ऊष्मा का इतिहास
विज्ञान के इतिहास में उष्मा के इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान है। ऊष्मा, जीवन के साथ गहराई से जुड़ी हुई है और उसे पृथक करके जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव द्वारा 'आग पैदा करना' ऊष्मा के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। आधुनिक वैज्ञानिक तो ऊष्मा के सूक्ष्म प्रकृति का अध्ययन करते हैं।
ऊष्मा से सम्बन्धित सिद्धान्तों के इतिहास में आग सम्बन्धी मिथिकल सिद्धान्तों से लेकर, ऊष्मा, टेरापिङुइस (Terra pinguis), फ्लोगिस्तन (phlogiston), अग्नि वायु (fire air), उषिक सिद्धान्त (caloric), ऊष्मा का सिद्धान्त, ऊष्मा का यांत्रिक तुल्यांक (mechanical equivalent of heat), , थर्मोस-गतिकी (Thermos-dynamics), ऊष्मागतिकी आदि प्रमुख पड़ाव हैं।
ऊष्मा के सामान्य प्रभावों का स्पष्टीकरण करने के हेतु अग्नि-परमाणुओं का अविष्कार किया गया, जो पदार्थ के रध्रों के बीच प्रचण्ड गति से दौड़ते हुए तथा उसके अणुओं को तितर-बितर करते हुए माने गए थे। विचार था कि इसके फलस्वरूप ठोस पदार्थ द्रव में तथा द्रव वाष्प में परिवर्तित होते हैं।
विज्ञान के आरंभिक युग से लेकर वर्ममान शताब्दी के प्रारम्भ तक उष्मा की प्रकृति के संबंध में दो प्रतिद्वंद्वी परिकल्पानएँ साधारणतया चली आई हैं। एक तो है उषिक सिद्धान्त (कैलोरिक थ्योरी) जिसके अनुसार उष्मा को एक अति सूक्ष्म लचीला द्रव माना गया था जो पदार्थो के रध्रों में प्रवेश करके उनके अणुओं के बीच के स्थान को भर लेता है। दूसरा है प्राचीन यूनानियों द्वारा चलाया गया सिद्धान्त जिसमें उष्मा के आधुनिक सिद्धांत का अंकुर पाया जाता है। इसके अनुसार उष्मा पदार्थ के कणों के द्रुत कम्पन के कारण होती हैं; अत: इस मत के अनुसार उष्मा का कारण गति है। इस सिद्धान्त के पोषक बहुत दिनों तक अल्पमत में रहे।
प्रेक्षण पर आधारित सिद्धान्त की रचना में प्रथम प्रयत्न लार्ड बेकन ने किया तथा वे इस परिणाम पर पहुँचे कि उष्मा गति हैं। इंग्लैंड में उनके अनुयायियों के मत से यह 'गति' पदार्थ के अणुओं की थी। परन्तु यूरोप के अधिकतर वैज्ञानिकों के मतानुसार यह एक अतिसूक्ष्म तथा लचीले द्रव के कणों की मानी गई जो पदार्थ के रध्रों में अन्तःप्रविष्ट होकर उसके कणों के बीच स्थित माना गया था।
उषिक सिद्धान्त
उषिक सिद्धान्त के अनुसार उष्मा का कारण एक अति लचीले स्वप्रतिकर्षक तथा सर्वव्यापी द्रव की क्रिया था। इस द्रव के गुण ये माने गए। यह अति लचीला था तथा इसके कण परस्पर प्रतिकर्षण करते थे। इस द्रव को 'कैलरिक' नाम दिया गया। प्रतिकर्षण गुण के कारण जलने पर यह द्रव उष्मा तथा प्रकाश उत्पन्न करता हुआ माना गया। 'कैलरिक' के कण परस्पर तो प्रतिकर्षक थे परंतु साधारण पदार्थ के कणों से आकर्षित होते माने गए। विभिन्न पदार्थो के कण उसे विभिन्न बल से आकर्षित करते थे। यह द्रव अनाश्य तथाश् अजन्मा माना गया।
उषिक सिद्धांत के अनुसार पदार्थ 'कैलरिक' की वृद्धि से उष्ण होता था तथा उसके ह्रास से शीतल। पदार्थ पर उष्मा के भिन्न भिन्न प्रभावों को कैलरिक सिद्धांत के अनुसार स्पष्टीकरण के प्रयत्न होते रहे। कुछ का तो स्पष्टीकरण सरलता से हो गया परंतु कुछ के लिए अन्य अनेक कल्पानएँ करनी पड़ीं। घर्षण द्वारा उष्माजनन की घटना मानव को आदिकाल से ज्ञात है। कैलरिक सिद्धान्त के अनुसार इसके स्पष्टीकरण के प्रयत्न किए गए, परन्तु वे संतोषप्रद न हो सके।
