हरवंशलाल ओबराय

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हरवंशलाल ओबराय (1925-1983), स्वामी विवेकानन्द की परम्परा के भारतवर्ष में एक स्थायी स्तम्भ के समान हैं, जिसकी नींव अठारहवीं शती में भारतीय विद्वत्ता की दिशा में पड़ी थी। यह एक विश्वव्यापी प्रभाव था, जिसकी भारतीय अध्ययन के क्षेत्र में शुरूआत रूसी संस्कृतज्ञ गेरासिम लेबेडेव (1749-1817) ने की थी, और इस प्रणाली को हम अंग्रेज़ी में ‘इनसाइक्लोलोपेडिज्म’ के नाम से जानते हैं। हिंदी में इसे ‘सर्वांगीणता’ कहा जाता है।

भारतीय संस्कृति के परमाराधक, कला एवं साहित्य के सुधी मर्मज्ञ, भारतीय एवं विश्व इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान् एवं संशोधक, क्रान्तिकारी विचारक, अनेक प्राच्यविद्याओं एवं विधाओं के आधिकारिक जानकार, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष (1960-61), विश्व हिंदू परिषद् (राँची) के संस्थापक-अध्यक्ष, भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् एवं ओजस्वी वक्ता हरवंशलाल ओबराय का जन्म सन् 1925 में रावलपिण्डी (सम्प्रति पश्चिमी पाकिस्तान) के एक पंजाबी खत्री दम्पति श्री धर्मचन्द्र एवं रामकौर ओबराय के घर में हुआ। सन् 1947 में देश-विभाजन के उपरांत उन्हें सपरिवार भारत आना पड़ा।

बाल्यकाल से ही अत्यन्त तेजस्वी हरवंशलाल ने अल्पायु में ही सम्मानपूर्वक दर्शनशास्त्र, प्राच्यविद्या, भारतीय इतिहास एवं हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधियाँ प्राप्त कीं एवं सन् 1948 में जालन्धर से ‘गुरु नानकदेव का रहस्यवाद’ शोध-प्रबन्ध पर पीएच.डी. हुए। उसी वर्ष उन्हें गाँधी-हत्याकाण्ड में दोषी ठहराकर दिल्ली जेल में बन्द कर दिया गया, जहाँ से कुछ दिनों पश्चात् निरपराध सिद्ध होकर मुक्त हुए। तत्पश्चात् 1948 से 1963 तक दिल्ली तथा पंजाब एवं हरियाणा विश्वविद्यालयों के विभिन्न महाविद्यालयों में दर्शन विषय के प्राध्यापक के पद पर रहे। इस दौरान उनका स्वावलम्बी अध्ययन भी जारी रहा तथा वे अपने-आपको प्राच्यविद्या के एक अधिकारी विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी सफल रहे। ‘विश्व के विभिन्न मतावलम्बियों पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव व प्रसार’ उनके अध्ययन के मुख्य विषय था।

डॉ. ओबराय की प्रतिभा व मौलिक अन्वेषण-कार्य से प्रभावित होकर यूनेस्को ने 1963 ई. में उन्हें यूरोप, अमेरिका, कनाडा और एशियाई देशों के विश्वविद्यालयों में ‘हिंदू संस्कृति एवं दर्शन’ विषय पर व्याख्यानमाला प्रस्तुत करने के लिए आमन्त्रित किया। इस व्याख्यानमाला के अंतर्गत डॉ. ओबराय ने 126 देशों की यात्राएँ कीं और वहाँ के विश्वविद्यालयों में हिंदू-संस्कृति पर सहस्राधिक सारगर्भित व्याख्यान दिये। इस यात्रा-शृंखला में उन्होंने उन देशों में हिंदू राजा-महाराजा, साधु-संन्यासियों द्वारा किए गए धर्म-प्रचार के अवशेषों का भी अध्ययन किया और वहाँ से पुरातात्त्विक महत्त्व के चित्रों, मूर्तियों और अभिलेखों की अनुकृतियाँ भी सँजोयीं।

