कपूर कचरी
कपूरकचरी ज़िंजीबरेसी कुल (Zingiberaceae) की एक क्षुप जाति है जिसका वानस्पतिक नाम हेडीचियम स्पाइकेटम (Fedychium Spicatum) है। यह उपोष्णदेशीय हिमालय, नेपाल तथा कुमाऊँ में पाँच सात हजार फुट की ऊँचाई तक स्वत: उत्पन्न होता है। इसके पत्र साधारणत: लगभग एक फुट लंबे, आयताकार अथवा आयताकार-भालाकार, (oblong lancedate) चिकने और कांड पर दो पंक्तियों में पाए जाते हैं। कांड के शीर्ष पर कभी-कभी एक फुट तक लंबी सघन पुष्पमंजरी बनती है, जिसमें पुष्प अवृंत और श्वेत तथा निपत्र (bracts) हरित वर्ण के होते हैं। इसके नीचे भूमिशायी, लंबा और गाँठदार प्रकंद (rhyzome) होता है जिसके गोल, चपटे कटे हुए और शुष्क टुकड़े बाजार में मिलते हैं। कचूर की तरह इसमें ग्रंथामय मूल (nodulose roots) नहीं होते और गंध अधिक तीव्र होती है।
ऐसा मालूम होता है कि प्राचीन आयुर्वेदाचार्यो ने जिस शटी या शठी नामक औषद्रव्य का संहिताओं में प्रचुर उपयोग बतलाया है, वह यही हिमोद्भवा कपूरकचरी है। परंतु इसके अलभ्य होने के कारण इसी कुल के कई अन्य द्रव्य, जो मैदानों में उगते हैं और जो गुण में शठी तुल्य हो सकते हैं, संभवत: इसके स्थान पर प्रतिनिधि रूप में ग्रहण कर लिए गए हैं। इनमें कचूर, चंद्रमूल (कैंपफ़ेरिया गालैंजा, Kaempferia galanga) तथा वनहरिद्रा (करक्यूमा ऐरोमैटिका, Curcuma arcmatica) मुख्य हैं। इसीलिए इन सभी द्रव्यों के स्थानीय नामों में प्राय: कचूर, शठी, तथा कपूरकचरी आदि नाम मिलते हैं, जो भ्रम पैदा करते हैं। निघंटुओं के शठी, कर्चुर, गंधपलाश, मुरा तथा एकांगी आदि नाम इन्हीं द्रव्यों के प्रतीत होते हैं।
आयुर्वेद में शटी (या 'शठी') को कटु, तिक्त, उष्णवीर्य एवं मुख के वैरस्य, मल एवं दुर्गध को नष्ट करनेवाली और वमन, कास-श्वास, घ्राण, शूल, हिक्का और ज्वर में उपयोगी माना गया है।