उष्मागतिकी
घर्षण द्वारा उष्मा के उद्भव में एक विशेषता यह है कि पदार्थों का जितना अधिक घर्षण किया जाता है उतनी अधिक मात्रा में उष्मा निकलती है, अतः इस रीति से अनन्त मात्रा में उष्मा मिल सकती है। इसका स्पष्टीकरण कैलरिक मत से नहीं हो सकता जिसके अनुसार प्रत्येक पदार्थ में सीमित मात्रा में उष्मा-द्रव रहता है। वस्तुत: यह कार्य तथा उससे उत्पन्न उष्मा के विषय में जूल ने महत्वपूर्ण प्रयोग किए तथा वह यह सिद्ध करने में सफल हुआ कि कार्य तथा उष्मा में तुल्यता है। जब कार्य किया जाता है तब उष्मा की उत्पत्ति होती है। यदि कार्य तथा उष्मा का मान क्रमानुसार W तथा H है तो W=JH, यहाँ J स्थिरांक है जिसे उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक कहते हैं। अत: J कार्य की वह मात्रा है जिससे एक कैलरी उष्मा उत्पन्न हो। इसका मान ४.१८ जूल प्रति कैलरी है।
काउन्ट रूमफोर्ड ने इस विषय में यह सुझाव दिया था कि कार्य से उष्माजनन का कारण गति है। अब प्रश्न उठता है, 'किसकी गति' ?
गतिज सिद्धान्त
पदार्थ की रचना अणुओं तथा परमाणुओं से हुई है। पदार्थ के तीन रूप होते हैं : ठोस, द्रव तथा गैस। यदि कोई ठोस पदार्थ उष्ण किया जाए तो उसके ताप में वृद्धि होती है। एक निश्चित ताप पर पहुँचकर यह गलने लगता है तथा द्रव रूप में परिवर्तित हो जाता है। और अधिक उष्ण करने से द्रव की तापवृद्धि होती है तथा एक दूसरे निश्चित ताप पर इसका वाष्पीकरण आरम्भ हो जाता है। जब सम्पूर्ण द्रव वाष्प में परिवर्तित हो जाता है तब इसे 'गैस' कहते हैं।
गतिज सिद्धान्त के अनुसार पदार्थ के अणु शाश्वत गति की अवस्था में रहते हैं। अणु की गति पदार्थ के ताप पर निर्भर रहती है। पदार्थ जितना अधिक उष्ण होता है उतनी ही अधिक प्रचण्ड गति उसके अणुओं में होती है। ठोस पदार्थ में अणु एक मध्यक स्थिति के चारों ओर प्रदोलन करता है। तापवृद्धि से अणुओं के प्रदोलन में वृद्धि होती है तथा अन्त में प्रदोलन इतना प्रचण्ड हो जाता है कि अणु अपने स्थान से पृथक-पृथक होकर इधर उधर अन्य अणुओं के स्थानों पर चला जाता है तथा अपनी नवीन स्थिति में प्रचंडता से प्रदोलन करने लगता है। इस अवस्था में अणुओं की परस्पर आकर्षण शक्ति, जो उनको अपने स्थानों पर रखती है, इतनी मंद हो जाती है कि तनिक-सी ठेस लगने से पदार्थ का रूप परिवर्तित हो जाता है। इस अवस्था को पदार्थ की तरल अवस्था कहते हैं। अतएव तरल अवस्था में अणुओं में दोलन के साथ-साथ रैखिक गति भी होती है। ठोस अवस्था के अणुओं में दोलन क्रिया को प्रचंड करने में तथा उनमें रैखिक गति उत्पन्न करने में उष्मा की आवश्यकता होगी। यह उष्मा गलन की गुप्त उष्मा के तुल्य होती है।
अब यदि हम द्रव पदार्थ का क्रमशः तापन करें तो आणविक ऊर्जा में वृद्धि होगी तथा द्रवपृष्ठ के निकट आते हुए किसी अणु की गति इतनी तीव्र हो सकती है कि वह आसपास के अन्य अणुओं के आकर्षण का निराकरण करके द्रव को छोड़कर उसके ऊपर के स्थान में चला जाए। इस प्रकार प्रक्षिप्त अणुओं का एक अन्ततः जब सम्पूर्ण अणु द्रव को छोड़ देते हैं तो वह गैस में परिवर्तित हो जाता है।