विदेशों में डॉ. ओबराय का प्रथम भाषण (?) मिशिगन विश्वविद्यालय (सं.रा. अमेरिका) के सभागार में 11 सितम्बर, 1963 को प्रथम विश्व धर्म संसद (शिकागो, 1893 ई.) की 70वीं वर्षगाँठ पर आयोजित सम्मेलन पर हुआ। उस सम्मेलन में इस द्वितीय विवेकानन्द को सुनने के लिए बिड़ला प्रौद्योगिकी संस्थान (बीआईटी, मेसरा, राँची) के प्रतिनिधि चन्द्रकांत बिड़ला उपस्थित थे। वह डॉ. ओबराय का व्याख्यान सुनकर भाव-विभोर हो उठे और उन्होंने निश्चय किया कि वे उन्हें बीआईटी में लायेंगे।

बिड़ला-बन्धुओं में सबसे बड़े और प्रख्यात समाजसेवी बाबू जुगल किशोर बिड़ला (1884-1967) ने डॉ. ओबराय को बीआईटी में प्रवास का निमन्त्रण दिया। इस तरह सन् 1964 में बीआईटी, राँची में डॉ. ओबराय का पदार्पण हुआ। बाबू जुगल किशोर बिड़ला ने बीआईटी के अंतर्गत दर्शन एवं मानविकीशास्त्र के स्वतंत्र संकायों की स्थापनाकर डॉ ओबराय को उनका अध्यक्ष नियुक्त किया। यह बात कम महत्त्व की नहीं है कि कोई व्यक्ति इतना बड़ा विद्वान् हो सकता है कि केवल उसकी मेधा से प्रभावित होकर देश का एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय उसे नियुक्त करने के लिए अपने यहाँ उसी के विषय का विभाग खोल देता है।

डॉ. ओबराय को प्राच्यविद्या के क्षेत्र में शोध-कार्य के लिए भारतीय संस्कृति के मूर्धन्य विद्वान् एवं ‘सरस्वती विहार’ (इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ़ इण्डियन कल्चर, दिल्ली) के संस्थापक तथा भारतीय जनसंघ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. आचार्य रघुवीर (1902-1963) से प्रेरणा प्राप्त हुई थी। आचार्य रघुवीर-जैसे प्रकाण्ड विद्वान् की जहाँ प्रेरणा होगी, वहाँ उसकी महत्ता को शब्दों में बाँधना अन्याय ही होगा। किन्तु सन् 1963 में डॉ. ओबराय के विदेश-प्रवास के समय अचानक पीछे भारत में आचार्य रघुवीर का एक मोटर-दुर्घटना में स्वर्गवास हो गया था। इस घटना से डॉ. ओबराय के हृदय को बड़ा आघात लगा था। इसे भी एक घटनाक्रम का भाग्य ही कहा जा सकता है कि डॉ. ओबराय विदेश-प्रवास से लौटकर बिड़ला जी के पास गये थे और पूज्य बिड़ला जी ने उन्हें आचार्य रघुवीर का एक महान् ग्रन्थ भेंट करते हुए कहा था कि जैसे इस महापुरुष ने अपना समूचा जीवन भारतीय संस्कृति की सेवा के लिये उत्सर्ग किया, वैसे ही उसके प्रति श्रद्धाञ्जलि के रूप में आप छोटानागपुर में एक सांस्कृतिक संस्थान चलायें, जिसमें केवल शोध-कार्य ही न होकर भारतीय संस्कृति पर अध्ययन, शोध और प्रचार— तीनों कार्य साथ-साथ हों।

यहीं से उठता है डॉ. ओबराय का ‘संस्कृति विहार’ की स्थापना में पहला कदम। संस्थान की स्थापना हेतु श्री ब्रजमोहन बिड़ला (1905-1982) से परामर्श हुआ तथा उन्होंने डॉ. ओबराय को देशभर के बिड़ला शिक्षा-संस्थानों में व्याख्यानमाला हेतु आमन्त्रित किया। अन्त में कई मास के विचार-मन्थन के उपरांत अप्रैल, 1964 ई. में यह निश्चित हुआ कि आचार्य रघुवीर के ‘सरस्वती विहार’ के नाम के अनुरूप ही ‘संस्कृति विहार’ की स्थापना की जाये, जहाँ से शोधकर्ता विद्वत्वर्ग, बुद्धिजीवी नगरवासी एवं अपठित ग्रामवासी-वनवासी— सभी को समान रूप से भारतीय संस्कृति का प्रकाश प्राप्त हो सके।

