शाही जापानी सेना

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शाही जापानी सेना (जापानी: 大日本帝國陸軍 दाइ निप्पोन तेइकोकु रिकुगुन ), अर्थात् "महान जापानी साम्राज्य की सेना" १८७१ से १९४५ तक जापानी साम्राज्य की थल सेना थी। इसका नियंत्रण शाही जापानी सेना सामान्य स्टाफ़ कार्यालय और युद्ध मंत्रालय करते थे, और दोनों जापानी सम्राट के नाममात्र अधीन थे, जो थल सेना और नौसेना के सर्वोच्च अधिकारी थे। बाद में सैन्य विमानन का महानिरीक्षणालय सेना की निगरानी करने वाली तीसरी एजेंसी बन गई। युद्ध या राष्ट्रीय आपातकाल के समय, कमान शाही सामान्य मुख्यालय में केन्द्रित होता था, जिसमें सेना के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, युद्ध मंत्री, विमानन के मुख्या निरीक्षक, और सैन्य प्रशिक्षण के मुख्य निरीक्षक शामिल थे।  

इतिहास

स्थापना

फ़्रांस द्वारा शोगुन के सिपाहियों का प्रशिक्षण, बोशिन युद्ध (१८६८-१८६९) से ठीक पहले, जिसके बाद मेइजी पुनर्स्थापन हुआ।

मेइजी पुनर्स्थापन के दौरान,सम्राट मेइजी के प्रति वफ़ादार सैन्य बल मुख्यतः सामुराई थे जिन्हें सात्सुमा और चोसु जागीरों के वफ़ादार दाईम्यो से लिया जाता था। [1] मेइजी जापान के सरकार (बाफ़ुकू)  को सत्ता से हटाने के बाद और यूरोपीय देशों के आधार पर नई सरकार बनाने के बाद, जापान को पश्चिमी साम्राज्यवाद के सुरक्षित रखने के लिए एक औपचारिक सेना जो केंद्र सरकार के प्रति वफ़ादार हो, इसकी आवश्यकता समझ में आई।

यह केंद्रीय सेना, जिसे "शाही जापानी सेना" के नाम से जाना गया, १८७१ में हान तंत्र के उन्मूलन के बाद और भी ज़्यादा ज़रूरी हो गई। सेना के सुधार के लिए सरकार ने १८७३ में पूरे देश में अनिवार्य सैनिक सेवा लागू की, जहाँ १७ और ४० के आयु के सभी पुरुषों को ३ वर्षों तक सक्रिय सेवा, और उसके बाद दो वर्षों तक प्रथम आरक्षण (सक्रिय) और फिर दो वर्ष द्वितीय आरक्षण (अतिरिक्त)।[१] सामुराई और कृषि वर्ग में सबसे बड़ा अंतर था अस्त्रधारण की स्वतंत्रता। इस प्राचीन विशेषाधिकार को अब देश के सभी पुरुषों को दिया गया। 

विदेशी सहायता

शाही जापानी सेना का गठन दूसरा फ्रेंच साम्राज्य के सलाहकारों के सहायता से किया गया था,[२] द्वितीय जापान को फ़्रांसीसी सैन्य मिशन (१८७२-८०), और तृतीय जापान को फ़्रांसीसी सैन्य मिशन (१८८४-८९) के द्वारा। लेकिन फ़्रांसिसी जर्मन युद्ध में उत्तर जर्मन परिसंघ के जीत के बाद, जापानी सरकार ने प्रशियाई सेना को भी अपनी सेना का आधार बनाया, और दो जर्मन सैन्य सलाहकारों को लिया (मेजर याकोब मेकेल, 1888 में फॉन विल्डेनब्रुक और फॉन ब्लांकेनबॉर्ग से बदले गए), जिन्होंने जापानी सामान्य स्टाफ़ को १८८६ से अप्रैल १८९० तक प्रशिक्षित किया: शाही जापानी सेना सामान्य स्टाफ़ कार्यालय, को सम्राट के अधीन १८७८ स्थापित किया गया और सैन्य योजनाओं और रणनीति की शक्ति दी गई।