गैस अवस्था में अणु सरल रेखाओं में चलते हैं तथा परस्पर टकराते पर उनकी गति तथा दिशा में परिवर्तन होता है। दो अनुगामी टक्करों के बीच का मुक्त पथ सरल रेखीय तथा अति न्यून होता है। इस पथ पर चलते हुए द्रव अवस्था से गैस अवस्था में परिवर्तन होने के लिए अणुओं को अपने पारस्परिक आकर्षण के विरुद्ध पृथक होना पड़ता है। इसके लिए कार्य की आवश्यकता होती है तथा यह कार्य वाष्पीकरण की गुप्त उष्मा के तुल्य होता है।
विकिरण-उष्मा का तरंगवाद
घर्षण तथा संघट्टन (टकराने) से वस्तुओं की इंद्रियग्राह्य शक्ति का लोप हो जाता है तथा उष्मा का जनन होता है। यह कल्पना है कि इन घटनाओं में गति का क्षय नहीं होता वरन् वह केवल संपूर्ण वस्तु से उसके प्रत्येक कण में स्थानांतरित होती है। अत: जब एक गतिशील वस्तु घर्षण अथवा संघट्टन द्वारा रोकी जाती है तो वस्तु की मौलिक दृश्य गति का अंत नहीं होता; परन्तु वह उस वस्तु के अदृश्य अणुओं तथा परमाणुओं में चली जाती है।
किसी तप्त वस्तु से कुछ दूरी पर हमें उष्णता का आभास होता है। यह उष्मा वस्तु से हम तक कैसे आई? सूर्य पृथ्वी के समस्त उष्मिक प्रभावों का स्रोत है। सूर्य से प्रकाश तथा उष्मा दोनों ही आते हैं। प्रकाश व्योम (ईथर) में तरंगगति के कारण होता है, ऐसी कल्पना है। इस कल्पना की पुष्टि में प्रमाण हैं। इसी प्रकार उष्मा भी व्योम में तरंगगति के कारण होती है। विकिरण उष्मा, उदाहरणतया धातु के एक तप्त खंड से उत्सर्जित उष्मा तथा प्रकाश के आचरण यथार्थतः एक समान होते हैं। इन दोनों में वास्तविक अंतर, जिसका उपलंभन हो सकता है, यह है, कि प्रकाश में विकीर्ण उष्मा के समस्त लक्षणों के अतिरिक्त दृष्टि की अनुभूति को प्रभावित करने का लक्षण भी होता है।
अतः प्रकाश के समान विकीर्ण उष्मा भी व्योम में तरंगगति के कारण मानी जाती है। एक तप्त पदार्थ के अणु तीव्र गति की अवस्था में होते हैं अथवा किसी द्रुत-आवर्ती विक्षोभ के केंद्र होते हैं तथा वे व्योम में तरंगें प्रदीप्त करते हैं जो हमारे तथा तप्त वस्तु के मध्य प्रकाशगति से चलती हैं। जब वे हमारे ऊपर गिरती हैं तो शरीर द्वारा शोषित हो जाती हैं तथा हमारे शरीर के अणुओं में तदनुरूप गति का कारण होती हैं। इस प्रकार हमें उष्णता का बोध होता है। अत: उष्णता का बोध तप्त पदार्थ से अपसारित व्योमतरंगों के कारण उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार दीप्त पदार्थ से चक्षु तथा एक ध्वनित वस्तु से वायुतरंगों द्वारा कान प्रभावित होता है।
किसी स्थान पर स्थित पदार्थ व्योम के सतत क्षोभ का स्रोत माना जाता है। पदार्थ का प्रत्येक कण कम्पन करते हुए व्योम में तरंगों का जनन करता है। अत: हम सदैव चारों ओर से आती हुई विकिरणतरंगों में डूबे रहते हैं। इन तरंगों द्वारा हमें दृष्टि तथा उष्मा का बोध होता है। यदि यह तरंग निश्चित आवृत्तिसीमाओं के बीच की है तो उससे चक्षु प्रभावित होता है तथा इसे हम प्रकाश-तरंग कहते हैं। यह तरंग हमारे शरीर के अणुओं में विक्षोभ भी उत्पन्न कर सकती है और इस कारण हमें उष्णता का बोध कराती है। मन्द कम्पन की तरंगें चक्षुओं को प्रभावित नहीं करतीं, वे केवल शरीर को उष्ण करती हैं। इन्हें अवरक्त किरणें (इन्फ्रा-रेड रेज़) कहते हैं। द्रुत कम्पन की तरंगें चक्षु को प्रभावित कर प्रकाश का बोध देती हैं, उनसे उष्णता का बोध नहीं के समान होता है। इन्हें हम दृश्य प्रकाशतरंग कहते हैं।