इस तरह 20 मई, 1965 को राँची के अपर बाज़ार में महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज (1887-1976) के कर-कमलों से ‘संस्कृति विहार’ (एकेडमी ऑफ़ इण्डियन कल्चर) का उद्घाटन हुआ। यह संस्था लगभग ढाई दशकों तक छोटानागपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में गतिशील रही। इस संस्था के विभिन्न कार्यकलापों के जरिये, जिसमें रात्रि-पाठशालाओं, चिकित्सा-शिविरों, गरीब व पिछड़े वर्गों, वनवासी बन्धुओं को आर्थिक सहायता, धार्मिक पर्वों, गीता-गोष्ठियों, अन्य राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय शोध-संस्थानोंं के साथ सामञ्जस्य, बहुमूल्य धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक ग्रन्थों एवं दृश्य, श्रव्य साधनों का संग्रह भी शामिल रहा, देश के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू-आस्था के लोगों को नयी प्राण-शक्ति मिली।

उन दिनों छोटानागपुर में विदेशी पादरियों द्वारा हिंदुओं के सामूहिक धर्मांतरण एवं पूर्वी बंगाल में हिंदुओं पर होनेवाले अमानवीय, पैशाचिक अत्याचारों के समाचार वृत्त-पत्रों में छप रहे थे। उस समय बाबू जुगल किशोर बिड़ला ने अश्रुपूरित नेत्रों एवं करुणा-कातर हृदय से कहा था, ‘‘मेरे समाज के अंग कट रहे हैं। क्या संस्कृति की सुधा द्वारा हिंदू समाज को विदेशियों एवं विधर्मियों के अत्याचार से बचाया नहीं जा सकता?’’ इन्हीं शब्दों ने दिया था डॉ. ओबराय के लिये वह आह्वान, जो बाद में स्वत: ही उनके सम्पूर्ण जीवन को इस पवित्र कार्य में समर्पित कर गया।

धर्मांतरण के विरुद्ध धर्मयुद्ध का डॉ. ओबराय ने चारों दिशाओं में सिंहनाद कर दिया। निषादराज केवट, शबरी, हनुमान्, जाम्बवंत, एकलव्य, कृष्ण, बलराम और ग्वालबालों के वंशज अपने महान् सनातन-धर्म को त्यागकर कुछ तुच्छ प्रलोभनों के कारण किसी विदेशी सम्प्रदाय का पाँव पकड़ें, यह डॉ. ओबराय को सहन नहीं था। उन्होंने बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश एवं अन्य निकटवर्ती राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों का तूफ़ानी दौरा करके ईसाई-पादरियों के षड्यन्त्र का मुँहतोड़ उत्तर दिया और वनवासी बन्धुओं में सनातन-धर्म के लिए आदर और गौरव का भाव जगाया। ‘संस्कृति विहार’ के स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं ने अनेक सरल वनवासियों को, जिन्होंने कुछ तुच्छ प्रलोभनों के कारण अपने पारम्परिक धर्म को छोड़कर अन्य सम्प्रदायों का आँचल पकड़ लिया था, शुद्धिकरण द्वारा पुन: सनातन-धर्म की गंगालहरी में सम्मिलित किया।

जब-जब छोटानागपुर में ईसाई मत के प्रचार-प्रसार की रोकथाम की दिशा में सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक कदमों को उठानेवाले व्यक्तित्व का जिक्र होगा, तब-तब डॉ. ओबराय का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। बड़े-बड़े संगठन भी जिस कार्य को नहीं कर सके, उसे डॉ. ओबराय ने सफलतापूर्वक कर दिखाया। वनवासियों के बीच काम करते-करते डॉ. ओबराय को वनवासी जीवन के यथार्थ को समझने तथा अन्य पिछड़े लोगों की समस्याओं का अध्ययन करने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ। उनके इस अनुभव से लाभ उठाने के लिए अरुणाचलप्रदेश की तत्कालीन सरकार ने भी उन्हें आमन्त्रित किया और छोटानागपुर-जैसी ही वहाँ की समस्याओं के समाधान के लिए डॉ. ओबराय के रचनात्मक सुझावों से लाभ उठाया।

