकता है जिसका श्रेय तत्कालीन प्रधान श्री श्यामलदास को जाता है।

१८८१ के भील विद्रोह की समस्या के समाधान का कार्य कविराज श्यामलदास ने ही सम्पन्न किया[३]

विक्रम संवत १९४९ आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन इनको पक्षाघात हुआ और लगभग डेढ़-दो वर्ष तक यही दशा रही। रोग ने उनके शरीर को शिथिल कर दिया था। संवत १९५१ ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या (०३ जून १८९४ ई) को आपका निधन हो गया।

ग्रन्थकारिता

कविराज श्यामलदास ने अपने पिता कमजी दधिवाड़िया सहित मेवाड़ के डौडिया राजपूतों के विषय में दीपंग कुल प्रकाश नामक विस्तृत कविता की रचना की थी[४]। उदयपुर राज्य के शासक महाराणा सज्जन सिंह ने मेवाड़ के प्रामाणिक इतिहास लेखन का उत्तरदायित्व कविराज श्यामलदास को सौंपा था[५]वीर विनोद नामक यह पुस्तक मेवाड़ में लिखित प्रथम विस्तृत इतिहास है[६]। महाराणा सज्जन सिंह के उत्तराधिकारी महाराणा फ़तेह सिंह इस इतिहास के प्रकाशन के प्रति उदासीन थे। इस कारण यह पुस्तक १९३० ई. तक प्रकाशित नहीं हुई[७]

वीरविनोद के अलावा श्यामलदास ने दो और पुस्तकों की रचना की थी - पृथ्वीराज रासो की नवीनता तथा अकबर के जन्मदिन में सन्देह। ये दोनों पुस्तिकाएँ बंगाल की एशियाटिक सोसायटी तथा बम्बई की प्रसिद्ध संस्थाओं से समादृत हुईं थीं। 'पृथ्वीराज रासो की नवीनता' पर भी बहुत बवाल मचा था।

वीरविनोद

"वीर विनोद – मेवाड़ का इतिहास", राजस्थान के इतिहास से सम्बन्धित एक विशालकाय काव्य ग्रन्थ है। यह पाँच भागों में है। यह ग्रन्थ सन् 1886 ई. में रचकर तैयार हुआ था।

कर्नल जेम्‍स टॉड ने जनश्रुतियों के आधार पर मेवाड़ का जो इतिहास विश्‍व के सामने रखा तो दुनियाभर के विद्वानों का ध्‍यान इस प्रदेश के प्रामाणिक इतिहास को जानने के लिए लग गया। इस पर तत्कालीन रेजीडेंट ने महाराणा शंभुसिंह को सुझाव दिया कि मेवाड़ का इतिहास लिखवाया जाए और इस कार्य के लिए ढोकलिया के श्यामलदास उपयुक्त व्यक्ति हैं। लिखने से पहले ऐतिहासिक तथ्यों के संकलन-संग्रहण के लिए तत्कालीन मेवाड़ रियासत में महाराणा सज्जनसिंह ने इतिहास विभाग बनाया। श्यामलदास को इस विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। विभाग में फारसी, उर्दू, संस्कृत, इतिहास और अंग्रेजी के जानकार रखे गए। सन १८७५ ई में उदयपुर में 'वाणीविलास' नामक पुस्तकालय स्थापित किया गया। तथ्य संकलन में यह हिदायत थी कि महज लोकगाथाएं या किवदंतियां आधार नहीं बने वरन, वैज्ञानिकता और तथ्य आधारित शोध हाे। यही कारण था कि 20 साल में जब तथ्य संग्रहित हुए तो लेखन में चार-पांच साल लग गए। 1886 में यह ग्रंथ अस्तित्व में आया। तब फतहसिंह मेवाड़ के महाराणा बन चुके थे। बताते हैं कुछ तथ्य ऐसे भी हैं जो तत्कालीन राजाओें ठिकानेदारों को अप्रिय थे, इस कारण महाराणा ने ग्रंथ के वितरण पर रोक लगा दी थी।

उर्दू-मिश्रित हिन्दी में रचित इस ग्रन्थ ने हिन्दी के शुरू के भारतीय-इतिहास-साहित्य में बहुत उच्च स्थान प्राप्त कर लिया था। यह एक निराली स्पष्टोक्तिपूर्ण शैली में रचित ग्रन्थ है। पाँच जिल्दों और 2716 पृष्ठों में मुद्रित यह ऐतिहासिक वृत्तान्त मेवाड़ को राजपूत वैभव, शौर्य एवं पराक्रम के केन्द्र के रूप में प्रदर्शित करता है। इसमें प्रमुख घटनाओं से उत्पन्न हलचलों का, उनकी चुनौतियों का तथा विभिन्न महाराणाओं के नेतृत्व में मेवाड़वासियों ने उनका जिस साहस और वीरता के साथ सामना किया, उसका सजीव वर्णन किया गया है। इसके प्रत्येक पृष्ठ पर अस्त्रों की घनघनाहट एवं राजपूत शौर्य के अभूतपूर्व कारनामे अंकित हैं।

