अकीको सुगिमोटो
अकीको सुगिमोटो ( जापानी: 杉本 ) (28 मई, 1953 से 4 दिसंबर, 2015) एक जापानी उपन्यासकार थीं। वह एदो काल के दौरान रहने वाले प्रसिद्ध लोगों के बारे में ऐतिहासिक कथाएं लिखने के लिए जानी जाती हैं।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
सुगिमोटो का जन्म 28 मई, 1953 को फुकुओका प्रान्त के यामेशी शहर में हुआ था। जब वह एक वर्ष की थी तब उनका पैर पोलियो से लकवाग्रस्त हो गया था।[१] उनके पिता एक विश्वविद्यालय में काम करते थे और जापानी साहित्य और इतिहास के बारे में बहुत कुछ जानते थे। जब वह छोटी थी, सुगिमोटो अपने पिता के पुस्तकालय से कईं किताबें पढ़ती थी, विशेष रूप से अपने पिता का गेसाकू संग्रह। वह काबुकी नृत्य पर भी मोहित थी।[१] हाई स्कूल से स्नातक होने के बाद उन्होंने फैसला किया कि वे अपने माता-पिता से स्वतंत्र होकर रहना चाहती है और ओकायामा प्रान्त चली गई, जहां उन्होंने नोट्रे डेम सेशिन विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।[२] बाद में उन्होंने 1978 में किनजो गाकुइन विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि हासिल की। उनकी मास्टर की थीसिस तेराकादो सेईकेन के बारे में थी।[१]
आजीविका
सुगिमोटो ने तेराकादो को अपनी पहली कहानी, ओटोको नो किसकी (男の軌跡 ) में एक विषय के रूप में दोबारा लिखा। उनका पहला उपन्यास, शाराकू मबोरोशी (写楽まぼろし ) 1983 में प्रकाशित हुआ था। यह चित्रकार शाराकू के प्रकाशक त्सुताया जुसाबुरो के बारे में है। उनके 1988 के उपन्यास टोक्यो शिन-ओहाशी उचुज़ु (東京新大橋雨中図 ) ने शिज़ुको टोडो के साथ 100वां नाओकी पुरस्कार जीता।[३] 1990 में उन्होंने बाकुदन कराकू (爆弾可楽 ) लिखा, जो कि एक राकुगोका के बारे में था, जिसने कलाकार के रूप में नाम संशोती कारकू का इस्तेमाल किया था। वैसे तों उन्होंने ज्यादातर एदो काल के बारे में लिखा, पर कभी-कभी मीजी काल के बारे में भी लिखा, जैसे कि 1995 का ज़ानेई (残映) , जो एक वर्ष के दौरान असाही शिनबुन में प्रकाशित हुआ था।[४]
2002 में उनके उपन्यास ओसुजु शिंटारो निनजो शिमात्सु चो (おすず―信太郎人情始末帖 ) ने गिशो नाकायमा पुरस्कार जीता। पुस्तक एक श्रृंखला बन गई, जो 2008 में समाप्त हुई। यह उनकी पहली और केवल एक ही श्रृंखला थी जो उन्होंने पूरी की।[४]
सुगिमोटो की 4 दिसंबर 2015 को स्तन कैंसर से मृत्यु हो गई।[५]
संदर्भ
- ↑ अ आ इ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
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- ↑ अ आ Li, Shaonan (2017). "杉本章子の作品における江戸社会の様相 : 「信太郎人情始末帖」 シリーズを中心に". 国際日本学論叢. 14: 22–42.
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