ऐसे संगठनात्मक दायित्वों के साथ-साथ डॉ. ओबराय के अध्ययन का क्षेत्र बहुत व्यापक था। वे चार-चार विषयों में स्नातकोत्तर थे, दर्शनशास्त्र में पीएच.डी. थे एवं ग्लिम्प्स ऑफ़ प्री-इस्लामिक अरेबिया शोध-प्रबन्ध पर सन् 1982 में मद्रास विश्वविद्यालय से उन्हें ‘डी.लिट्.’ की उपाधि भी मिली। वे कई भाषाओं के जानकार थे और हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेज़ी और फ्रेंच-भाषाओँ के तो वे प्रकाण्ड विद्वान् थे। वे इन सभी भाषाओं में अपने उद्गार व्यक्त करते थे। वे हिंदू-धर्म, संस्कृति, दर्शन एवं भारतीय इतिहास के किसी भी पक्ष पर निरन्तर सात-सात घंटे तक व्याख्यान देनेवाले अद्भुत धर्म-धुरन्धर विद्वान् थे। डॉ. ओबराय के व्याख्यान ओजस्वी, पाण्डित्यपूर्ण और हृदयस्पर्शी होते थे। कहते हैं, उनके बराबर न तो संसार में किसी ने इतनी यात्राएँ कीं और न ही इतने व्याख्यान दिये। डॉ. ओबराय की स्मरण-शक्ति अलौकिक थी। सम्पूर्ण वाल्मीकीयरामायण, भागवतमहापुराण, भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस उन्हें कंठस्थ थे। वे इन सभी ग्रन्थों का सस्वर पाठ किया करते थे।

‘महर्षि व्यास का राष्ट्र-दर्शन’, ‘गोस्वामी तुलसीदास का राजनैतिक दर्शन’, ‘रामकृष्ण परमहंस का जीवन-दर्शन’, ‘श्रीकृष्ण का राजनैतिक तत्त्वदर्शन’, ‘शंकराचार्य की दार्शनिक प्रतिभा’, ‘लोकमान्य तिलक की प्रज्ञा’, ‘वेदांत की विज्ञान को चुनौती’, ‘विश्व के वक्षस्थल पर फहराता हुआ भारत का विजयकेतु’, ‘आधुनिक कालगणना में भारत की देन’, ‘श्यामदेश में रामचरित्र का पवित्र प्रकाश’-जैसे आलेख उनके विस्तृत अध्ययन और गहन चिन्तन का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। डॉ. ओबराय की समाज-दृष्टि और इतिहास-चिन्ता की बानगी देखनी है तो उनके वैसे शोध-प्रबन्धों की और ध्यान दिया जाना चाहिये, जिनमें ईसामसीह, सन्त कबीरदास, सन्त एकनाथ, महाराणा प्रताप, अब्दुर्रहीम खानखाना, जगदीश चन्द्र बसु, स्वामी विवेकानन्द, भगिनी निवेदिता, श्रीअरविन्द, सरोजिनी नायडू और पं. जवाहरलाल नेहरू का मूल्यांकन हुआ है।

इसी प्रकार, रामकथा और रामभक्ति-साहित्य पर उनके अपने मौलिक विचार थे, जो उनके समकक्ष रामकथा के उद्भट विद्वान् कहे जानेवाले फादर कामिल बुल्के (1909-1982) को भी बौना सिद्ध करते थे। कुछ लोगों को यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकती है, लेकिन देश-विदेश की यात्राओं में डॉ. ओबराय ने रामकथा के माध्यम से हिंदू-धर्म एवं दर्शन के अनगिनत साक्ष्य एकत्र किए थे। रामकथा और बौद्ध भारत के इतिहास के ये अभिलेख लगभग तीन हज़ार चित्रों, मूर्तियों और कलाकृतियों के रूप में ‘संस्कृति विहार’, राँची के सभागार में संचित थे। चीन, जापान, म्यांमार, थाईलैण्ड, कम्बोडिया, वियतनाम, लाओस, मंगोलिया, नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और दक्षिण अमेरिका के स्मृति-चिह्नों की यह धरोहर डॉ. ओबराय के विशद ज्ञान, सूझ और वृत्ति को भली-भाँति उकेरती है। यह समस्त सामग्री डॉ. ओबराय के जीवनकाल में ही विषयवार संपादित की गई थी और देश-विदेश के शिविरों, उत्सवों और समारोहों में वे इस चित्र-प्रदर्शनी को साथ ले जाते थे।