१८७५ में शाही जापानी सेना के सिपाही।

अन्य ज्ञात विदेशी सैन्य सलाहकार थे इटली राज्य के पोंपेओ ग्रिलो और मेजर क्वारतेज़ी जो में काम करने वाले ओसाका ढलाईघर में काम करते थे,  और नीदरलैंड राज्य से कप्तान शेर्मबेक, जिन्होंने तटीय सुरक्षा के सुधार पर काम किया। जापान ने १८९० और १९१८ के बीच विदेशी सलाहकारों का उपयोग नहीं किया। फिर १९१९ में जैक-पॉल फौर के नेतृत्व में तृतीय जापान को फ़्रांसीसी सैन्य मिशन (१९१८-१९) का अनुरोध किया गया, जापानी वायु सेव के विकास में सहयता के लिए।[३]

ताइवान अभियान

१८७४ में चिंग साशन के अधीन ताइवान का जापानी आक्रमण एक दंडात्मक अभियान था जिसे दिसंबर १८७१ के मुदान घटना के प्रतिक्रिया में किया गया था। ताइवान के स्थानीय पाइवान लोगों ने र्युक्यू राज्य के क्षतिग्रस्त व्यापारी जहाज़ के ५४ चालकदल सदस्यों को मार डाला था। १२ लोगों को स्थानीय चीनी समुदाय ने बचा लिया और र्युक्यू द्वीपसमूह के मियाको-जिमा भेज दिया। जापानी साम्राज्य ने इस हमले से र्युक्यू राज्य (जो जापान और चिंग राज्य दोनों का करदाता राज्य था) और ताइवान (जो चिंग प्रांत था) दोनों पर संप्रभुता जताने की कोशिश की। यह जापानी सेना और नौसेना की पहला विदेशी परिनियोजन थी। 

सात्सुमा विद्रोह

इस नए व्यवस्था से नाख़ुश सामुराइयों कई दंगे हुए। इनमें सबसे प्रमुख था साइगो ताकामोरी के नेतृत्व में सात्सुमा विद्रोह, जो एक गृहयुद्ध बन गया। इसे नए शाही जापानी सेना के सिपाहियों ने पश्चिमी युक्तियों और हथियारों से जल्द काबू में कर लिया, भले ही इस नई सेना का मूल टोक्यो पुलिस बल थी, जो अधिकतर पूर्व समुराइयों से गठित थी।[४]

सात्सुमा विद्रोह के दौरान शाही जापानी सेना के सिपाही, कुमामोटो गैरिसन, १८७७।

१८८२ के सैनिकों और नाविकों को शाही निर्देश में सम्राट के प्रति निर्विवाद वफ़ादारी का आदेश था और कहा गया कि वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश सम्राट के आदेश के समान थे। इस तरह सेना और शाही संस्था के बीच क़रीबी संबंध था।

उच्च सैन्य नेताओं को सम्राट तक सीधी पहुँच थी और उनके कथन को सिपाहयों तक पहुँचाने का प्राधिकार था। सेना में भर्ती सिपाहियों और अधिकारों के बीच सहानुभूतिपूर्ण संबंध थे, ख़ासकर कनिष्ठ अधिकारी जो अधिकतर कृषि वर्ग से आए थे, जिससे जनता का सेना के प्रति समर्थन बढ़ा। समय के साथ लोग राष्ट्रिय मुद्दों पर राजनेताओं के बजाय सेना के मार्गदर्शन की ओर मुड़ गए।

कोइशिकावा शस्त्रागार में जापानी तोपखाना इकाई, १८८२। ह्युग्स क्राफ्ट की तस्वीर। 
मुराता राइफल को १८८० में जापान में विकसित किया गया था।

