हरिवंश पर्व

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(हरिवंशपर्व से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
हरिवंश में वर्णित द्वारका के आधार पर द्वारका का चित्र (अकबर के लिये चित्रित)

हरिवंश पर्व महाभारत का अन्तिम पर्व है इसे 'हरिवंशपुराण' के नाम से भी जाना जाता है।

परिचय

हरिवंशपुराण में तीन पर्व (हरिवंशपर्व, विष्णुपर्व तथा भविष्यपर्व) तथा ३१८ अध्याय हैं।

हरिवंशपुराण के भविष्यपर्व में पुराण पंचलक्षण के सर्गप्रतिसर्ग के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्म के स्वरूप, अवतार गणना और सांख्य तथा योग पर विचार हुआ है। स्मृतिसामग्री तथा सांप्रदायिक विचारधाराएँ भी इस पर्व में अधिकांश रूप में मिलती हैं। इसी कारण यह पर्व हरिवंशपर्व और विष्णुपर्व से अर्वाचीन ज्ञात होता है।

विष्णुपर्व में नृत्य और अभिनयसंबंधी सामग्री अपने मौलिक रूप में मिलती है। इस पर्व के अंतर्गत दो स्थलों में छालिक्य का उल्लेख हुआ है। छालिक्य वाद्यसंगीतमय नृत्य ज्ञात होता है। हाव भावों का प्रदर्शन इस, नृत्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। छालिक्य के संबंध में अन्य पुराण कोई भी प्रकाश नहीं डालते।

विष्णुपर्व (91 26-35) में वसुदेव के अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर भद्र नामक नट का अपने अभिनय से ऋषियों को तुष्ट करना वर्णित है। इसी नट के साथ प्रद्युम्न, सांब आदि वज्रनाभपुर में जाकर अपने कुशल अभिनय से वहाँ दैत्यों का मनोरंजन करते हैं। यहाँ पर "रामायण" नामक उद्देश्य और "कौबेर रंभाभिसार" नामक प्रकरण के अभिनय का विशद वर्णन हुआ है।

हापकिंस ने हरिवंश को महाभारत का अर्वाचीनतम पर्व माना है। हाजरा ने रास के आधार पर हरिवंश को चतुर्थ शताब्दी का पुराण बतलाया है। विष्णुपुराण और भागवतपुराण का काल हाजरा ने क्रमश: पाँचवीं शताब्दी तथा छठी शताब्दी के लगभग निश्चित किया है। श्री दीक्षित के अनुसार मत्स्यपुराण का काल तृतीय शताब्दी है। कृष्णचरित्र, रजि का वृत्तांत तथा अन्य वृत्तांतों से तुलना करने पर हरिवंश इन पुराणों से पूर्ववर्ती निश्चित होता है। अतएव हरिवंश के विष्णुपर्व और भविष्यपर्व को तृतीय शताब्दी का मानना चाहिए।

हरिवंश के अंतर्गत हरिवंशपर्व शैली और वृत्तांतों की दृष्टि से विष्णुपर्व और भविष्यपर्व से प्राचीन ज्ञात होता है। अश्वघोषकृत वज्रसूची में हरिवंश से अक्षरश: समानता रखनेवाले कुछ श्लोक मिलते हैं। पाश्चात्य विद्वान् वैबर ने वज्रसूची को हरिवंश का ऋणी माना है और रे चौधरी ने उनके मत का समर्थन किया। अश्वघोष का काल लगभग द्वितीय शताब्दी निश्चित है। यदि अश्वघोष का काल द्वितीय शताब्दी है तो हरिवंशपर्व का काल प्रक्षिप्त स्थलों को छोड़कर द्वितीय शताब्दी से कुछ पहले समझना चाहिए।

हरिवंश में काव्यतत्व अन्य प्राचीन पुराणों की भाँति अपनी विशेषता रखता है। रसपरिपाक और भावों की समुचित अभिव्यक्ति में यह पुराण कभी कभी उत्कृष्ट काव्यों से समानता रखता है। व्यंजनापूर्ण प्रसंग पौराणिक कवि की प्रतिभा और कल्पनाशक्ति का परिचय देते हैं।

हरिवंश में उपमा, रूपक, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, यमक और अनुप्रास ही प्राय: मिलते हैं। ये सभी अलंकार पौराणिक कवि के द्वारा प्रयासपूर्वक लाए गए नहीं प्रतीत होते।

काव्यतत्व की दृष्टि से हरिवंश में प्रारंभिकता और मौलिकता है। हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण, भागवतपुराण और पद्मपुराण के ऋतुवर्णनों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि कुछ भाव हरिवंश में अपने मौलिक सुंदर रूप में चित्रित किए गए हैं और वे ही भाव उपर्युक्त पुराणों में क्रमश: अथवा संश्लिष्ट होते गए हैं।

सामग्री और शैली को देखते हुए भी हरिवंश एक प्रारंभिक पुराण है। संभवत: इसी कारण हरिवंश का पाठ अन्य पुराणों के पाठ से शुद्ध मिलता है। कतिपय पाश्चात्य विद्वानों द्वारा हरिवंश को स्वतंत्र वैष्णव पुराण अथवा महापुराण की कोटि में रखना समीचीन है।

संक्षिप्त कथा

इस पुराण में सबसे पहले वैवस्तमनु और यम की उत्पत्ति के बारे में बताया है और साथ ही भगवान विष्णु के अवतारों के बारे में बताया है। आगे देवताओं का कालनेमि के साथ युद्ध का वर्णन है जिसमें भगवान विष्णु ने देवताओं को सान्त्वना दी और अपने अवतारों की बात निश्चित कर देवताओं को अपने स्थान पर भेज दिया। इसके बाद नारद और कंस के संवाद हैं।

इस पुराण में भगवान विष्णु का कृष्ण के रूप में जन्म बताया गया है। जिसमें कंस का देवकी के पुत्रों का वध से लेकर कृष्ण के जन्म लेने तक की कथा है। फिर भगवान कृष्ण की ब्रज-यात्रा के बारे में बताया है जिसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन है। इसमें धेनुकासुर वध, गोवर्धन उत्सव का वर्णन किया गया है। आगे कंस की मृत्यु के साथ उग्रसेन के राज्यदान का वर्णन है। आगे बाणसुर प्रसंग में दोनों के विषय में बताया है। भगवान कृष्ण के द्वारा शंकर की उपासना का वर्णन है। हंस-डिम्भक प्रसंग का वर्णन है। अंत में श्रीकृष्ण और नन्द-यशोदा मिलन का वर्णन है।

बाहरी कडियाँ

साँचा:navbox