इस ग्रंथ में मेवाड़ के विस्तृत इतिहास सहित अन्य संबंधित रियासतों का भी वर्णन है। इसमें राणा साँगा और बाबर के मध्य हुए खानवा के युद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसमें बतलाया गया है कि बाबर 20,0000 सैनिकों को लेकर राणा साँगा से युद्ध करने आया था। उसने साँगा की सेना के लोदी सेनापति को प्रलोभन दिया, जिससे वह साँगा को धोखा देकर सेना सहित बाबर से जा मिला था।

ग्रंथकार ने राजस्थानी इतिहास का वर्णन सम्पूर्ण विश्व के परिप्रेक्ष्य में किया है। इसमें यूरोप, अफ्रीका, उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया तथा एशिया महाद्वीपों का सामान्य सर्वेक्षण किया गया है; भारत पर सिकन्दर के आक्रमण एवं मुसलमानों के आगमन को चित्रित किया गया है; भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर घटनेवाली उन घटनाओं का गम्भीर विवेचन-विश्लेषण किया गया है जिन्होंने मेवाड़ के जन-जीवन को प्रभावित किया। इसमें नेपाल के इतिहास की भी सूक्ष्म छानबीन की गई है। राजस्थान के राजनीतिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक पहलुओं पर प्रकाश डालने वाली प्रचुर सामग्री बहुमूल्य अभिलेखों, राजकीय दस्तावेजों, अनेक फरमानों तथा आंकड़ों के रूप में इस ग्रंथ में संगृहीत है। श्यामलदास के अंतिम वर्ष दुखदायी रहे, अतः वीरविनोद को उन्होने 1884 ई में महाराणा सज्जनसिंह की मृत्यु तक ही समाप्त कर दिया।

वीरविनोद के प्रथम जिल्द में यूरोप, एशिया, अमेरिका, एशिया के कुछ देशों तथा भारत का भौगोलिक वर्णन है। इसके पश्चात प्रारम्भिक काल से लार्ड लैंसडाउन के शासनकाल तक का संक्षिप्त इतिहास है। दूसरी जिल्द में राणा रतनसिंह से लेकर अमरसिंह प्रथम तक मेवाड़ का इतिहास वर्णित हैं। तृतीय जिल्द में महाराणा कर्णसिंह से लेकर अमरसिंह द्वितीय के शासनकाल तक मेवाड़ का इतिहास है। चतुर्थ जिल्द में अमरसिंह द्वितीय से लेकर जगतसिंह द्वितीय तक मेवाड़ का इतिहास वर्णित है। पांचवीं जिल्द का मुख्य विषय जवानसिंह से सज्जनसिंह के शासनकाल तक मेवाड़ का इतिहास है।

वीरविनोद के लिखने में श्यामलदास ने फारसी इतिहासकारों, ख्यातों के लेखकों और कर्नल टॉड की घटनाओं का वर्णन लिखने की पद्धति का अनुसरण किया। श्यामलदास ने अपने ग्रंथ में अपने संरक्षकों के शासनकाल का इतिहास लिखने में पक्षपात से काम नहीं किया। यद्यपि उन्होंने महाराणा शम्भूसिंह और महाराणा सज्जनसिंह की अनेक कार्यों की प्रशंसा की, किन्तु उनकी विलासिता की निन्दा भी की है।

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

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  1. दशरथ शर्मा (१९७०) लेक्चर्स ऑन राजपूत हिस्टरी एंड कल्चर, प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली पृष्ठ १ ISBN 0-8426-0262-3
  2. श्रीवास्तव, विजय शंकर (१९८१) कल्चरल कंटूर्स ऑफ़ इंडिया पृष्ठ ३७
  3. पति, बिस्वमोई संपादक (२००८) इश्यूज इन मॉडर्न इंडियन हिस्ट्री पृष्ठ ८८, प्रकाशक: पॉपुलर प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, मुंबई ISBN 978-81-7154-658-9
  4. लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची
  5. श्रीवास्तव, विजय शंकर (१९८१) कल्चरल कोंटूर्स ऑफ़ इंडिया पृष्ठ ३७, प्रकाशक: अभिनव प्रकाशन दिल्ली ISBN 978-0-391-02358-1
  6. गुप्ता आर. के., बख्शी एस. आर. (२००८) स्टडीज इन इंडियन हिस्ट्री: हेरिटेज ऑफ़ राजपूत पृष्ठ २४७, प्रकाशक: सरूप एंड संस, नई दिल्ली ISBN 978-81-7625-841-8
  7. गुप्ता आर. के., बख्शी एस. आर. पृष्ठ २५५