१८९० के दशक तक शाही जापानी सेना एशिया की सबसे आधुनिक सेना बन चुकी थी - अच्छी तरह से प्रशिक्षित और हथियारों से लैस। लेकिन, यह केवल एक पैदल सेना थी जिसकी घुड़सवारी और तोपों की क्षमता यूरोपीय देशों की पीछे थी। अमेरिका और यूरोपीय देशों से ख़रीदे गए तोपों की समस्या यह थी कि ये कम संख्या में उपलब्ध थे और उनके गोलों के कैलिबर कई थे, जिससे गोलाबारूद के आपूर्ति में कठिनाइयाँ हो रही थी।

प्रथम चीन-जापान युद्ध

प्रथम चीन-जापान युद्ध (१ अगस्त १८९४ - १७ अप्रैल १८९५) चिंग चीन और मेइजी जापान के बीच कोरिया के अधिकार के लिए लड़ा गया था, जो १८७६ के जापान-कोरिया संधि के बाद जापान के अधीन था। यह युद्ध चिंग राजवंश के सेना की कमज़ोरियों की निशानी बन गई, जब जापान ने चीन पर एक के बाद एक जीत हासिल की। इस जीत का कारण था जापान की नई पश्चिमी शैली में गठित सेना, जो चीनी सेना के तुलना में बेहतर प्रशिक्षित और बेहतर हथियारों के लैस थी। इस युद्ध से पूर्वी एशिया का प्रभुत्व चीन से जापान को चला गया। शिमोनोसेकी के संधि से चीन की हार औपचारिक हो गई।

बॉक्सर विद्रोह

फ़्रांस द्वारा शोगुन के सिपाहियों का प्रशिक्षण, बोशिन युद्ध (१८६८-१८६९) से ठीक पहले, जिसके बाद मेइजी पुनर्स्थापन हुआ।

यह केंद्रीय सेना, जिसे "शाही जापानी सेना" के नाम से जाना गया, १८७१ में हान तंत्र के उन्मूलन के बाद और भी ज़्यादा ज़रूरी हो गई। सेना के सुधार के लिए सरकार ने १८७३ में पूरे देश में अनिवार्य सैनिक सेवा लागू की, जहाँ १७ और ४० के आयु के सभी पुरुषों को ३ वर्षों तक सक्रिय सेवा, और उसके बाद दो वर्षों तक प्रथम आरक्षण (सक्रिय) और फिर दो वर्ष द्वितीय आरक्षण (अतिरिक्त)।[१] सामुराई और कृषि वर्ग में सबसे बड़ा अंतर था अस्त्रधारण की स्वतंत्रता। इस प्राचीन विशेषाधिकार को अब देश के सभी पुरुषों को दिया गया। 

रूस-जापान युद्ध (१९०४-१९०५) जापान और रूस के आपसी तनाव के हुई, जिसका मूल मंचूरिया और कोरिया पर दोनों के साम्राज्यवादी इरादे थे। जापान ने रूस को बुरी तरह हरा दिया, लेकिन वे रूसी सेना को एक निर्णायक झटका नहीं दे पाए। पैदल सैनिकों पर अधिक निर्भर होने से पोर्ट आर्थर की घेराबंदी के दौरान कई सैनिक हताहत हुए।

प्रथम विश्व युद्ध

जिआओझ़ोउ अभियान में शाही जापानी सेना की वर्दी।

जापानी साम्राज्य ने त्रिपक्षीय अंतंत की ओर से युद्ध में हिस्सा लिया।भले की फ़्रांस को १,००,००० से ५,००,००० सैनिकों की अभियान सेना संभावित योजना थी, [५] अंत में शाही जापानी सेना ने केवल एक कार्रवाई में शामिल हुई, जो थी १९१४ में जर्मन रियायत चिंगदाओ बंदरगाह की घेराबंदी। [६]

१९१७ से १९१८ के दौरान, जापान निशिहारा ऋण के द्वारा चीन पर अपने विशेषाधिकार और प्रभाव का विस्तार करता रहा। रूसी साम्राज्य के पतन और बोलशेविक क्रांति के बाद, साइबेरियाई हस्तक्षेप के दौरान शाही जापानी सेना की मूल योजना थी बयकाल झील तक साइबेरिया पर कब्ज़ा करना। सेना की सामान्य स्टाफ़ ने त्सार के पतन में जापान को भविष्य में रूसी ख़तरों से मुक्त करने का मौक़ा देखा, यदि साइबेरिया को रूस से अलग एक अंतस्थ राज्य बना दिया जाए।  [७] अमेरिका के विरोध से इस योजना को घटा दिया गया।

१८७४ में चिंग साशन के अधीन ताइवान का जापानी आक्रमण एक दंडात्मक अभियान था जिसे दिसंबर १८७१ के मुदान घटना के प्रतिक्रिया में किया गया था। ताइवान के स्थानीय पाइवान लोगों ने र्युक्यू राज्य के क्षतिग्रस्त व्यापारी जहाज़ के ५४ चालकदल सदस्यों को मार डाला था। १२ लोगों को स्थानीय चीनी समुदाय ने बचा लिया और र्युक्यू द्वीपसमूह के मियाको-जिमा भेज दिया। जापानी साम्राज्य ने इस हमले से र्युक्यू राज्य (जो जापान और चिंग राज्य दोनों का करदाता राज्य था) और ताइवान (जो चिंग प्रांत था) दोनों पर संप्रभुता जताने की कोशिश की। यह जापानी सेना और नौसेना की पहला विदेशी परिनियोजन थी। 

राजनीतिक निर्णय लेने के बाद शाही जापानी सेना ने सेनाध्यक्ष जनरल युई मित्सुए पर पूरा नियंत्रण पा लिया और नवंबर १९१८ तक ७००००[८] से अधिक जापानी सैनिकों ने पूर्वी साइबेरिया के सभी बंदरगाहों और रूसी समुद्री प्रांतों पर कब्ज़ा कर लिया था।

जून 1920 में, संयुक्त राज्य अमेरिका और मित्र गठबंधन के देशों ने श्वेत सेना के नेता आलेक्सान्दर कोलचाक के पकड़े जाने और मृत्युदंड के बाद व्लादिवोस्तोक से अपनी सेनाएँ वापस ले लीं। जापानी सेना ने रुकने का निर्णय लिया क्योंकि उन्हें जापान और जापान अधीन कोरिया और मंचूरिया के इतने क़रीब साम्यवाद के फ़ैलने का डर था। जापानी सेना ने व्लादिवोस्तोक-आधारित अनंतिम प्रिआमुर्ये सरकार को मॉस्को-समर्थित सुदूर पूर्वी गणराज्य के विरुद्ध सैन्य सहायता दी।

जापान की मौजूदगी से अमेरिका को चिंता होने लगी, जिसे आशंका थी कि जापान को साइबेरिया और रूसी सुदूर पूर्व पर कब्ज़े की आशा थी। अमेरिका और ब्रिटेन से अत्यधिक कूटनीतिक दबाव और इसके आर्थिक और मानवीय लागत के चलते बढ़ते घरेलू विरोध के कारण प्रधानमंत्री कातो तोमोसाबुरो ने जापानी बलों को अक्तूबर १९२२ को वहाँ से हटा दिया। [९]

Prince Kan'in Kotohito, chief of staff of the Army from 1931 until 1940.

