इराक का इतिहास

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इराक का इतिहास मेसोपोटेमिया की अनेक प्राचीन सभ्यताओं का रहा है जिसकी वजह से इसे लिखित इतिहास के प्राचीनतम स्थल होने का सौभाग्य प्राप्त है। परंपराओं के अनुसार इराक में वह प्रसिद्ध नंदन वन था जिसे इंजील में "अंदन का बाग" की संज्ञा दी गई है और जहाँ मानव जाति के पूर्वज हज़रत आदम और आदिमाता हव्वा विचरण करते थे। इराक को "साम्राज्यों का खंडहर" भी कहा जाता है क्योंकि अनेक साम्राज्य यहाँ जन्म लेकर, फूल फलकर धूल में मिल गए।

सुमेरी सभ्यता

संसार की दो महान नदियाँ दजला ओर फ़रात इराक को सरसब्ज़ बनाती हैं। ईरान की खाड़ी से 100 मील ऊपर इनका संगम होता है और इनकी सम्मिलित धारा "शत्तल अरब" कहलाती है। इराक की प्राचीन सभ्यताओं में सुमेरी, बाबुली, असूरी और खल्दी सभ्यताएँ 2,000 वर्ष से ऊपर तक विद्याबुद्धि, कलाकौशल, उद्योग व्यापार और संस्कृति की केंद्र बनी रहीं। सुमेरी सभ्यता इराक की सबसे प्राचीन सभ्यता थी। इसका समय ईसा से 3,500 वर्ष पूर्व माना जाता है। लैंगडन के अनुसार मोहनजोदड़ो की लिपि और मुहरें सुमेरी लिपि और मोहरों से मिलती हैं। सुमेर के प्राचीन नगर ऊर में भारत के चूने मिट्टी के बने बर्तन मिले हैं। हाथी और गैंडे की उभरी आकृतिधारी सिंध सभ्यता की एक गोल मुहर इराक के प्राचीन नगर एश्नुन्ना (तेल अस्मर) में मिली हैं। मोहनजोदड़ो की उत्कीर्ण वृषभ की एक मूर्ति सुमेरियों के पवित्र वृषभ से मिलती है। हड़प्पा में प्राप्त सिंगारदान की बनावट ऊर में प्राप्त सिंगारदान से बिल्कुल मिलती जुलती हैं। इस प्रकार की मिलती जुलती वस्तुएँ यह प्रमाणित करती हैं कि इस अत्यंत प्राचीन काल में सुमेर और भारत में घनिष्ठ संबंध था।

प्रसिद्ध पुरात्ववेत्ता लिओनर्ड वूली के अनुसार - वह समय बीत चुका जब समझा जाता था कि यूनान ने संसार को ज्ञान सिखाया। ऐतिहासिक खोजों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यूनान के जिज्ञासु हृदय ने लीदिया से, खत्तियों से, फ़ीनीक्रिया से, क्रीत से, बाबुल और मिस्र से अपनी ज्ञान की प्यास बुझाई; किंतु इस ज्ञान की जड़ें कहीं अधिक गहरी जाती हैं। इस ज्ञान के मूल में हमें सुमेर की सभ्यता दिखाई देती हैं।

बाबुली सभ्यता

2170 ई. पू. में ऊर के तीसरे राजकुल की समाप्ति के साथ सुमेरी सभ्यता भी समाप्त हो गई उसी के खंडहर से बाबुली सभ्यता का उभार हुआ। बाबुल के राजकुलों ने ईसा से 1000 वर्ष पूर्व तक देश पर शासन किया तथा ज्ञान और विज्ञान की उन्नति की। इन्हीं में सम्राट् हम्मुराबी था जिसका स्तंभ पर लिखा विधान संसार का सबसे प्राचीन विधान माना जाता है।

असूरी सभ्यता

बाबुली सत्ता की समाप्ति के बाद उसी जाति की एक दूसरी शाखा ने असूरी सभ्यता की बुनियाद डाली। असूरिया की राजधानी निनेवे पर अनेक प्रतापी असूरी सम्राटों ने राज किया। 600 ई. पू. तक असूरी सभ्यता फली फूली। उसके बाद खल्दी नरेशों ने फिर एक बार बाबुल को देश का राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बना दिया। नगरनिर्माण, शिल्पकला और उद्योग धंधों की दृष्टि से खल्दी सभ्यता अपने समय की संसार की सबसे उन्नत सभ्यता मानी जाती थी। खल्दियों के समय निर्मित "आकाशी उद्यान" संसार के सात आश्चर्यो में गिना जाता है। खल्दियों के समय नक्षत्र विज्ञान ने भी आश्चर्यजनक उन्नति की।

