हिन्दी आन्दोलन
हिन्दी आन्दोलन भारत में हिन्दी एवं देवनागरी को विविध सामाजिक क्षेत्रों में आगे लाने के लिये विशेष प्रयत्न हैं। यह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय आरम्भ हुआ। इस आन्दोलन में साहित्यकारों, समाजसेवियों (नवीन चन्द्र राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी, स्वामी दयानन्द सरस्वती,पंडित सत्यनारायण शास्त्री, पंडित गौरीदत्त, पत्रकारों एवं स्वतंत्रतता संग्राम-सेनानियों (महात्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन आदि) का विशेष योगदान था।
परिचय
भारतेन्दु के समय में हिन्दी की स्थिति बड़ी विकट हो गयी थी। अंग्रेज अपने 'फूट डालो और राज करो' की नीति के अनुसार अल्पसंख्यकों को बढ़ावा देते थे। वे हिन्दी के राह में तरह-तरह के रोड़े अटकाते थे। उर्दू-प्रेमी साहित्यकार नई हिन्दी को अपने लिये बहुत बड़ा खतरा मानते थे। इसके अतिरिक्त हिन्दी के रूढ़िवादी साहित्यकार पुरानी काव्य-परम्पराओं से चिपके हुए थे। वे आधुनिक हिन्दी में गद्य के विकास के प्रति उदासीन थे।
बहुत से लोगों का विचार है कि मुसलमानों के भारत आने से नई भाषा 'उर्दू' का जन्म हुआ। ऐसा नहीं है। मुसलमानों के भारत आने से किसी नई भाषा का जन्म नहीं हुआ। दो धर्मों के पास आने से कोई नई भाषा जन्म नहीं लेती। मुसलमानों ने यूरोप पर भी आक्रमण किया था और सैकड़ों वर्षों तक उनसे लड़ाई की थी किन्तु वहाँ किसी नई भाषा का जन्म नहीं हुआ। मुसलमानों का भारत में प्रवेश आठवीं शताब्दी से ही आरम्भ हो गया था किन्तु 'उर्दू' ने अठारहवीं शताब्दी के अन्त में ही सामने आया और जनपदीय बोलियों के शब्दों के व्यवहार का बहिष्कार इसी समय हुआ जब भारत पर अंग्रेजों की पकड़ मजबूत हो रही थी।
किसी एक ही धर्म के मानने वाले एक ही भाषा बोलें यह भी आवश्यक नहीं। अरब, ईरान, तुर्की तीनों मुसलमान देश हैं किन्तु तीनों की भाषाएँ अलग-अलग ही नहीं, तीन भिन्न परिवारों की हैं। जब हम यह विचार करें कि भारत में मुसलमानों के आने से वहाँ की भाषाओं एवं संस्कृति में क्या परिवर्तन हुए, तो ये प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए - ये मुसलमान कहाँ के निवासी थे? इनकी मातृभाषा क्या थी? दिल्ली में शासन करने वाले मुसलमान न इरानी थे न अरब।
हिन्दी का उर्दू से विलगाव इसलिये आवश्यक था कि उर्दू कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रसखान आदि द्वारा प्रयुक्त देशी शब्दों की परम्परा से अपने को जानबूझकर अलग कर लिया था। ('मतरूकात' का सिद्धान्त - अर्थात् भाषा में 'हिन्दीपन' के बदले फारसीपन का बोलबाला)। मतरूकात के दो पहलू हैं - एक तो बहुत से प्रचलित शब्द 'गंवारू' कहकर छोड़ दिये गये, दूसरे उच्च साम्स्कृतिक शब्दावली के लिये केवल अरबी-फारसी से शब्द उधार लिये गये। बंगला, मराठी, तेलगू के विपरीत उर्दू में संस्कृत का तिरस्कार होता रहा।
उर्दू में जितने अरबी शब्द अंग्रेजों के राज में आये उतने मुसलमानों के राज में भी नहीं आये थे। 'उर्दू अलग जबान है', 'मजहब के आधार पर भी कौमें बनतीं हैं' - ये विचार अंग्रेजी राज में ही प्रचारित किये गये, मुसलमानों के शासनकाल में नहीं।
सांस्कृतिक आवश्यकता एवं अपरिहार्यता
उत्तर-प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार की जनता अपनी सांस्कृतिक आवश्यकताएं किस प्रकार पूरी करती? समस्त भारतीय भाषाओं की लीक पर चलकर या उसे छोड़कर? फारसी लिपि अपनाकर, मतरूकात का सिलसिला मानकर और संस्कृत शब्दावली का बहिष्कार करके?