शोवा काल में सेनावाद की वृद्धि

१९२० के दशक में जापानी सेना में तेज़ बढ़ोतरी हुई और १९३७ तक इसमें ३,००,००० सैनिक थे। पश्चिमी देशों से अलग, यह सरकार से अधिकतर स्वतंत्र थी। मेइजी संविधान के प्रावधान के अनुसार, युद्ध मंत्री केवल सम्राट हिरोहितो को उत्तरदायी थे, निर्वाचित नागरिक सरकार को नहीं। यहाँ तक कि जापानी नागरिक प्रशासन को टिकने के लिए सेना के समर्थन की आवश्यतकता थी। सेना युद्ध मंत्री की नियुक्ति करती थी और १९३६ में एक नए नियम के तहत सिर्फ़ एक सक्रिय जनरल या लेफ्टिनेंट-जनरल ही युद्ध मंत्री बन सकता था। [१०] परिणामस्वरूप १९२० से १९३० के दशक में सेना का खर्च राष्ट्रीय बजट के तुलना में बढ़ने लगा और सेना के गुटों का जापानी विदेश नीति पर अत्यधिक प्रभाव था।

शाही जापानी सेना को १९२८ से पहले सिर्फ़ "सेना" (रिकुगुन), पर इसके बाद राष्ट्रीय स्वच्छंदतावाद और अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण इसने अपना शीर्षक रखा "शाही सेना" (कोगुन)

चीन से संघर्ष

१९३१ में शाही जापानी सेना में १,९८,८८० अधिकारी और सैनिक थे, जिन्हें १७ डिविज़न में बाँटा गया था।[११] मंचूरियाई घटना, जिस नाम से इसे जापान में जाना गया, जापानी रेलवे पर चीनी लुटेरों का हमला था।. नागरिक नेतृत्व से स्वतंत्र सेना की कार्रवाई से १९३१ में मंचूरिया पर आक्रमण और १९३७ में द्वितीय चीन-जापान युद्ध हुई। युद्ध के पास आते-आते शाही सेना का सम्राट पर प्रभाव घटने लगा और शाही जापानी नौसेना का प्रभाव बढ़ने लगा। [१२] फिर भी, १९३८ तक सेना की वृद्धि होकर ३८ डिविज़न हो गए थे।[१३]

सोवियत संघ से संघर्ष

१९३२-१९४५ तक जापानी साम्राज्य और सोवियत संघ के बीच कई संघर्ष हुए। जापान होशिकुन-रोन सिद्धांत के तहत सोवियत इलाक़े चाहता था। मंचूरिया में मांचुको नामक कठपुतली राज्य के स्थापना के से जापान और सोवियत संघ में तनाव बढ़ गई। उनके बीच १९३० के दशक तक दो युद्ध हुए जिसमें सोवियत संघ की निर्णायक जीत हुई। १३ अप्रैल १९४१ के सोवियत-जापान तटस्थता संधि से दोनों के बीच युद्ध थमा।[१४] लेकिन, याल्टा सम्मेलन में स्टालिन जापान पर युद्ध की घोषणा करने के लिए तैयार हो गया। ५ अगस्त १९४५ को सोवियत संघ ने संधि का अंत कर दिया।[१५]

द्वितीय विश्व युद्ध

१९४१ में शाही जापानी सेना में ५१ डिविज़न थे,[१३] और विशेष-उद्देश्य तोप, घुड़सवार, विमानभेदी और बख़्तरबंद इकाई थे जिनमें कुल १,७००,००० सैनिक थे। द्वितीय विश्व युद्ध के शुरुआत में अधिकतर जापानी सेना (२७ डिविज़न) चीन में तैनात थी। १३ डिविज़न मंगोलियाई सीमा के रक्षा कर रही थी, क्योंकि उन्हें सोवियत संघ से हमले की चिंता थी।[१३] १९४२ में सिपाहियों को हांग कांग (२३वी। सेना), फ़िलीपीन्स(१४वीं सेना), थाईलैंड (१५वीं सेना), बर्मा (१५वीं सेना), डच पूर्वी इंडीज़ (१६वीं सेना) और मलाया (२५वीं सेना) भेजा गया।[१६] १९४५ तक जापानी सेना में ५५ लाख सैनिक थे।

