अक्ष सूक्त

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अक्ष सूक्त (अर्थ: जुआ अथवा जुआरी का सूक्त[१]) ऋग्वेद का एक प्रसिद्ध सूक्त है। यह सूक्त ऋग्वेद के दशम मण्डल में संकलित है और इस मंडल का ३४वाँ सूक्त है। ऋषि कवष ऐलूष इसके द्रष्टा हैं और यह त्रिष्टुप् तथा जगती नामक वैदिक छन्दों में निबद्ध है।

अक्ष क्रीड़ा की निन्दा करना और परिश्रम का उपदेश देना- इस सूक्त का सार है। एक निराश जुआरी की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण इसमें दिया गया है जो घर और पत्नी की दुर्दशा को समझकर भी जुए के वशीभूत होकर अपने को उसके आकर्षण से रोक नहीं पाता है और फिर सबका अपमान सहता है और अपना सर्वनाश कर लेता है। सूक्त में जुआरी अपने बारे में, जुए कि निन्दा, और कुछ स्वगत (मोनोलाग) भाषण करता है।[२]

अन्त में, सविता देवता से उसे नित्य परिश्रम करने और कृषि द्वारा जीविकोपार्जन करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। वैदिक ऋषि समाज को एक संदेश देता है कि "अक्षों (पासों) से कभी मत खेलो बल्कि खेती करो। कृषिकार्य में ही गायें भी सम्मिलित हैं जो पालतू एवं सम्पूर्ण समृद्धि प्रदान करती हैं।" वैदिक ऋषि उन अक्षों से प्रार्थना करता है कि-"हे अक्षों ! हमसे मित्रता करो, अपनी मोहिनी शक्ति का प्रयोग हम पर मत करो।"

प्राचीन भारत में बहेडे या बिभीतकी के बीज से अक्ष (पासा) बनाकर द्युत (जुआ) खेला जाता था।

सूक्त का पाठ

प्रवेपा मा बृहतो मादयन्ति प्रवातेजा हरिणे वर्वृतानाः ।
सोमस्येव मैजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान्॥१
न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवि सखिभ्य उत मह्यमासीत् ।
अक्षस्याहमेकपरस्य हेतो रनुव्रतामप जायामरोधम् ॥२
देष्टि श्वश्रूरपा जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दते मर्डितारम् ।
अश्वस्येव जरतो वन्स्यस्य नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम् ॥३
अन्ये जायां परि मृशन्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्यऽक्षः ।
पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीमो नयता बद्धमेतम् ॥४
यदादीध्ये न दविषान्येभिः परायद्भ्योव हीये सखिभ्यः।
न्युप्ताश्च बभ्रवो वाचमक्रतं एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव॥५

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