600 ई.पू. में खल्दियों के पतन के बाद इराकी रंगमंच पर ईरानियों का प्रवेश होता है किंतु तीसरी शताब्दी ई. पू. में सिकंदर की यूनानी सेनाएँ ईरानियों को पराजित कर इराक पर अधिकार कर लेती हैं। इसके बाद तेजी के साथ इराक में राजनीतिक परिवर्तन होते हैं। यूनानियों के बाद पार्थव, पार्थवों के बाद रोमन और रोमनों के बाद फिर सासानी ईरानी इराक पर शासनरूढ़ होते हैं।

इसलाम स्थापना के बाद इराक

सातवीं स.ई. में इसलाम की स्थापना के बाद ईरानियों और अरबों की टक्करों के फलस्वरूप इराक पर अरब के खलीफाओं की हुकूमत कायम हो जाती है। इराक के पुराने नगर नष्ट हो चुके थे। अरबों ने जिन कई नए शहरों की दागबेल डाली उनमें कूफ़ा (638 ई.), बसरा और दजला के तट पर बगदाद (सन् 762ई.) मुख्य हैं। हजरत अली जब इसलाम के खलीफा थे, उन्होंने कूफ़ा को अपनी राजधानी बनाया। अब्बासी खलीफाओं के जमाने में बगदाद अरब साम्राज्य की राजधानी बना। खलीफा हारूँ रशीद के समय बगदाद ज्ञान विज्ञान, कला कौशल, सभ्यता और संस्कृति का एक महान केंद्र बन गया। ज्ञानी और पडिंत, दार्शनिक और कवि,कुशल योद्धा राजा रजवाड़े साहित्यिक और कलाकार एशिया, यूरोप और अफ्रीका से आ आकर बगदाद में जमा होने लगे।

अंतिम अब्बासी खलीफा मुतास्सिम के समय, सन् 1258 ई. में, चंगेज खाँ के पौत्र हलाकू खाँ के नेतृत्व में मंगोलों ने बगदाद पर आक्रमण किया तथा सभ्यता और संस्कृति के उस महान केंद्र को नष्ट कर दिया। हलाकू के इस आक्रमण ने अब्बासियों के शासन का सदा के लिए अंत कर दिया।

इराक में ही करबला का प्रसिद्ध मैदान है जहाँ सन् 680 ई. में पैगंबर के नवासे हुसैन का ओमइया खलीफाओं के शासकों द्वारा सपरिवार वध कर दिया गया था। करबला में आज भी हर साल हजारों शिया मुसलमान संसार के कोने से आकर हजरत हुसैन की स्मृति में आँसू बहाते हैं। इराक में शिया संप्रदाय का दूसरा तीर्थस्थान नजफ़ हैं इराक की अधिकांश जनसंख्या शिया मुसलमानों की हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से इराक अरब और ईरान का मिलनकेंद्र रहा है किंतु नस्ल की दृष्टि से इराक निवासी अधिकांशत: अरब हैं।

अब्बासियों के पतन के बाद इराक मंगोलों, तातारियों, ईरानियों, खुर्दो और तुर्को की आपसी प्रतिस्पर्धा का शिकारगाह बना रहा। इराक पर तुर्को का विधिवत् शासन सन् 1831 ई. में प्रारंभ हुआ। इराक को तुर्को ने तीन विलायतों अथवा प्रांतों में बाँट दिया था। ये प्रांत थे-मोसल विलायत, बगदाद विलायत और बसरा विलायत। यही तीनों विलायतें आधुनिक इराक में 14 लिवों या कमिश्नरियों में बाँट दी गई हैं।

अंग्रेजों का अधिकार

सन् 1914 ई. में तुर्की जब प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के पक्ष में शामिल हुआ तब अंग्रेजी सेनाओं ने इराक में प्रवेश कर 22 नवम्बर सन् 1914 को बसरा पर और 11 मार्च सन् 1917 को बगदाद पर अधिकार कर लिया। इस आक्रमण से अंग्रेजों का उद्देश्य एक ओर अबादान में स्थित ऐंग्लो-पर्शियन आयल कंपनी की रक्षा करना और दूसरी ओर मोसूल में तेल के अटूट भंडार पर अधिकार करना था। युद्ध की समाप्ति के बाद इराक अंग्रेजों का प्रभावक्षेत्र बन गया। अंग्रेजों ने 23 अगस्त सन् 1921 को अपनी ओर से एक कठपुतली अमीर फैजल को इराक का राजा घोषित कर दिया।