यदि पटना, दिल्ली, उज्जैन के विशाल त्रिकोण में हिन्दी आन्दोलन न चलाया जाता; यदि यहाँ फारसी-लिपि और फारसी-अरबी के शिष्ट शब्द लेने की नीति को मान लिया जाता तो यह नीति केवल यहाँ की जनता के लिये ही नहीं, वरन समस्त देश की जनता के लिये घातक होता। बंगला, मराठी, तेलुगू के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ने के बदले विशाल हिन्दी-भाषी क्षेत्र उन्हें पीछे ठेलता, उनकी प्रगति में बाधक बनता, उनके विकास को रोकता।
भारतेन्दु का यह युगान्तकारी महत्त्व है कि उन्होने अपने प्रदेश के सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पहचाना; उन्होने हिन्दी के लिये संघर्ष किया; सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में उसका व्यवहार सुदृढ किया; मतरूकात का सिलसिला खत्म करके उन्होने हिन्दी को उसी मार्ग पबढ़ने की प्रेरणा दी जिस पर बंगला, मराठी, तेलुगू आदि पहले से ही बढ़ रहीं थीं।
हिन्दी का विकास हमारे राष्ट्रीय जीवन के लिये आवश्यक और अपरिहार्य था। विशाल हिन्दी प्रदेश का सांस्कृतिक विकास उर्दू के माध्यम से सम्भव न था। सन् १९२८ में ख्वाजा हसन निजामी ने कुरान का हिन्दी अनुवाद कराया तो उन्होने भूमिका में बताया कि उत्तर भारत के अधिकांश मुसलमान हिन्दी जानते हैं, उर्दू नहीं। भारतेन्दु ने जो हिन्दी आन्दोलन चलाया वह मुसलमानों के लिये भी उपयोगी था न केवल हिन्दुओं के लिये; ठीक उसी तरह जैसे बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बंगला-सेवा हिन्दू-मुसलमान सबके लिये थी।
परिणाम
हिन्दी आन्दोलन के कारण-
- हिन्दी क्षेत्र में एक नई सांस्कृतिक एवं राजनैतिक नवचेतना आयी।
- देश के सामने हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में उभरी।
- हिन्दी की पत्रकारिता बड़ी तेजी से विकास के रास्ते पर चल पड़ी और देश को आजाद कराने में इसकी अग्रणी भूमिका रही।
- भारत में भाषा और लिपि की दृष्टि से एकता आयी।
'अंग्रेजी हटाओ' आंदोलन
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इन्हें भी देखें
- नागरी आन्दोलन
- नागरीप्रचारिणी सभा
- हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग
- भारतीय भाषा आन्दोलन
- राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द'
- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
- आर्य समाज
- मदनमोहन मालवीय
बाहरी कड़ियाँ
- हिन्दी-प्रसार आन्दोलन (विकिपुस्तक)
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ रामविलास शर्मा)
- महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण (गूगल पुस्तक ; लेखक- रामविलास शर्मा)
- भाषा और समाज (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ रामविलास शर्मा)
- परम्परा का मूल्यांकन (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ रामविलास शर्मा)
- स्वतन्त्रता-पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास (लेखक - रामगोपाल ; प्रकाशक - हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग)