अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र)

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अश्विनीकुमार
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Ashwini Kumaras-L.jpg
अश्विनीकुमारद्वय
संबंध नासत्य और दस्र
जीवनसाथी साँचा:if empty
माता-पिता साँचा:unbulleted list
भाई-बहन शनि , यमराज , कर्ण , सुग्रीव , वैवस्वत मनु , यमुना , श्राद्धदेव मनु , रेवन्त और भद्रा
संतान साँचा:if empty
सवारी स्वर्ण रथ

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वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म में 'अश्विनौ' यानि दो अश्विनों का उल्लेख देवता के रूप में मिलता है जिन्हें अश्विनीकुमार या अश्वदेव के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद में ३९८ बार अश्विनीकुमारों का उल्लेख हुआ है,[१] और ५० से अधिक ऋचाएँ केवल उनकी ही स्तुति के लिए हैं।[२] ऋग्वेद में दोनों कुमारों के अलग-अलग नाम कहीं नहीं आते, सर्वत्र दोनों को द्विवचन में 'अश्विनीकुमारौ' नाम से विधित किया गया है।

दोनों अश्विनीकुमार प्रभात के जुड़वा देवता और आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ये देवों के चिकित्सक और रोगमुक्त करनेवाले हैं। वे कुमारियों को अच्छा पति देनेवाले माने जाते हैं। वृद्धों को तारूण्य, अन्धों को नेत्र देनेवाले कहे गए हैं। महाभारत के अनुसार नकुल और सहदेव उन्हीं के पुत्र थे (दोनों को 'अश्विनेय' कहते हैं)।

दोनों अश्विनीकुमार युवा और सुन्दर हैं। इनके लिए 'नासत्यौ' विशेषण भी प्रयुक्त होता है, जो ऋग्वेद में ९९ बार आया है।[३] ये दोनों प्रभात के समय घोड़ों या पक्षियों से जुते हुए सोने के रथ पर चढ़कर आकाश में निकलते हैं। इनके रथ पर पत्नी सूर्या विराजती हैं और रथ की गति से सूर्या की उत्पति होती है।

इनकी उत्पति निश्चित नहीं कि वह प्रभात और संध्या के तारों से है या गोधूली या अर्ध प्रकाश से। परन्तु ऋग्वेद ने उनका सम्बन्ध रात्रि और दिवस के संधिकाल से किया है।

ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) के अलावे महाभारत में भी इनका वर्णन है। वेदों में इन्हें अनेकों बार "द्यौस का पुत्र" (दिवो नपाता) कहा गया है। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र।

भारतीय दर्शन के विद्वान उदयवीर शास्त्री ने वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है [४]जो आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। इसके अलावे ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले यानि 'आशु' भी हैं - इनके नाम का मूल यही है।

चित्र:Sukanya praying to Aswini kumaras to reveal her husband's identity.jpg
अपने पति च्यवन की पहचान बताने के लिए अश्विनीकुमारों से प्रार्थना करती हुई सुकन्या

ऋग्वेद में अश्विनीकुमारों का रूप, देवताओं के साथ सफल चिकित्सक रूप में मिलता है। वे सर्वदा युगल रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उनका युगल रूप चिकित्सा के दो रूपों (सिद्धान्त व व्यवहार पक्ष) का प्रतीक माना जा रहा है। वे ऋग्वैदिक काल के एक सफल शल्य-चिकित्सक थे। इनके चिकित्सक होने का उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है। उन्होने मधुविद्या की प्राप्ति के लिए आथर्वण दधीचि के शिर को काट कर अश्व का सिर लगाकर मधुविद्या को प्राप्त की और पुनः पहले वाला शिर लगा दिया। वृद्धावस्था के कारण क्षीण शरीर वाले च्यवन ऋषि के चर्म को बदलकर युवावस्था को प्राप्त कराना। द्रौण में विश्यला का पैर कट जाने पर लोहे का पैर लगाना, नपुंसक पतिवाली वध्रिमती को पुत्र प्राप्त कराना, अन्धे ऋजाश्व को दृष्टि प्रदान कराना, बधिर नार्षद को श्रवण शक्ति प्रदान करना, सोमक को दीर्घायु प्रदान करना, वृद्धा एवं रोगी घोषा को तरुणी बनाना, प्रसव के आयोग्य गौ को प्रसव के योग्य बनाना आदि ऐसे अनगिनत उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनसे सफल शल्य्चिकित्सक होने का संकेत मिलता है।

जन्म

भगवान सूर्य का विवाह देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा की दो सुन्दर पुत्रियों से हुआ था उनके नाम थे सरण्यु और सुवर्णासरण्यु भगवान सूर्य के तेज को प्रारम्भ से ही सहन नहीं कर पाती थीं। उन्होंने अपनी छोटी बहिन सुवर्णा को सूर्य देव का ध्यान रखने को कहा। और स्वयं धरती पर चली गईं और एक पुत्र को जन्म देकर उन्होंने एक झाड़ी के पीछे उस बालक को रख दिया और स्वयं एक घोड़ी का रूप लेकर ही पृथ्वी पर वास करने लगीं। सरण्यु के पुत्र यम के जन्म से कुछ समय पहले सुवर्णा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम शनि रखा गया। सूर्य देव ने शनि को अपना पुत्र मानने से इन्कार कर दिया। उन्हें जब इस बात का पता चला कि सरण्यु पृथ्वी पर वास कर रहीं हैं तब उन्होंने भी एक घोड़े का रूप लिया और सरण्यु के अस्तबल में आ गए। वहां सरण्यु को देखकर उनके मन में काम भाव जागृत हुआ। सूर्य और सरण्यु दोनों ही अपने अर्ध मानव और अर्ध अश्व रूप में थे इसी कारण जब दोनों ने सम्भोग किया तो उनके पुत्र जब वैसे तो मनुष्य थे लेकिन वे जब चाहे अश्व का रूप और जब चाहे मनुष्य रूप अपनी इच्छा से ले सकते थे।

मधुविद्या की प्राप्ति

दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पातिव्रत्य से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। कहते हैं कि दधीचि से मधुविद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर जोड़ दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी। जब इन्द्र को पता चला कि दधीचि दूसरों को मधुविद्या की शिक्षा दे रहे हैं तो इन्द्र ने दधीचि का सिर फिर से नष्त-भ्रष्ट कर दिया। तब इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था।

सन्दर्भ

ऋग्वेद में 376 वार इनका वर्णन है, जो 57 ऋचाओं में संगृहीत हैं: 1.3, 1.22, 1.34, 1.46-47, 1.112, 1.116-120 (c.f. Vishpala), 1.157-158, 1.180-184, 2.20, 3.58, 4.43-45, 5.73-78, 6.62-63, 7.67-74, 8.5, 8.8-10, 8.22, 8.26, 8.35, 8.57, 8.73, 8.85-87, 10.24, 10.39-41, 10.143.

स्रोत

  1. Frame, Douglas (2009). "Hippota Nestor - 3. Vedic" स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।. Center for Hellenic Studies]
  2. West, Martin L. (2007). Indo-European Poetry and Myth स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।. Oxford University Press. ISBN 978-0-19-928075-9.
  3. Parpola 2015, pp. 109–110.
  4. वैशेषिक दर्शनम्, सन् २०१२, पृष्ठ ४१३

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