शिकागो के डेनियल बेन हॉरिन को भारतीय दर्शन के नव्य-वेदांत पर शोध-कार्य के लिए मार्गदर्शन दिया गया, टोकयो विश्वविद्यालय के मिश्तासी को ‘जेन बुद्धिज्म’ पर शोध-कार्य करने में सहायता की गयी। यहाँ तक कि डॉ. ओबराय के पास अमेरिका के प्रथम बैप्टिस्ट चर्च के मिनिस्टर (बड़े पादरी) भी आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु आया करते थे। डब्ल्यू. ई. डेइलचर ने ब्रौकपोर्ट (न्यूयॉर्क) से लिखा था कि उसने डॉ. ओबराय के सुन्दर पत्र का अंश अपने कार्य में उद्धृत किया था। डेइलचर के अनुसार डॉ. हरवंशलाल ओबराय जी की यह भावनाएँ, कि ‘भौतिक जीवन की सर्वांगीणता में आध्यात्मिक मार्गदर्शन अति आवश्यक है’— अत्यन्त ही यथासमय कही गयी है।

डॉ. ओबराय की दिनचर्या अद्भुत थी। ब्राह्म मुहूर्त के समय उनके श्रीमुख से आद्य शंकराचार्य द्वारा रचित यह श्लोक— प्रात: स्मरामि हृदि सस्फुरत् आत्मतत्त्वं सच्चितसुखं परमहंसगतिं तुरीयम्। यत् स्वप्न जागर सुषुप्तिं अवैति नित्यम्, तद् ब्रह्मनिष्कल अहं न भूतसंघ: उच्चरित होता था। ब्राह्म मुहूर्त को डॉ. ओबराय बहुत महत्त्व देते थे। वे कहते थे कि ईश्वर से, महापुरुषों से, गुरुजनों से एवं माता-पिता से आशीर्वाद लेने का यही सबसे अच्छा समय है। यही समय ऐसा है जिस समय ईश्वर का चिन्तन और स्मरण करना चाहिये। विदेशी षड्यन्त्रों से त्राण पाने के लिए वे सभी हिंदुओंका आह्वान करते हुए कहा करते थे, ‘‘हे हिंदू! तू बिन्दु-बिन्दु बनकर मत बिखर। तू बिन्दु-बिन्दु मिलकर सिंधु बन वेग से बह, तब तुम्हारी धारा को कोई मोड़ नहीं सकेगा। हर हिंदू जो आया है, उसको एक दिन मरना है, किन्तु हिंदू समाज को मरना नहीं है। इसलिये हिंदू तू बिन्दु का जीवन छोड़कर सिंधु का जीवन जी। हिंदू तू सिंधु बन जा। धारा को अमर बना जा।’’ हिंदुओं के संगठित रहने से ही देश सुरक्षित रह सकता है— ऐसा डॉ. ओबराय का स्पष्ट विचार था।

डॉ. ओबराय अपनी स्पष्टवादिता के लिए विख्यात थे। सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए भी उन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण (1902-1979) के आंदोलन का समर्थन किया था। वे नागरिक स्वतंत्रता के सजग प्रहरी थे और यही कारण है कि आपातकाल (1975-’77) में उन्हें 19 महीने ‘मीसा’ बन्दी के रूप में कारावास-दण्ड भी भुगतना पड़ा। उन्हें राँची सेन्ट्रल जेल में ठूँस दिया गया, परन्तु अपने उग्र भाषणों के कारण जल्द ही उन्हें वहाँ से हटाकर गया सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया। गया जेल भी इस विद्रोही को रख नहीं सकी और उन्हें वहाँ से भी हटाकर हज़ारीबाग सेन्ट्रल जेल भेजा गया। अन्ततोगत्वा उन्हें पुन: राँची भेजा गया, जहाँ से वह मुक्त हुए। केवल 19 महीने के कारावास-जीवन में चार-चार बार स्थानांतरण होना— यह उनके विद्रोही जीवन का एक अतुलनीय उदाहरण है।