अंग्रेजों से स्वतन्त्रता

सन् 1930 में इराक और ग्रेट ब्रिटेन के बीच एक विधिवत् 25 वर्षीय संधि हुई जिसकी एक शर्त यह भी थी क यथासंभव शीघ्र ही ग्रेट ब्रिटेन इराक को राष्ट्रसंघ में शामिल किए जाने की सिफारिश करेगा। संधि की इस धारा के अनुसार ग्रेट ब्रिटेन की सिफारिश पर इराक के ऊपर से उसका मैंडेट 4 अक्टूबर सन् 1932 को समाप्त हो गया और एक स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत से इराक राष्ट्रसंघ का सदस्य बना लिया गया। इराक के आग्रह पर ऐंग्लो-इराकी संधि की अवधि अक्टूबर, सन् 1947 तक बढ़ा दी गई। 26 जून सन् 1954 को इराक संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य बन गया और अरब राष्ट्र के संघ की स्थापना में उसने महत्वपूर्ण भाग लिया।

इराक मध्यपूर्व सुरक्षायोजना के बगदाद पैक्ट गुट का प्रमुख सदस्य था किंतु हाल की राजनीतिक क्रांति के परिणामस्वरूप वहाँ से राजतंत्र समाप्त हो गया है। इराक ने बगदाद पैक्ट गुट के देशों से भी अपने को पृथक् कर लिया है।

सहसा सैनिक क्रांति के बाद, 14 जुलाई सन् 1958 ई. को सैनिक अधिकारियों के एक दल ने इराक को गणतंत्र घोषित कर दिया और अरब संघ से भी इसे अलग कर लिया। उक्त क्रांति में इराक के तत्कालीन शाह फैजल द्वितीय, शाह के चाचा, भूतपूर्व शास्ता अमीर अब्दुल्ला तथा प्रधानमंत्री नूरी अल सईद मारे गए। अगले चार वर्षो तक इराक में जनरल क़ासिम का शासन रहा। लेकिन 8 फ़रवरी 1963 को थल एवं वायु सेना द्वारा पुन: सैनिक क्रांति किए जाने के बाद 9 फ़रवरी 1963 को जनरल कासिम फाँसी पर लटका दिए गए और क्रांतिकारी कमान ने राष्ट्रीय असेंबली की हैसियत से कार्यभार सँभाल लिया।

4 मई 1964 को अस्थायी रूप से स्वीकृत संविधान में इराक को स्वतंत्र एवं प्रभुसत्तासंपन्न "लोकतांत्रिक समाजवादी इस्लामी अरब गणराज्य" की संज्ञा से अभिहीत किया गया हैं और इसके उद्देश्य के रूप में "अरब एकता" सर्वप्रमुख रखी गई है।

राष्ट्रपति अहमद हसन बक्र के नेतृत्व में नवगठित सरकार ने जनरल कासिम के शासनकाल से चले आ रहे "कुवैती प्रभुसत्ता" से संबद्ध झगड़े को निबटाने के लिए कुवैत से समझौता कर लिया। लेकिन कुर्दो की समस्या का शांतिपूर्ण हल तत्काल न निकाला जा सका। हालाँकि 10 फ़रवरी 1964 को कुर्दो के साथ युद्धविराम की घोषणा की गई, फिर मी 1965 के अप्रैल में युद्ध पुन: प्रारंभ हो गया। मार्च, 1970 में कांतिकारी कमान परिषद् ने कुर्द समस्या को संवैधानिक आधार पर हमेशा के लिए सुलझा लिया।

16 अक्टूबर 1964 को संयुक्त अरब गणराज्य के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए जिसमें दोनों देशों के लिए तत्काल संयुक्त राजनीतिक नेतृत्व की स्थापना के साथ आगामी दो वर्ष के अंदर संवैधानिक आधार पर उभय देशों के एकीकरण का लक्ष्य रखा गया। उक्त अवधि बाद में दो वर्ष से बढ़ा कर पांच वर्षकर दी गई। जून, 1967 में दोनों देशों के बीच सभी सीमाकर समाप्त कर दिए गए।

सन् २००३ के बाद इराक

आर्थिक स्थिति ख़राब हो गई