क्रय-अभिक्रय

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क्रय-अभिक्रय (Hire purchase) एक प्रकार का अनुबन्ध है जिसका विकास यूके में हुआ। आजकल चीन भारत, जापान, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में इसका प्रचलन है। इसको बन्द-लीजिंग (closed-end leasing) भी कहते हैं। जब कोई क्रेता किसी सम्पत्ति का मूल्य एकमुश्त देने में असमर्थ होता है किन्तु उस मूल्य का कोई छोटा भाग जमा करने की क्षमता रखता है उस स्थिति में क्रय-अभिक्रय अनुबंध का उपयोग करके क्रेता उस सम्पत्ति (या माल) को मासिक किराया के बदले उधार ले सकता है। कैनादा और यूएसए में इसे 'किस्त योजना' (installment plan) कहते हैं।

क्रय-अभिक्रय-अनुबंध (हायर परचेज़-अनुबंध) उपनिधान (वेलमेंट) की श्रेणी का अनुबंध माना गया है। क्रय-अभिक्रय के नियमन के लिए कोई स्वतंत्र विधि नहीं है। अत: अनुबंध की शर्तों के अलावा संविदा विधि के ही नियम उस पर लागू होते हें। बंबई हाईकोर्ट के मतानुसार क्रय-अभिक्रय की प्रथा का उदय इंग्लैंड में हुआ और वहीं से इस प्रकार के अनुबंध भारत में भी प्रचलित हुए।

क्रय-अभिक्रय का विधिगत अर्थ है - किसी वस्तु का मालिक अपनी वस्तु को एक निश्चित किराए पर उठाने के साथ-साथ यह भी वचन देता है कि उक्त वस्तु को किराए पर लेनेवाले व्यक्ति द्वारा अनुबंध की शर्तें पूरी की जाने पर मालिक उस वस्तु को बेच देगा। इसी से मिलता जुलता क्रय-विक्रय का एक तरीका और भी है जिसमें क्रेता वस्तु का संपूर्ण मूल्य वस्तुविक्रय के समय अदा न करके किस्तों में अदा करने की सुविधा प्राप्त कर लेता है। इसे हम विक्रय करने का अनुबंध कह सकते हैं। वस्तुविक्रय के इन दो प्रकारों में प्रकट साम्य होते हुए भी चार मौलिक अंतर हैं-

(1) क्रय-अभिक्रय के अनुबंध में वह वस्तु किराए पर लेनेवाले के सुपुर्द तुरंत कर दी जाती है। किंतु विक्रय अनुबंध से वस्तु को तुरंत क्रेता के सुपुर्द करना आवश्यक नहीं होता।

(2) क्रय-अभिक्रय में वस्तु को अंतत: खरीदने या न खरीदने का निर्णय उस वस्तु को किराए पर लेनेवाले की इच्छा पर निर्भर होता है। विक्रय-अनुबंध में इच्छा का प्रश्न नहीं उठता क्योंकि उसमें वस्तु का विक्रय संपादित हो चुका होता है, केवल मूल्य की अदायगी जारी रहती है।

(3) क्रय-अभिक्रय में यह वस्तु अनुबंध में निर्धारित कालावधि के भीतर किसी समय भी वस्तु के मालिक के पास लौटाई जा सकती है। अत: स्वभावत: उस वस्तु का उसी समय तक किराया अदा करने का उत्तरदायित्व अभिक्रेता पर होता है। विक्रय अनुबंध में यह प्रश्न नहीं उठता और विक्रेता सभी किस्तों की रकम वसूलने का अधिकारी होता है क्योंकि वस्तु विक्रय कार्य संपादित हो चुका होता है।

(4) क्रय अभिक्रय में यद्यपि वस्तु अभिक्रेता के सुपुर्द कर दी जाती है तथापि वस्तु का स्वामित्व उस समय तक वस्तु के मलिक में ही निहित रहता है जब तक कि अभिक्रेता वस्तु क्रय क रने का निश्चय प्रकट नहीं करता। लेकिन विक्रय अनुबंध में यद्यपि मूल्य की अदायगी किस्तों में चलती रहती है तथापि विक्रय की हुई वस्तु का स्वामित्व क्रेता में निहित हो चुका होता है। इस अंतर का प्रभाव यह है कि विक्रय अनुबंध में यदि विक्रेता क्रेता को वस्तु हस्तांतरित नहीं करता तो क्रेता वस्तु के हस्तांतरण के लिए दावा कर सकता है और यदि क्रेता किस्तों की अदायगी नहीं करता तो विक्रेता मूल्य की वसूली का दावा कर सकता है। किंतु अभिक्रय में यदि किराए की किस्तें अदा नहीं की जातीं तो वस्तु का मालिक उस वस्तु की वापसी और उस समय तक के किराए का दावा कर सकता है।

सामान्य रूप से क्रय-अभिक्रय के लिए दो पक्षों की ही आवश्यकता होती है वस्तु के स्वामी और अभिक्रेता की। किंतु इस प्रकार के व्यापारिक विनिमय के विस्तार के साथ-साथ वित्तीय सहायक संगठनों (हायर परचेज़ फ़ाइनैंस कारपोरेशंस) का भी उदय हुआ है जो उक्त दोनों पक्षों से संपर्क स्थापित कर वस्तु के मालिक का स्थान उपलब्ध कर लेते हैं।

वस्तु विक्रय के इन प्रकारों में तत्संबंधी पक्षों के अधिकार तथा उत्तरदायित्व में अंतर होता है अत: इस प्रश्न का निर्णय कि कोई समझौता अभिक्रयअनुबंध है अथवा विक्रयअनुबंध, उस समझौते की शर्तों के अर्थविश्लेषण पर ही निर्भर करता है। समझौते की शर्तों में विक्रय या अभिक्रय उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह देखना कि दोनों पक्षों की असली मंशा क्या है। यदि वस्तु प्राप्त करनेवाले पर वस्तु लेने का कोई भार नहीं है और वस्तु का स्वामी बनना या न बनना उसकी इच्छा पर छोड़ दिया गया है तो क्रय विक्रय, किस्त आदि शब्दों के प्रयोग के बावजूद उसे अभिक्रय ही माना जाएगा।

क्रय-अभिक्रय चूँकि अनुबंधसंविदा का ही एक प्रकार है अत: नाबालिग विषयक संविदाविधि के नियम इस पर भी लागू होते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि क्रय अभिक्रय केवल चल संपत्ति के लिये ही नहीं, अचल संपत्ति के लिये भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

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