१९४३ से जापानी सैनिकों को मित्र सेनाओं के समुद्री प्रतिबंध और जापानी शिपिंग के घाटे के कारण आपूर्तियों की कमी झेलनी पड़ी, ख़ासकर भोजन, दवाई, गोलाबारूद,और बंदूकों की, जो शाही जापानी नौसेना के उनकी लंबी और कठोर प्रतिस्पर्धा से और मुश्किल हो गई। आपूर्तियों की कमी से कई लड़ाकू विमान अतिरिक्त पुर्जों के बिना अनुपयोगी हो गए[१७] और "जापान के सैन्य मौतों के दो-तिहाई बीमारी या भुखमरी से हुए।"[१८]

१५ फरवरी १९४२ को आर्थर पर्सिवल, एक जापानी अधिकारी (केंद्र) के पीछे युद्धविराम के ध्वज के नीचे चलते हुए, सिंगापुर के युद्ध में मित्र सेना के आत्मसमर्पण की चर्चा करने।

कट्टरवाद और युद्ध अपराध

द्वितीय विश्व युद्ध और द्वितीय चीन-जापान युद्ध के दौरान शाही जापानी सेना अपनी कट्टरवाद और आम नागरिकों और युद्ध-बंदियों के प्रति क्रूरता के लिए कुख्यात हो गई - नांकिंग हत्याकांड इसका एक उदाहरण है।[१९] १९४५ में जापान के आत्मसमर्पण के बाद कई शाही जापानी सेना के अधिकारियों और सैनिकों पर मुक़दमा चलाया गया और अत्याचार और युद्ध अपराध के लिए दंड दिया गया। १९४९ में मुक़दमे समप्त हुए और कुल १,७०० मामलों की सुनवाई हुई।[२०]

मेजर जनरल तोमितारो होरी ने १९४१ में "दक्षिणी समुद्रों में सैनिकों के लिए मार्गदर्शक" जारी की थी, जिसमें आम नागरिकों को मारने या लूटने की मनाही थी। इसका उद्देश्य था चीन में हुए सेना के अत्याचारों को न दोहराना, लेकिन यह केवल उनके कमान के सैनिकों पर ही लागू थी।  [२१]

शाही जापानी सेना के सदस्यों के अत्यधिक क्रूर और निर्दयी बर्ताव को समझने के लिए कई कारण बताए जाते हैं। एक यह कि उन्हें स्वयं यह अनुभव करना पड़ा था। सेना अपने सैनिकों के प्रशिक्षण के दौरान अत्यधिक कठोर व्यवहार के लिए जानी जाती थी,[२२] जिसमें मारपीट, अनावश्यक और श्रमसाध्य ज़िम्मेदारियाँ, पर्याप्त भोजन की कमी और अन्य हिंसक अनुशासनिक कार्रवाइयाँ शामिल थीं। यह १८८२ के सैनिकों और नाविकों को शाही निर्देश के विपरीत थी, जिसमें कहा गया था कि अधिकारी अपने कनिष्ठों का सम्मान करें।[२३] १९४३ में ही वरिष्ठ कमान को इस क्रूरता का मनोबल पर असर का एहसास हुआ, और इस पर रोक के निर्देश दिए, जिन्हें अक्सर अनदेखा किया जाता था।[२४] ग्योकुसाई ("यशस्वी मृत्यु") के भावना से वे अक्सर आत्मघाती किर्च हमले करते थे, हथगोले और गोली उपलब्ध होने के बावजूद।[२५]

शाही जापानी सेना की कभी हार नहीं मानने की प्रतिष्ठा प्रशांत अभियान के लड़ाइयों के बचने वाले जापानी सैनिकों की कम तादाद से स्थापित हुई। साइपान के युद्ध में ३१,००० सैनिकों के गढ़ से ९२१ पकड़े गए, तारावा के युद्ध में ३००० में से १७, ओकिनावा के युद्ध में १,१७,००० से ७,४००-१०,७५५, और कई आत्महत्याओं को शाही सेना का अनुमोदन था। दक्षिण पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में १९४२ और १९४३ में प्रतिवर्ष केवल १००० सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया, १९४४ में ५,१०० और १९४५ में १२,०००[२६] जो बीमारयों के न होने से और अधिक हो सकते थे।[२७] पत्रकों के प्रचार प्रसार २०% आत्मसमर्पणों के कारण थे,[२८] अर्थात लगभग प्रति ६,००० पत्रकों से एक युद्ध-बंदी।[२९] जापानियों को इन "बेईमान" पत्रकों से आपत्ति थी,[३०] भले ही इनमें अमेरिकी बलों के आत्मसमर्पण के स्वीकार करने के बारे में कुछ सच्चाई थी।[३१] इसके विपरीत शाही जापानी सेना अमेरिकी सेना को क्रूर और निर्दयी दर्शाती थी, और उन्हें 鬼畜米英 (किचिकुबेइएइ, अर्थात् राक्षसी जानवर अमेरिकी और ब्रितानी) कहती थी, और अपने सैनिकों को सूचना देती थी कि अमेरिकी सभी बंदी महिलाओं का बलात्कार और पुरुषों पर अत्याचार करेगी, जिससे अमेरिकी युद्ध-बंदियों से क्रूरता बरती गई और साइपान और ओकिनावा के युद्ध में जापानी सैनिकों और नागरिकों ने सामूहिक आत्महत्या की।

शोवा काल में शाही सामान्य मुख्यालय और सम्राट की शक्ति 

शोवा काल के दौरान, मेइजी संविधान के अनुसार, सम्राट का "सेना और नौसेना पर सर्वोच्च कमान" था (अनुच्छेद ११)। सम्राट हिरोहितो कानूनी रूप से १९३७ में स्थापित शाही सामान्य मुख्यालय के सर्वोच्च सेनाध्यक्ष थे, जिसके द्वारा सैना के निर्णय लिए जाते थे।

सेनाध्यक्ष की वर्दी में शोवा सम्राट

इसके प्रमुख सूत्र हैं "सुगियामा स्मृतिपत्र" और फ़ुमिमारो कोनोए और कोइची किदो के डायरी जो, सम्राट के अध्यक्षों और मंत्रियों के साथ अनौपचारिक बैठकों का विस्तार से वर्णन करते हैं। इन दस्तावेज़ों से यह पता चलता है कि उनको सभी सैन्य कार्रवाइयों की ख़बर थी और अक्सर वरिष्ठ अधिकारियों से प्रश्न पूछते थे और बदलाव करने को कहते थे। 

इतिहासकारों योशिआकी योशिमी और सेइया मात्सुनो के अनुसार, हिरोहितो ने राजकुमार कानइन और हाजिमे सुगियामा के ज़रिए विशिष्ट आदेश दिए थे चीनी नागरिकों और सैनिकों पर रासायनिक हथियार का उपयोग करने के लिए। उन्होंने वुहान के आक्रमण के दौरान ३७५ अलग-अलग अवसरों पर विषैले गैस के उपयोग को अधिकृत किया था।[३२] चांगदे के युद्ध में भी यही हुआ था।

इतिहासकारों आकिरा फ़ुजिवारा और आकिरा यामादा के अनुसार, हिरोहितो ने कुछ सैन्य अभियानों में बड़े हस्तक्षेप किए थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने फील्ड मार्शल हाजिमे सुगियामा पर जनवरी और फरवरी १९४२ में सैनिकों की तादाद बढ़ाने और बाताआन प्रांत पर हमले का दबाव डाला था।[३३] अगस्त १९४३ में उन्होंने सुगियामा को सोलोमन द्वीप पर अमेरिकी सेना को न रोक पाने के लिए निंदा की थी और उन्हें अन्य जगहों पर हमले पर विचार करने को कहा।[३४]

केवल ख़ास मौक़ों पर ही शाही परिषद में निर्णय लिए जाते थे। शाही सरकार ने इस विशेष अधिकार का उपयोग चीन के आक्रमण , प्रशांत युद्ध और युद्ध के समाप्ति के अनुमोदन के लिए किया था। १९४५ में शाही परिषद के निर्णय को लागू करते हुए, शोवा सम्राट ने रेडियो के ज़रिए पूरे देश को अमेरिकी सेनाओं से आत्मसमर्पण की घोषणा की।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद

थल आत्मरक्षा बल

जापानी संविधान का अनुच्छेद ९ विवादों के समाधान के लिए बल के प्रयोग को त्यागता है।[३५] इसे सैन्यवाद को रोकने के लिए क़ानून बनाया गया था। लेकिन १९४७ में सार्वजनिक सुरक्षा बल का गठन हुआ; और १९५४ में यह थल आत्मरक्षा बल का आधार बना।[३६] भले ही यह बल शाही जापानी सेना के छोटा है और केवल आत्मरक्षा के लिए है, यह आधुनिक जापान की सेना है।

युद्ध-पश्चात विरोध

शाही जापानी सेना के कुछ सैनिक प्रशांत महासागर के कुछ द्वीपों पर १९७० के दशक तक लड़ते रहे, और अंतिम सैनिक ने १९७४ में आत्मसमर्पण किया।[३७][३८][३९][४०]

१८ अगस्त १९४५ को आत्मसमर्पण के समय जापानी सेना के थल सेना की स्थिति।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. Harries & Harries, p. 22.
  2. Harries & Harries, pp. 20–24.
  3. Harries & Harries, p. 363.
  4. Harries & Harries, pp. 29–31.
  5. Harries & Harries, p. 109.
  6. Harries & Harries, pp. 110–111.
  7. Humphreys, The Way of the Heavenly Sword: The Japanese Army in the 1920s, page 25
  8. Harries & Harries, p. 123.
  9. Harries & Harries, p. 124.
  10. Harries & Harris, p. 193.
  11. Kelman, p.41
  12. Harries & Harries, p. 197.
  13. Jowlett, p. 7.
  14. Soviet-Japanese Neutrality Pact स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। April 13, 1941.
  15. "Battlefield – Manchuria – The Forgotten Victory" स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।, Battlefield (documentary series), 2001, 98 minutes.
  16. Jowlett, pp. 15–16, 21.
  17. Bergerund, Eric.
  18. Gilmore, p.150.
  19. Harries & Harries, pp. 475–476.
  20. Harries & Harries, p. 463.
  21. Chen, World War II Database स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  22. Gilmore, p.87.
  23. Gilmore, p.45.
  24. Gilmore, p.89.
  25. Gilmore, pp.97–8.
  26. This is quite substantially more than the 2,000 who surrendered in the Russo-Japanese War.
  27. Dower, John W., Prof.
  28. Gilmore, p.155.
  29. Gilmore, p.154.
  30. Quoted in Gilmore, p.163.
  31. Gilmore, pp.63, 68. & 101.
  32. Yoshimi and Matsuno, Dokugasusen Kankei Shiryo II, Kaisetsu, 1997, p.25–29.
  33. Fujiwara, Shōwa tenno no ju-go nen senso, 1991, pp.135–138; Yamada, Daigensui Showa tenno, 1994, pp.180, 181, and 185.
  34. Bix, Herbert.
  35. Harries & Harries, p. 471.
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  37. Kristof, Nicholas D. "Shoichi Yokoi, 82, Is Dead; Japan Soldier Hid 27 Years," स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। New York Times.
  38. "The Last PCS for Lieutenant Onoda," Pacific Stars and Stripes, March 13, 1974, p6
  39. "Onoda Home; 'It Was 30 Years on Duty'," Pacific Stars and Stripes, March 14, 1974, p7
  40. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।