जेल से छूटने के बाद वे पुन: और अधिक उत्साह से भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कार्य में जुट गये। वनवासियों की समस्याओं और भारतीय संस्कृति एवं दर्शन-जैसे विषयों पर उन्हें देशभर के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया जाने लगा और भारतीय संस्कृति के अघोषित प्रवक्ता के रूप में उनकी कीर्ति सर्वत्र गूँजने लगी। आद्य शंकराचार्य और स्वामी विवेकानन्द उनके आदर्श पुरुष और स्वामी नन्दनन्दनानन्द सरस्वती उनके गुरु थे। ओबरायजी के जीवन में आडम्बर का कोई स्थान नहीं था। सादा जीवन और उच्च विचार उनके जीवन से सदा प्रकट होता रहता था।

डॉ. ओबराय का जीवन गीता के निष्काम कर्मयोग का ज्वलन्त उदाहरण था और उन्होंने अपने व्यवहार और आचरण को अपने निरूपित सिद्धातों से कभी स्खलित नहीं होने दिया। ध्येय की प्राप्ति हेतु जीने और मरने के लिये दैनन्दिन जीवन में जो संयम, संकल्प-शक्ति और कष्ट-सहिष्णुता अपेक्षित होती है, वह उनमें संस्कारगत गुण के रूप में विद्यमान थी। साधना और सिद्धि के बीच उन्होंने साधना का ही वरण किया। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि उन्हें देश-विदेश के कई मठ-मन्दिरों का अधीश बनने का प्रस्ताव आया था, परन्तु उन्होंने सदा उन प्रस्तावों को ठुकराया।

छल-कपट विवर्जित, गंगाजल-सा पावन जीवन, नवनीत-सा कोमल हृदय, सागर-सा गाम्भीर्य, हिमालय-सी दृढ़ता— इन सबका समन्वय थे डॉ. हरवंशलाल ओबराय। सतत संघर्षशीलता ने उन्हें लोकपुरुष बनाया। देश का दुर्भाग्य कि ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति और धर्म का यह महान् अन्वेषक जब अपनी प्रतिभा से समस्त विश्व को प्रभाषित कर रहा था, जब विज्ञान व अध्यात्म के मनीषियों ने इस तत्त्वान्वेषी की लेखनी, वाणी और कर्तृत्व से चमत्कृत होकर उन्हें भारतीय संस्कृति का महान् सेनानायक स्वीकारकर उनकी जय-जयकार करनी आरम्भ की थी, तभी कुछ राष्ट्रद्रोहियों ने उनकी यशकाया को समाप्त करने का कुचक्र रचना आरम्भ कर दिया। सितम्बर, 1983 ई. में इन्दौर में हो रहे शिक्षा-सम्मेलन में ‘वेद और विज्ञान’ विषय पर आयोजित व्याख्यानमाला में भाषण देने के लिए जब वे राँची से इन्दौर जा रहे थे, उसी यात्रा के दौरान 18 सितम्बर को रायपुर के पास एक आततायी द्वारा चलती रेल से धक्का दिए जाने से वे दिवंगत हुए।

कहने की आवश्यकता नहीं कि विलक्षण प्रतिभा, देदीप्यमान चेतना और वैचारिक निरन्तरता के धनी डॉ. हरवंशलाल ओबराय यदि असमय काल-कवलित न हो गये होते, तो भारतवर्ष के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष का ग्राफ अपने चरम पर होता।

कृतियाँ :

  • महामनीषी डॉ. हरवंशलाल ओबराय रचनावली (प्रथम खण्ड, पटना, 2008) गुंजन अग्रवाल एवं डॉ. राजकुमार उपाध्याय 'मणि' (सं.)
  • डॉ. हरवंशलाल ओबराय समग्र (5 खण्ड), (बीकानेर, 2009)